प्रायश्चित पर दोहे
किसी दुष्कर्म या पाप
के फल भोग से बचने के लिए किए जाने वाले शास्त्र-विहित कर्म को प्रायश्चित कहा जाता है। प्रायश्चित की भावना में बहुधा ग्लानि की भावना का उत्प्रेरण कार्य करता है। जैन धर्म में आलोचना, प्रतिक्रणण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, परिहार और उपस्थापना—नौ प्रकार के प्रायश्चितों का विधान किया गया है।
खोयो मैं घर में अवट, कायर जंबुक काम।
सीहां केहा देसड़ा, जेथ रहै सो धाम॥
सिंहों के लिए कौनसा देश और कौनसा परदेश! वे जहाँ रहें, वहीं उनका घर हो जाता है। किंतु खेद है कि मैंने तो घर पर रहकर ही सियार के से कायरोचित कामों में अपनी पूरी उम्र बिता दी।
जिन दिन देखे वे कुसुम, गई सु बीति बहार।
अब अलि रही गुलाब में, अपत कँटीली डार॥
हे भ्रमर! जिन दिनों तूने वे सुंदर तथा सुगंधित पुष्प देखे थे, वह बहार बीत गई। अब (तो) गुलाब में बिन पत्ते की कंटकित डाल रह गई है (अब इससे दुःख छोड़ सुख की सम्भावना नहीं है)।
तरनापो इउँही गइओ, लिइओ जरा तनु जीति।
कहु नानक भजु हरि मना, अउधि जाति है बीति॥
जतन बहुत मैं करि रहिओ, मिटिओ न मन को मान।
दुर्मति सिउ नानक फँधिओ, राखि लेह भगवान॥
खात पियत बीती निसा, अँचवत भा भिनुसार।
रूपकला धिक-धिक तोहि, गर न लगायो यार॥
तनु धनु जिह तोकउ दिओ, तासिउ नेहु न कीन।
कहु नानक नर बावरे, अब किउ डोलत दीन॥
करणो हुतो सु ना किओ, परिओ लोभ के फंद।
नानक समये रमि गइओ, अब क्यों रोवत अंध॥