Font by Mehr Nastaliq Web
noImage

दयाराम

1833 - 1909

सतसई परंपरा के नीति कवि।

सतसई परंपरा के नीति कवि।

दयाराम के उद्धरण

धन के बिना संसार व्यर्थ है परंतु अत्यधिक धन भी व्यर्थ है, जैसे अन्न के बिना तन नहीं रहता, परंतु अत्यधिक भोजन करने से प्राण चले जाते हैं।

अबला-जन्म ही पराधीन है।

धर्मात्मा के हितार्थ किया गया अधर्म भी धर्म है और धर्मात्मा के अहित के लिए किया गया धर्म भी अधर्म है।

मेरा पति दृढ़ निश्चय के महल में निवास करता है। वहीं रहता है ब्रज-लाड़ला! जो वहाँ उसके पास जाता है उसे उसके दर्शन होते हैं। जो भूले हुए हैं, वे उसकी खोज में दूसरे सदनों में भटकते रहते हैं। किंतु भगवान उन्हें एक भी जगह नहीं मिलता।

संतों के द्वारा दिया गया संताप भी भला होता है और दुष्टों के द्वारा दिया गया सम्मान भी बुरा होता है। सूर्य तपता है तो जल की वर्षा भी करता है। परंतु दुष्ट के द्वारा दिया गया भक्ष्य भी मछली का प्राण ले लेता है।

मैं माता पिता की तुलना में निंदक का अधिक स्नेह मानता हूँ। विचार करके देखिए—माता पिता तो हमारे मलमूत्र को हाथ से धोते हैं, किंतु निंदक तो जीभ से हमारे मलमूत्र को धोते हैं।

तन, दीपशिखा और नदी का प्रवाह जब देखो तब वैसा का वैसा ही दिखाई देता है। किंतु बहना नित्य चलता रहता है, उसी प्रकार आयु निरंतर बढ़ती जाती है।

  • संबंधित विषय : नदी

'मैं पतित हूँ', यह बात मेरी वाणी कहती है, परंतु मन नहीं कहता। अतः आप भी मुझे पवित्र नहीं करते। हे अच्युत! मैं मिथ्याचारी सत्याचरण करूँ, इतनी कृपा कीजिए।

Recitation