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किशनचंद 'बेवस'

- 1947

समादृत सिंधी कवि-लेखक। 'शीरीं शीर' और 'गंगाजूँ लहरू' कृतियों लिए उल्लेखनीय।

समादृत सिंधी कवि-लेखक। 'शीरीं शीर' और 'गंगाजूँ लहरू' कृतियों लिए उल्लेखनीय।

किशनचंद 'बेवस' के उद्धरण

जब सच्चाई पर नवीनता का रंग चढ़ता है, उस समय मानो सोने की अंगूठी में कोई हीरा जड़ देता है। कला वही है जो नमूने में नई गठन गढ़ दे, परंतु वाणी में भी प्राचीनता का पाठ पढ़ाए।

मेरा घर भी वहीं है जहाँ पीड़ा का निवास है। जहाँ-जहाँ दुःख विद्यमान है वहाँ-वहाँ मैं विचरता हूँ।

तुम्हारे इन अट्टहासों के कारण हज़ारों आँखें आँसुओं से भरी हुई हैं।

यदि तुम्हारे पास धन हैं, तो निर्धनों को बाँट दो। यदि धन पर्याप्त नही है तो मन की भेंट दो। यदि मन ठोक नहीं है तो तन अर्पित करो। यदि तन भी स्वस्थ नहीं है तो मीठे वचन ही बोलो। परंतु तुम्हें कुछ कुछ देना ही है और परोपकार के लिए अवश्य ही स्वयं को न्यौछावर करना है।

यह सारा विश्व ही भगवान् का मंदिर है जिसमें प्रभु प्रत्येक के हृदय में विराजमान है। स्रष्टा! प्रत्येक शरीर रूपी मंदिर बना हुआ है।

सारे विश्व में तुम्हारी कठोरता और मेरी विश्वासपात्रता प्रसिद्ध है। परंतु वास्तव में विश्वासपात्रता तुम्हारी है। और कठोरता मेरी।

आज वही सारहीन है जिस पर कल आश्चर्य प्रकट किया जा रहा था। जो कल तक ज्ञान समझा जाता था, आज वही अज्ञान माना जा रहा है। कल शायद वह दोषी माना जाएगा, जिसे आज ज्ञान प्राप्त है। वह वस्तु ही कहाँ है जिसमें परिवर्तशीलता हो?

नितांत बेबस अथवा निरुपाय के लिए ही प्रकृति का सहायक हाथ पहुँचता है।

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