भामह का परिचय
संस्कृत काव्यशास्त्र की परंपरा के अलंकारवादी आचार्य भामह के जन्म-समय को लेकर विद्वानों के बीच अनेक मतभेद हैं। भामह के पिता का नाम रक्रिलगोमिन् था। आचार्य भामह के संदर्भ में काव्यालङ्कार में केवल इतना मिलता है :
‘सुजनावगमाय भामहेन ग्रथितं रक्रिलगोमीसूनुनेदम्। (काव्यालङ्कार, ६/६४)
अर्थात् सुजनों के ज्ञान के लिए, रक्रिलगोमी के पुत्र भामह ने यह ग्रन्थ (काव्यालङ्कार) रचा है।
इससे केवल दो बातें जान पड़ती हैं: पहला यह कि ग्रन्थकार का नाम भामह है, और दूसरा यह कि वे रक्रिलगामी के पुत्र थे। रक्रिल नाम राहुल, सोमिल, पोतल आदि बौद्ध नामों से मिलता-जुलता है, इस नाम के आधार पर तथा काव्यालंकार के कतिपय उल्लेखों के आधार पर ही कुछ विद्वानों ने भामह को बौद्ध माना है हालाँकि भामह ने बौद्धधर्म के अपोहवाद का खंडन किया है, किसी बौद्ध सिद्धांत की प्रशंशा या स्थापना नहीं। भामह के इसी खंडन के कारण ही भामह के लिए शांतिरक्षित ने कुदृष्टि और दुरात्मा शब्द का प्रयोग किया है—यही उन्हें अ-बौद्ध बताने का प्रमाण मिलता है। इस क्रम में कुछ विद्वानों ने उन्हें बौद्ध नहीं, बल्कि वैदिक परंपरा का अनुयायी माना है।
आचार्य आनंदवर्धन ने इनके एक श्लोक (काव्यालंकार 3/28) की छाया बाणभट्ट की रचना में देखी है। अतः आनंदवर्धन की मान्यता के अनुसार भामह बाण (सातवीं शताब्दी) से पूर्व के हैं। भामह के प्रत्यक्ष के लक्षण पर दिङ्नाग के लक्षण का प्रभाव तो है, पर धर्मकीर्ति के लक्षण का नहीं। अतः वे दिङ्नाग के बाद और धर्मकीर्ति के पहले प्रायः छठी शताब्दी में हुए यह कहा जा सकता है।
भामह ने अपने ग्रंथ काव्यालंकार में छः परिच्छेदों तथा लगभग 400 कारिकाओं या श्लोकों में काव्य का लक्षण, प्रयोजन, अलंकार, दोष, न्यायनिर्णय तथा शब्दशुद्धि पर विचार किया है। अपने समय के अनेक कवियों के इन्होंने नाम व उद्धरण दिए तथा शब्दार्थ-साहित्य की अवधारणा का विस्तार किया। आधुनिक दृष्टि से भामह को संस्कृत काव्यशास्त्र में संरचनावादी चिंतन का सूत्रधार कहा जा सकता है। शब्दार्थ-संबंध पर विचार करते हुए भामह ने बौद्धों के अपोहवाद तथा वैयाकरणों के स्फोटवाद दोनों का निराकरण किया।
भामह रचित ‘काव्यालंकार’ अलंकारशास्त्र का प्राचीनतम उपलब्ध ग्रन्थ है। भामह से पूर्व अलंकारशास्त्र पर स्वतन्त्र रूप से कितना लिखा गया, यह कह पाना कठिन है, क्योंकि छन्द, अलंकार, दोष, गुण, भाषा आदि पर प्रासंगिक रूप से नाट्यशास्त्र में विचार हो ही चुका था। भरत उपमा, रूपक, दीपक और यमक इन चार अलंकारों को स्वीकृति दे चुके थे, फलतः उपमादोषों का विवेचन करने वाले मेधावी मूलतः नाटकविवेचक हैं या काव्यविवेचक—कह पाना कठिन है। भामह के विवेचन से यही प्रतीत होता है कि काव्यशास्त्र की परंपरा धीरे-धीरे विकसित हो रही थी, उत्कर्ष की स्थिति अभी नहीं आयी थी। जो भी हो, इसे काव्यशास्त्र का प्रारम्भिक काल ही कहा जा सकता है।
भामह ने काव्यशास्त्र को जो स्वरूप प्रदान किया, परवर्ती आचार्यों ने उसे मुक्तकण्ठ से स्वीकारा है। काव्य लक्षण, प्रयोजन और हेतु के विषय में तो वे अप्रतिम रहे। अलंकारों के स्वरूप में अन्तर आने का कारण उनकी संख्या वृद्धि मुख्य थी। दोषों में भी अनेक भेदोपभेद खोजे गये, फलतः उनका स्वरूप परिवर्तित हुआ, लेकिन गुण और रीति के विषय में उनके विचारों को ही परवर्ती काल में मान्यता प्राप्त हुई। उन्होंने शब्दशुद्धि एवं पदसंयोजन को महत्त्व दिया था जिसे वामन ने स्वीकारा भी, लेकिन परवर्ती काव्यशास्त्र में उसे मान्यता नहीं मिली। कदाचित् इन्हीं से प्रेरणा लेकर दण्डी ने शब्दविवेक के स्थान पर कलाविवेचन को महत्त्व दिया होगा, लेकिन वह भी लोकप्रिय नहीं हो सका। वस्तुतः नाट्यशास्त्र में जिस प्रकार एक-एक अंग पर स्वतन्त्र चिन्तन हुआ था और ग्रन्थ रचना की गयी थी, यह अलग बात है कि वे ग्रन्थ आज उपलब्ध नहीं हो रहे हैं, वैसा काव्यशास्त्र में नहीं हो सका। भामह द्वारा वक्रोक्ति को अलंकारों का मूल या प्राण मानने का आशय रूढ़ कथनप्रणालियों को अलंकार रूप में मान्यता देना नहीं है, बल्कि उक्तियों को उनसे जीवन्त एवं चमत्कारपूर्ण बनाना ही है। ध्वनिकार ने अलंकार से अलंकार व्यंग्य में इसी भाव को खींचने का प्रयास किया है, लेकिन परवर्ती आचार्य चिन्तन के उस अत्युच्च धरातल पर अवस्थित नहीं हो सके। राजानक कुन्तक द्वारा भामह के कई दर्जन लक्षणोदाहरणों की उद्धृति, भामह के चिन्तन की ससारता को तो रेखांकित करती ही है, निरुद्देश्य एवं चमत्कृतिरहित अलंकारों की सत्ता पर भी प्रश्नवाचक चिह्न लगाती है।