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श्यामाचरण दुबे

1922 - 1996 | नरसिंहपुर, मध्य प्रदेश

अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त समाजविज्ञानी। हिंदी में 'समय और संस्कृति' और 'परंपरा और परिवर्तन' शीर्षक से दो चर्चित पुस्तकें।

अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त समाजविज्ञानी। हिंदी में 'समय और संस्कृति' और 'परंपरा और परिवर्तन' शीर्षक से दो चर्चित पुस्तकें।

श्यामाचरण दुबे के उद्धरण

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कालिदास ने कहा था कि पुराना सब अच्छा नहीं होता, नया सब बुरा नहीं होता। दोनों का समन्वय ज़रूरी है। मनुष्य का विवेक सर्वोपरि है और उसी के आधार पर वह समन्वय संभव होगा।

परंपरा को जड़ और विकास को गतिमान मानना, हमारी विचार प्रक्रिया में रूढ़ हो गया है।

परंपरा साधन है, साध्य नहीं।

यदि हम परंपरा का नकारात्मक मूल्यांकन भी करते हैं, तो भी यह स्वीकार करना कठिन है कि दृष्टिकोणों और मूल्यों को बदलने और संरचनात्मक बाधाओं को हटाने से, अपने आप ही पर्याप्त उन्नति तथा वृद्धि हो जाएगी।

हिंदू धार्मिक और सामाजिक विचारधारा के अंतर्गत, विकास के संबंध में बहुत कम और परिवर्तन के विषय में बहुत कुछ कहा गया है।

धर्म के समान अधर्म के भी चार चरण—झूठ, हिंसा, असंतोष और संघर्ष होते हैं। अधर्म के ये तत्त्व धीरे-धीरे बढ़े।

परंपरा जीवन-दृष्टि, मूल्यों, विचार-प्रकारों, आचार, प्रथाओं और सम्बद्ध सामाजिक क्रियाओं की ऐसी समग्रता है, जिसकी निरंतरता पीढ़ी-दर-पीढ़ी बनी रहती है।

यह सत्य है कि कोई समाज पूर्णतया धर्मनिरपेक्ष नहीं होता और धर्म की सभी शिक्षाएँ क्रिया-विरोधी होती हैं।

व्यवहार के कुछ स्वरूप अविवेकपूर्ण प्रतीत होते हो, पर उसमें भी एक आंतरिक तर्क होता है।

परंपरा बहुत बड़ा भंडार है। इसका प्रयोग परिवर्तन और विकास की विचारधारा के समर्थन में किया जा सकता है, साथ ही उसका प्रयोग परिवर्तन और विकास विरोधी विचारधारा के लिए भी हो सकता है।

भाषा एक सामाजिक उत्पाद है और उसका स्वरूप बहुत अंशों में, मानव की सामाजिक संरचना और पर्यावरण से—उसके अंत: संबंधों द्वारा निर्धारित होता है।

समान लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए मानव जाति अवश्य एक हो, परंतु विश्वव्यापी सांस्कृतिक एकरूपता ज़रूरी है और संभव।

समसामयिक संवाद में परंपरा की केंद्रीयता असंदिग्ध है।

आज के संदर्भ में 'परंपरा' एक मोहक शब्द है। साथ ही यह शब्द भ्रामक भी है, क्योंकि इसे मनचाहे अर्थ देकर इसके ग़लत-सही कितने ही प्रकार के उपयोग किए जा सकते हैं।

संस्कृति और जातीय अस्मिता, एक तरह से परंपरा के पर्यायवाची बन गए हैं।

आज के संवाद में 'परंपरा' और 'विकास' प्रायः विपर्यायवाची शब्द बन गए हैं, उनका उपयोग दो विपरीत ध्रुवीय संप्रत्ययों के रूप में किया जाने लगा है।

कहने की आवश्यकता नहीं है कि संस्कृति के संदर्भ में 'उच्च' और 'निम्न' धरातलों का निर्धारण, प्रबुद्ध वर्ग द्वारा किया जाता है।

भारत तर्कबुद्धि से अपरिचित या उसके विरुद्ध नहीं है।

भाषाएँ अपनी प्रवृत्ति के अनुसार शब्दों को विशेष अर्थ देती हैं।

मौखिक परंपराएँ, सब संस्कृतियों का एक महत्त्वपूर्ण अंग होती हैं।

परंपरा की परिधि का निर्धारण, उसे देखने और समझने की दृष्टि पर अवलंबित होता है। यह दृष्टि परंपरा के तटस्थ अध्येताओं की हो सकती है और उनकी भी, जो सामाजिक क्रियाओं की गति और दिशा निर्धारित करने के लिए उसकी व्याख्या करते हैं।

सांस्कृतिक धरोहर के हस्तांतरण में मौखिक कथन तथा स्मृति की निर्णायक भूमिका होती है।

संस्कृति एक अनुकूलनशील क्रियाविधि है।

धर्म के कुछ निर्देशन अत्यधिक दृढ़ या अनमनीय प्रतीत हो सकते हैं, लेकिन उनकी भी पुनर्व्याख्या की जा सकती है और व्यवहार के वैकल्पिक विधान संभव हो सकते हैं।

परंपरा को उपयोग में लाने में अनेक नाज़ुक समस्याएँ उठ खड़ी होती हैं, जिनके समाधान के लिए संवेदनशीलता और प्रबंधन की आवश्यकता होगी।

परिवर्तन संबंधी हिंदू दृष्टिकोण का मुख्य आधार कालचक्र का सिद्धांत है। समय की हिंदू अवधारणा चक्रीय है।

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विकास के प्रश्नों और समस्याओं पर ध्यान देना आरंभ अवश्य किया गया, पर इस दिशा में साहसिक और कल्पनाशील प्रयोगों का अभाव बना रहा।

विकास-संबंधी अधिकांश निर्णय राजनीतिक होते हैं।

सामंती संस्कृति के तत्त्व भारत में पहले भी रहे हैं। उपभोक्तावाद इस संस्कृति से जुड़ा रहा है। आज सामंत बदल गए हैं, सामंती संस्कृति का मुहावरा बदल गया है।

संचार-प्रक्रिया की चर्चा करते समय दर्शकों-श्रोताओं-पाठकों की प्रकृति को नहीं भुलाया जा सकता।

प्राविधिक विकास की विभिन्न स्थितियों में क्रमशः संचार-क्षेत्र का विस्तार होता रहा।

स्वाधीनता के पहले पच्चीस वर्षों में जन-संचार के साधनों का समुचित और समन्वित विकास नहीं हुआ। यह मानने के कारण हैं कि इसी काल में संचार के कुछ परंपरागत साधनों का ह्रास हुआ है।

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संस्कृति और परंपरा, दोनों मानसिक संकल्पनाएँ हैं।

संक्रमण एक ऐतिहासिक प्रक्रिया है, उसका हमेशा दुःखदायी होना आवश्यक नहीं है।

संघर्ष और हिंसा के बीज हमारी समाज-रचना और संस्कृति में आरंभ से ही रहे हैं—आंतरिक अंतर्विरोधों के रूप में। पहले उन्हें दर्शन और धर्म ने नियंत्रित किया, बाद में ऐसे सांस्कृतिक आंदोलनों ने—जिनकी परिणति भक्ति के किसी स्वरूप में हुई।

परंपराओं की प्रासंगिकता और उनका महत्त्व असंदिग्ध है, पर उन्हें एक सीमा से अधिक महिमा-मंडित करना भी उचित नहीं है।

गांधी जी ने कहा था कि हम स्वस्थ सांस्कृतिक प्रभावों के लिए अपने दरवाज़े-खिड़की खुले रखें, पर अपनी बुनियाद पर क़ायम रहें। उपभोक्ता संस्कृति हमारी सामाजिक नींव को ही हिला रही है। यह एक बड़ा ख़तरा है। भविष्य के लिए पह एक बड़ी चुनौती है।

जन-संचार के कार्यक्रम और विषयवस्तु, मुख्यतः नगरों और समृद्ध वर्ग की अभिरुचि को ध्यान में रखकर विकसित किए जाते हैं।

समाज जड़ नहीं होता, गत्यात्मकता संस्कृति की प्रकृति में अंतर्निहित होती है।

सूचना और विश्लेषण में 'स्थानीय' और 'क्षेत्रीय' की तुलना में—'अंतर्राष्ट्रीय और 'राष्ट्रीय' को कहीं अधिक स्थान दिया जाता है।

लोकसंस्कृतियों के विशाल सागर में आभिजात्य के द्वीप पनप रहे हैं।

आज का बुद्धिजीवी देशज चिंतन से कटता जा रहा है, साधारण जन से उसकी दूरी बढ़ती जा रही है। वह अधिकांशतः विदेशी भाषा में लिखता और छपता है। विदेशों में छपना बड़े सम्मान की बात मानी जाती है। भारतीय भाषाओं में लिखने वाले की या तो अनदेखी की जाती है, या उसे दूसरे या तीसरे दर्जे का बुद्धिजीवी मान लिया जाता है।

भारत की सांस्कृतिक एकता की चर्चा अक्सर एकांगी दृष्टि से की जाती है।

संचार-साधनों की अपनी सीमाएँ होती हैं। एक सीमा से अधिक उनका वैकासिक उपयोग नहीं किया जा सकता। इन सीमाओं को समझ लेना ज़रूरी है, क्योंकि उन्हें समझकर हम साधनों से असंभव अपेक्षाएँ नहीं करेंगे।

संस्कृति, परंपरा और सभ्यता बड़ी, शक्तिशाली अवधारणाएँ हैं। उनकी जड़ों में मिथक भी होते हैं और ऐतिहासिक अनुभवों की जातीय स्मृतियों भी।

भारतीय बुद्धिजीवी एक अत्यंत आत्म-सचेत प्राणी है, यद्यपि वह 'बुद्धिजीवी' शब्द की संतोषजनक व्याख्या करने में शायद ही समर्थ हो, वह छोटे-छोटे प्रवर्गों—कवि, साहित्यकार, लेखक, विचारक, दार्शनिक, वैज्ञानिक, प्रवक्ता आदि से जुड़ा रहता है, और उन्हीं के तात्कालिक, अल्पकालिक और दीर्घकालिक लक्ष्यों से अपनी आत्म-छवि को प्रक्षेपित करता है।

विकास की प्रक्रिया का सूत्रपात मनुष्य के मस्तिष्क में होता है।

भारतीय समाज एक अंधी गली में भटक गया है, परस्पर दोषारोपण का सिलसिला बंद नहीं हो रहा है।

पारिस्थितिक परिवर्तन, सामाजिक परिवर्तन की अनिवार्यता बन जाते हैं।

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