ईश्वर पर दोहे

ईश्वर मानवीय कल्पना

या स्मृति का अद्वितीय प्रतिबिंबन है। वह मानव के सुख-दुःख की कथाओं का नायक भी रहा है और अवलंब भी। संकल्पनाओं के लोकतंत्रीकरण के साथ मानव और ईश्वर के संबंध बदले हैं तो ईश्वर से मानव के संबंध और संवाद में भी अंतर आया है। आदिम प्रार्थनाओं से समकालीन कविताओं तक ईश्वर और मानव की इस सहयात्रा की प्रगति को देखा जा सकता है।

तूँ तूँ करता तूँ भया, मुझ मैं रही हूँ।

वारी फेरी बलि गई, जित देखौं तित तूँ

जीवात्मा कह रही है कि ‘तू है’ ‘तू है’ कहते−कहते मेरा अहंकार समाप्त हो गया। इस तरह भगवान पर न्यौछावर होते−होते मैं पूर्णतया समर्पित हो गई। अब तो जिधर देखती हूँ उधर तू ही दिखाई देता है।

कबीर

साँई मेरा बाँणियाँ, सहजि करै व्यौपार।

बिन डाँडी बिन पालड़ै, तोलै सब संसार॥

परमात्मा व्यापारी है, वह सहज ही व्यापार करता है। वह बिना तराज़ू एवं बिना डाँड़ी पलड़े के ही सारे सांसार को तौलता है। अर्थात् वह समस्त जीवों के कर्मों का माप करके उन्हें तदनुसार गति देता है।

कबीर

जौं रोऊँ तौ बल घटै, हँसौं तौ राम रिसाइ।

मनहीं माँहि बिसूरणां, ज्यूँ धुँण काठहिं खाइ॥

यदि आत्मारूपी विरहिणी प्रिय के वियोग में रोती है, तो उसकी शक्ति क्षीण होती है और यदि हँसती है, तो परमात्मा नाराज़ हो जाते हैं। वह मन ही मन दुःख से अभिभूत होकर चिंता करती है और इस तरह की स्थिति में उसका शरीर अंदर−अंदर वैसे ही खोखला होता जाता है, जैसे घुन लकड़ी को अंदर−अंदर खा जाता है।

कबीर

सात समंद की मसि करौं, लेखनि सब बनराइ।

धरती सब कागद करौं, तऊ हरि गुण लिख्या जाइ॥

यदि मैं सातों समुद्रों के जल की स्याही बना लूँ तथा समस्त वन समूहों की लेखनी कर लूँ, तथा सारी पृथ्वी को काग़ज़ कर लूँ, तब भी परमात्मा के गुण को लिखा नहीं जा सकता। क्योंकि वह परमात्मा अनंत गुणों से युक्त है।

कबीर

‘तुलसी’ साथी विपति के, विद्या, विनय, विवेक।

साहस, सुकृत, सुसत्य-व्रत, राम-भरोसो एक॥

गोस्वामी जी कहते हैं कि विद्या, विनय, ज्ञान, उत्साह, पुण्य और सत्य भाषण आदि विपत्ति में साथ देने वाले गुण एक भगवान् राम के भरोसे से ही प्राप्त हो सकते हैं।

तुलसीदास

रघुपति कीरति कामिनी, क्यों कहै तुलसीदासु।

सरद अकास प्रकास ससि, चार चिबुक तिल जासु॥

श्री रघुनाथ जी की कीर्तिरूपी कामिनी का तुलसीदास कैसे बखान कर सकता है? शरत्पूर्णिमा के आकाश में प्रकाशित होने वाला चंद्रमा मानो उस कीर्ति-कामिनी की ठुड्डी का तिल है।

तुलसीदास

प्रेम हरी को रूप है, त्यौं हरि प्रेम स्वरूप।

एक होइ द्वै यो लसै, ज्यौं सूरज अरु धूप॥

रसखान

हरि रस पीया जाँणिये, जे कबहूँ जाइ खुमार।

मैमंता घूँमत रहै, नाँहीं तन की सार॥

राम के प्रेम का रस पान करने का नशा नहीं उतरता। यही राम-रस पीने वाले की पहचान भी है। प्रेम-रस से मस्त होकर भक्त मतवाले की तरह इधर-उधर घूमने लगता है। उसे अपने शरीर की सुधि भी नहीं रहती। भक्ति-भाव में डूबा हुआ व्यक्ति, सांसारिक व्यवहार की परवाह नहीं करता और उसकी दृष्टि में देह-धर्म नगण्य हो जाता है।

कबीर

साहब तेरी साहबी, कैसे जानी जाय।

त्रिसरेनू से झीन है, नैनों रहा समाय॥

गरीबदास

कौन भाँति रहिहै बिरदु, अब देखिवी, मुरारि।

बीधे मोसौं आइ कै, गीधे गीधहिं तारि॥

हे मुरारि, तुम जटायु का उद्धार करके बहुत गीध गए हो अर्थात् अहंकार से युक्त हो गए हो। व्यंजना यह है कि तुमने यह मान लिया है कि जटायु का उद्धार कोई नहीं कर सकता था और वह केवल तुमने किया है। अब देखना यह है कि तुम मुझ जैसे महापापी का उद्धार कैसे करते हो? अब तुम्हारा मुझसे पाला पड़ा है। मुझ जैसे महापापी का उद्धार तुम कर नहीं पाओगे और जब मेरा उद्धार नहीं कर पाओगे तो तुम्हारे उद्धारक रूप की ख्याति किस प्रकार सुरक्षित रहेगी?

बिहारी

अंतरि कँवल प्रकासिया, ब्रह्म वास तहाँ होइ।

मन भँवरा तहाँ लुबधिया, जाँणौंगा जन कोइ॥

कबीर कहते हैं कि हृदय के भीतर कमल प्रफुल्लित हो रहा है। उसमें से ब्रह्म की सुगंध रही या वहाँ ब्रह्म का निवास है। मेरा मन रूपी भ्रमर उसी में लुब्ध हो गया। इस रहस्य को कोई ईश्वर भक्त ही समझ सकता है। किसी अन्य व्यक्ति के समझ में नहीं आएगा।

कबीर

नीचं नीच कह मारहिं, जानत नाहिं नादान।

सभ का सिरजन हार है, रैदास एकै भगवान॥

मनुष्य ही दूसरे मनुष्य को छोटा समझकर उसे सताता है। रैदास कहते हैं कि नादान मनुष्य यह नहीं जानता कि सभी मनुष्यों को जन्म देने वाला एक ही ईश्वर है।

रैदास

बाग़ों ना जा रे ना जा, तेरी काया में गुलज़ार।

सहस-कँवल पर बैठ के, तू देखे रूप अपार॥

अरे, बाग़ों में क्या मारा-मारा फिर रहा है। तेरी अपनी काया (अस्तित्व) में गुलज़ार है। हज़ार पँखुड़ियों वाले कमल पर बैठकर तू ईश्वर का अपरंपार रूप देख सकता है।

कबीर
  • संबंधित विषय : देह

हरै पीर तापैं हरी बिरद् कहावत लाल।

मो तन में वेदन भरी, सो नहिं हरी जमाल॥

हे परमात्मा ! तू पीर ( वेदना ) हरण कर लेता है इसी से तुम्हें विरद हरि कहा गया है। पर मेरे शरीर में व्याप्त पीड़ा को तूने अभी तक क्यों नहीं हरण किया!

जमाल

बिंदु मों सिंधु समान को अचरज कासों कहै।

हेरनहार हेरान, रहिमन अपुने आप तें॥

रहीम कहते हैं कि अचरज की यह बात कौन कहे और किससे कहे! एक बूँद में ही पूरा सागर समा गया! खोजने वाला (आत्मा) अपने आप में खो गया। भ्रम का पर्दा हटते ही खोजने वाला रहा और वह, जिसे खोजा जा रहा था। दोनों एक हो गए। वस्तुतः भ्रम ही था जो अपने भीतर बसे परमात्मा को अलग देख रहा था। खोजने वाला इस बात से हैरान है कि जिसे बाहर ढूँढ़ रहा था, वह तो मेरे भीतर ही है।

रहीम

लाऊं पै सिर लाज हूं, सदा कहाऊं दास।

गण ह्वै गाऊं तूझ गुण, पाऊंवीर प्रकास॥

हे गणपति! मैं आपके चरणों में लज्जा से अपना सिर झुकता हूँ क्योंकि मैं आपका सदा दास कहलाता हूँ। अतः मैं आप का गण होकर आपका गुण-गान करता हूँ जिससे मुझे वीर रस का प्रकाश मिले। अर्थात् मैं दासत्व की भावना का उन्मूलन करके अपनी इस कृति में वीर रस का मूर्तिमान स्वरूप खड़ा कर सकूँ।

सूर्यमल्ल मिश्रण

जगतु जनायौ जिहिं सकलु, सो हरि जान्यौं नाँहि।

ज्यौं आँखिनु सबु देखियै, आँखि देखी जाँहिं॥

जिस ईश्वर ने संपूर्ण संसार को इंद्रिय ज्ञान का विषय बनाया, उस ईश्वर को ही तूने नहीं जाना। जिस प्रकार आँखों के द्वारा सबको देखा जाता है, पर स्वयं आँखों को नहीं देखा जाता, उसी प्रकार ईश्वर भी ज्ञानातीत है।

बिहारी

रैदास जन्मे कउ हरस का, मरने कउ का सोक।

बाजीगर के खेल कूं, समझत नाहीं लोक॥

रैदास कहते हैं कि जन्म के समय कैसा हर्ष और मृत्यु पर कैसा दुःख! यह तो ईश्वर की लीला है। संसार इसे नहीं समझ पाता। जिस प्रकार लोग बाज़ीगर के तमाशे को देखकर हर्षित और दुःखी होते हैं, उसी प्रकार ईश्वर भी संसार में जन्म−मृत्यु की लीला दिखाता है। अतः ईश्वर के इस विधान पर हर्षित अथवा दुःखी नहीं होना चाहिए।

रैदास

समता सब बिधि नेह अति, तृप्ति अचल मिलाप।

दुहु कों निर्भय यह त्हरें, पैयें दें हरिं आप॥

दानों में (गुण,कर्म और स्वभावादि) सब प्रकार की समता, परस्पर अत्यधिक स्नेह, मिलने की आतुरता (अतृप्ति) और निर्भय चिर-मिलन; ये (चार बातें) तो तभी संभव है जब हे हरि आप दें।

दयाराम

राधो क्रिस्न करीम हरि, राम रहीम खुदाय।

रैदास मोरे मन बसहिं, कहु खोजहुं बन जाय॥

रैदास कहते हैं कि राधा, कृष्ण, करीम, हरि, राम, रहीम, ख़ुदा−सभी एक ही ईश्वर के रूप मेरे मन में निवास करते हैं। फिर भला इन्हें बाहर वन में क्यों खोजूँ!

रैदास

मुकुर मांह परछांइ ज्यौं, पुहुप मधे ज्यों बास।

तैसउ श्री हरि बसै, हिरदै मधे रैदास॥

जिस प्रकार दर्पण में परछाई और पुष्प में सुगंध का वास होता है, रैदास कहते हैं कि उसी प्रकार हृदय में ही श्रीहरि का निवास है।

रैदास

ग्यान गिरा गोतीत अज, माया मन गुन पार।

सोइ सच्चिदानंदघन, कर नर चरित उदार॥

जो ज्ञान (बुद्धि), वाणी और इंद्रियों से परे, अजन्मा तथा माया, मन और गुणों के पार हैं, वही सच्चिदानंदघन भगवान श्रेष्ठ नरलीला करते हैं।

तुलसीदास

जो निसिदिन सेवन करै, अरु जो करै विरोध।

तिन्हैं परम पद देत प्रभु, कहौ यह बोध॥

हे भगवन्! आपकी भी यह क्या समझ है कि जो लोग रात-दिन आपका भजन करते हैं, उन्हें तो भला आप मोक्ष देते ही हैं किंतु जो लोग (रावण आदि) आपका विरोध करते हैं, उन्हें भी आप मोक्ष दे देते हैं। अर्थात् भगवान् शत्रु और मित्र को समभाव से देखते हैं।

मतिराम

बीज आपु जर आपु ही, डार पात पुनि आपु।

फूलहि में पुनि आपु फल, रस में पुनि निधि आपु॥

बीज में और जड़ में भी वह ब्रह्म स्वयं ही समाया हुआ है। शाखाओं या डालियों, पत्तों, फूलों, फलों और रसों में भी वह स्वयं ही व्याप्त हो रहा है।

रसनिधि

हरि हर जस सुर नर गिरहुँ, बरनहिं सुकवि समाज।

हाँडी हाटक घटित चरु, राँधे स्वाद सुनाज॥

सुकविगण भगवान् श्री हरि और भगवान् श्री शंकर के यश को संस्कृत और भाषा दोनों में ही वर्णन करते हैं। उत्तम आनाज को चाहे मिट्टी की हाँडी में पकाया जाए, चाहे सोने के पान में, यह स्वादिष्ट ही होता है।

तुलसीदास

कपटौ जब लौं कपट नहिं, साँच बिगुरदा धार।

तब लौं कैसे मिलैगौ, प्रभु साँचौ रिझवार॥

हृदय में सच्चा उत्साह उत्पन्न करके जब तक तुम अपने हृदय के कपट को दूर नहीं कर दोगे, तब तक वह सच्चा प्रेमी परमप्रभु भला तुम्हें कैसे मिल सकता है!

रसनिधि

कहुँ नाचत गावत कहूँ, कहूँ बजावत बीन।

सब मैं राजत आपुही, सब ही कला प्रबीन॥

वह ब्रह्म कहीं गाता, कहीं बीन बजाता, कहीं नाचता है। सभी कलाओं में निपुण वह ईश्वर ही सब रूपों में सुशोभित हो रहा है।

रसनिधि

प्रभु पूरन पावन सखा, प्राणनहू को नाथ।

परम दयालु कृपालु प्रभु, जीवन जाके हाथ॥

वह प्रभु परिपूर्ण है, पवित्र मित्र है, प्राणों का स्वामी है। अत्यंत दयालु है और सभी प्राणियों का जीवन उसी के हाथ में है।

सूरदास

जल समान माया लहर, रबि समान प्रभु एक।

लहि वाके प्रतिबिंब कौं, नाचत भाँति अनेक॥

यह माया तो जल की लहर के समान है और वह एक प्रभु परमात्मा सूर्य के समान है। उस परमात्मा रूपी सूर्य के प्रतिबिंब माया रूपी जल की लहरों में अनेक रूप धारण कर प्रतिबिंब हो रहे हैं।

रसनिधि

कहुँ गावै नाचै कहूँ, कहूँ देत है तार।

कहूँ तमासा देखही, आपु बैठ रिझवार॥

वह ब्रह्म कहीं नाचता है, कहीं गाता है, कहीं ताल देता है और कहीं बैठा प्रसन्न होकर दर्शक के रूप में तमाशा देखता है। भाव यह कि ब्रह्म ही अनेक रूपों में व्याप्त है।

रसनिधि

सेवक सेवा के सुनें, सेवा देव अनेक।

दीनबंधु हरि जगत है, दीनबंधु हर एक॥

सेवा करने वाले सेवक हैं और सेवा करने पर तो अनेक देवता प्रसन्न हो जाते हैं, किंतु संसार भर में दीन दुखियों के बंधु तो एक भगवान् ही हैं।

मतिराम

गह्यौ ग्राह गज जिगि समै, पहुँचत लगी बार।

और कौन ऐसे समै, संकट काटनहार॥

जिस समय हाथी को मगरमच्छ ने पकड़ लिया और ग्राह उसे खींच कर पानी में ले जाने लगा तो भगवान द्वारा गज को बचाने में कुछ भी देर नहीं लगी। ऐसे समय में भक्तों के संकट को काटने वाले भगवान के सिवाय भला और कौन हो सकता है।

रसनिधि

पाप पुण्य अरु जोति तैं, रवि ससि न्यारे जान।

जद्यपि सो सब घटन मैं, प्रतिबिंबित है आन॥

सूर्य और चंद्रमा यद्यपि सब हृदयों में प्रतिबिंबित और प्रकाशित होते हैं, फिर भी वे उनके पाप-पुण्यों और प्रकाश से अलग रहते हैं। (इसी प्रकार वह व्रह्म भी सब के हृदय में विद्यमान रहते हुए भी उनके पाप-पुण्यों से सदा निर्लिप्त रहता है।)

रसनिधि

रस ही में रसिक में, आपुहि कियौ उदोत।

स्वाति-बूँद में आपु ही, आपुहि चात्रिक होत॥

उस ब्रह्म ने रस में भी अपना प्रकाश किया हुआ है और रसिक में भी वह स्वयं ही प्रकाशित हो रहा है। पपीहा जिसके लिए तरसता रहता है, उस स्वाति नक्षत्र की वर्षा की बूँद में भी वही है और पपीहा भी वही है।

रसनिधि

गरजन में पुनि आपु ही, बरसन में पुनि आपु।

सुरझन में पुनि आपु त्यौं, उरझन में पुनि आपु॥

बादलों के गरजने में भी वह ब्रह्म ही है एवं उनके बरसने में भी वही व्याप्त हो रहा है। सुलझने में भी वही है और उलझने में भी वही है। अर्थात सारे संसार में उसके सिवाय और दूसरा कोई नहीं है।

रसनिधि

जदपि रहौ है भावतौ, सकल जगत भरपूर।

बल जैयै वा ठौर की, जहँ ह्वै करै जहूर॥

यद्यपि वह परम प्रियतम परब्रह्म सर्वत्र व्याप्त हो रहा है, फिर भी राम-कृष्ण आदि के जिन-जिन विग्रहों या शरीरों के द्वारा वह अपनी कांति का प्रकाश करता है, मैं उनकी बलिहारी हूँ।

रसनिधि

पंच तत्व की देह में, त्यौं सुर व्यापक होइ।

विस्वरूप में ब्रह्म ज्यौं, व्यापक जानौ सोइ॥

जिस प्रकार पंचतत्वों द्वारा निर्मित शरीर में प्राण सर्वत्र व्याप्त हो रहे हैं, वैसे ही इस ब्रह्मांड के रूप में उस परम प्रभु परमात्मा को भी सर्वत्र व्याप्त समझो।

रसनिधि

कुदरत वाकी भर रहो, रसनिधि सब ही जाग।

ईंधन बिन बनियौ रहै, ज्यौं पाहन मैं आग॥

जैसे बिना ईधन के भी पत्थर में आग समाई रहती है, वैसे ही सभी स्थानों में उस प्रभु की महिमा व्याप्त हो गई है।

रसनिधि

मोहनवारौ आपु ही, मणि मानिक पुनि आपु।

पोहनवारौ आपु ही, जोहनिहारौ आपु॥

वह परब्रह्म स्वयं ही मोहित करने वाला है और मणि-माणिक्य भी स्वयं ही है। और मणि-माणिक्यों को माला रूप में पिरोने वाला भी वही है। तथा उस माला को धारण करने वाले को देखने वाला भी वह स्वयं ही है।

रसनिधि

कोटि घटन मैं बिदित ज्यौं, बरि प्रतिबिंब दिखाइ।

घट-घट मैं त्यौं ही छिप्यौ, स्वयं-प्रकासी आइ॥

जैसे करोड़ों घड़ों के पानी में एक ही सूर्य के अनेक प्रतिबिंब दिखाई देते हैं पर वास्तव में वह सूर्य तो एक ही है, उसी प्रकार वह परब्रह्म भी घट-घट में स्वयं प्रकाशमान होकर प्रतिबिंबित हो रहा है।

रसनिधि

पवन तुहीं पानी तुहीं, तुहीं धरनि आकास।

तेज तुहीं पुनि जीव है, तुहीं लियौ तन बास॥

जल, वायु, पृथ्वी, आकाश और तेज़ के रूप में हे मेरे परमप्रभु! सर्वत्र तुम्हीं व्याप्त हो रहे हो। प्राण और आत्मा के रूप में तुमने ही प्राणियों के शरीरों में अपना निवास-स्थान बनाया हुआ है।

रसनिधि

अलख जात इन दृगनि सौं, विदित देखी जाइ।

प्रेम कांति वाकी प्रगट, सब ही ठौर दिखाइ॥

उस अलक्ष्य—न दिखाई देने वाले—प्रभु की ज्योति या मूर्ति इन नेत्रों से प्रत्यक्ष नहीं दिखाई देती। पर उसके प्रेम की कांति या चमक तो सर्वत्र ही दिखाई देती है।

रसनिधि

वंशी हू में आपु ही, सप्त सुरन में आपु।

बजवैया पुनि आपु ही, रिझवैया पुनि आपु॥

वह ब्रह्म वंशी में भी स्वयं ही व्याप्त है, सातों स्वरों में भी वही व्याप्त है, बजाने वाला भी वह स्वयं ही है और उस वंशी की ध्वनि को सुनकर उस पर प्रसन्न होने वाला भी वही है। उसके सिवा दूसरा कोई नहीं है।

रसनिधि

अलख सबैई लखत वह, लख्यौ काहू जाइ।

दृग तारिन के तिलक की, झाँकि झाँकी जाइ॥

वह अलक्ष्य ईश्वर सब को देखता है पर उसे कोई नहीं देख सकता, जैसे आँखों की पुतलियाँ सबको देखती हैं पर कोई भी अपने आप अपनी उन पुतलियों को नहीं देख पाता।

रसनिधि

नर पसु कीट पतंग में, थावर जंगम मेल।

ओट लियै खेलत रहै, नयौ खिलारी खेल॥

वह ब्रह्म रूपी खिलाड़ी मनुष्य, पशु, कीड़े, पतंगे, जड़ और चेतन आदि नाना रूपों की ओट लेकर नाना प्रकार के खेल नित्य ही खेलता है।

रसनिधि

यौं सब जीवन की लखौ, ब्रह्म सनातन आद।

ज्यों माटी के घटन की, माटी पै बुनियाद॥

नित्य रहने वाला ब्रह्म इसी प्रकार सब जीवों का मूल कारण है. जैसे कि मिट्टी के घड़ों का मूल कारण मिट्टी ही है।

रसनिधि

ब्रह्म फटिक सम मन लसै, घट-घट माँझ सुजान।

निकट आय बरतै जो रँग, सो रँग लगै दिखान॥

ब्रह्म तो स्फटिक मणि के समान है। वह प्रत्येक हृदय में व्याप्त होकर सुशोभित हो रहा है। उसके संसर्ग में जो रंग आता है, वही रंग उसमें प्रतिबिंबित हो जाता है। भाव यह कि जैसे शीशे के सामने हरा रंग हो तो शीशा भी हरा और लाल रंग हो तो लाल दिखाई देता है, वैसे ही ब्रह्म भी कहीं चींटी के रूप में, तो कहीं हाथ के रूप में, ऐसे नाना रूपों में प्रतिबिंबित हो रहा है।

रसनिधि

साँची सी यह बात है, सुनियौ सज्जन संत।

स्वाँगी तौ वह एक है, वाहि के स्वाँग अनंत॥

संत-सज्जनो! इस सच्ची बात को बड़े ध्यान से सुन लो कि वह नाना प्रकार के स्वाँग रचने वाला ब्रह्म तो एक ही है। विश्व के नाना प्रकार के प्रदार्थ और प्राणी सब उसी के भिन्न-भिन्न स्वाँग हैं।

रसनिधि

हरि-पूजा हरि-भजन मैं, सो ही ततपर होत।

हरि उर जाहि आइकै, हरबर करै उदोत॥

जिनके हृदय में भगवान सहसा या प्रति समय प्रकाश करते रहते हैं, वे ही मनुष्य भगवान की पूजा एवं भगवान के भजन में तत्पर हो सकते हैं—लगे रह सकतें हैं।

रसनिधि

आपु भँवर आपुहि कमल, आपुहि रंग सुबास।

लेत आपुही बासना, आपु लसत सब पास॥

वह ब्रह्म स्वयं ही तो भौंरा है, आप ही कमल है; स्वयं ही रूप-रंग और सुगंधि है। वह ख़ुद ही सुगंधि लेता है और स्वयं ही सर्वत्र अनेक रूपों में जगमगाता है। भाव यह कि सुष्टि के अणु-अणु में वह ब्रह्म स्वयं सर्वत्र तुम्हीं व्याप्त हो रहे है।

रसनिधि

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