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समुद्र पर दोहे

पृथ्वी के तीन-चौथाई

हिस्से में विशाल जलराशि के रूप में व्याप्त समुद्र प्राचीन समय से ही मानवीय जिज्ञासा और आकर्षण का विषय रहा है, जहाँ सभ्यताओं ने उसे देवत्व तक सौंपा है। इस चयन में समुद्र के विषय पर लिखी कविताओं का संकलन किया गया है।

बिरह जिलानी मैं जलौं, जलती जलहर जाऊँ।

मो देख्याँ जलहर जलै, संतौ कहा बुझाऊँ॥

विरहिणी कहती है कि विरह में जलती हुई मैं सरोवर (या जल-स्थान)

के पास गई। वहाँ मैंने देखा कि मेरे विरह की आग से जलाशय भी जल रहा है। हे संतो! बताइए मैं अपनी विरह की आग को कहाँ बुझाऊँ?

कबीर

हेरत हेरत हे सखी, रह्या कबीर हिराई।

बूँद समानी समुंद मैं, सो कत हेरी जाइ॥

साधना की चरमावस्था में जीवात्मा का अहंभाव नष्ट हो जाता है। अद्वैत की अनुभूति जाग जाने के कारण आत्मा का पृथक्ता बोध समाप्त हो जाता है। अंश आत्मा अंशी परमात्मा में लीन होकर अपना अस्तित्व मिटा देती है।

यदि कोई आत्मा के पृथक् अस्तित्व को खोजना चाहे तो उसके लिए यह असाध्य कार्य होगा।

कबीर

सागर! तू निज तनय लखि, क्यों एतो इतराय।

रतनाकर गौरव कहा, दोषाकर-सुत पाय॥

मोहन

समंदर लागी आगि, नदियाँ जलि कोइला भई।

देखि कबीरा जागि, मंछी रूषाँ चढ़ि गई।

कबीरदास कहते हैं कि विषया-सक्त अंतःकरण रूपी सागर में ज्ञान-विरह की आग लग गई, फलतः विषय वासनाओं का संवहन करने वाली नदी रूपी इंद्रियाँ जलकर नष्ट हो गईं। कबीर ने जागृत होकर देखा कि जीवात्मा रूपी मछली सहस्रार चक्र के वृक्ष पर चढ़ गई है।

कबीर

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