कामू-कमला-सिसिफ़स
शायक आलोक
07 नवम्बर 2025
“The struggle itself toward the heights is enough to fill a man’s heart. One must imagine Sisyphus happy.”
—अल्बैर कामू, द मिथ ऑफ़ सिसिफ़स
कुछ सुबहें होती हैं जब दुनिया कुछ तिरछी प्रतीत होती है—इतनी नहीं कि अख़बार उसे देख ले, पर इतनी ज़रूर कि भीतर कुछ असंतुलित हो जाए। कल्पना करता हूँ कि सिसिफ़स भी ऐसे ही किसी असंतुलन में जगता होगा जब उसका शरीर अनंत श्रम के भार से दुखता होगा। इधर नगर-परिधि की शुष्कता में, कमला—वह भली स्त्री जो घर के कार्यों में हमारी मदद करने आती है—वही भार उठाती है। वह आती है, जैसे किसी आदिम कर्मकांड की तैयारी में अपने बालों में ज़ोर से बंधन लगाती है और जुट जाती है। मुझे लगता है कि रोज़ दोनों एक ही तरह की चढ़ाई शुरू करते हैं।
मैं चाहता हूँ कि कामू का प्रस्ताव मुझे अच्छा लगे। प्रस्ताव कि मान लें कि सिसिफ़स एक सुख में है। ‘सुख’ एक संक्रमित शब्द है। घिसा हुआ और अतिरंजित। दार्शनिकों और विज्ञापनों ने इसे बिकाऊ महत्त्व दिया है। बतौर कवि मुझे एक दूसरा शब्द ईजाद कर लेना चाहिए। ऐसा शब्द जिसके बोध को औचित्व के अवलंब की आवश्यकता न हो। सिसिफ़स, जिसे पुनरावृत्ति का शाप मिला, चेतना का सजग निकाय है और अपनी कमला, कार्य-दिनचर्या का दंड भोगती, उसकी अनुगूँज! सुख यदि परिणाम-संबद्ध है, दोनों पराजित हैं। लेकिन यदि वह केवल साक्षीभाव से उद्भूत है तो दोनों मुक्त हुए जाते हैं। एक दिन कमला कहती हुई सुनी गई (मैंने ही उसके चेहरे की शून्य शांति में ऐसा पढ़ लिया), “दुहराव मुझे शांति देता है। उसी फ़र्श को रोज़-रोज़ बुहारती, उन्हीं बर्तनों को रोज़-रोज़ चमकाती, जैसे प्रार्थना दुहराई जा रही हो।” यह पुनरावृत्ति कोई पुल है। सिसिफ़स के प्रत्येक धक्के में, कमला के प्रत्येक बुहार में, समय के अंत का प्रतिवाद है। वे अस्तित्व को तब तक साधते हैं जब तक वह लयबद्ध न हो जाए। क्या पुनरावृत्ति अर्थ का विरोध नहीं, उसकी लय ही है!
देवता सिसिफ़स की प्रज्ञा को दंडित कर रहे हैं। प्रज्ञावान प्राणी ही दुहराव से पीड़ित हो सकता है। एक गधा अपने चक्की-चक्र से नहीं ऊबता। चूँकि मनुष्य सोचता है, दुखी होता है। देखा है कि कमला ने अपने दुपट्टे को ज़ोर से कस लिया है, इस परिशुद्धता से जैसे कोई दंडित आत्मा अपने संकल्प को कसती हो। उसे पता होगा कि उसके बुहार-घिसाई कर्मों का कोई शाश्वत अर्थ नहीं और फिर भी उस ज्ञान से उसके कर्मों में एक गरिमामय त्रासदी आ जाती है।
दुपहर-विराम में वे भली स्त्रियाँ बाहर सीढ़ियों पर बैठी हैं। उनकी हँसी हवा की खिड़की जैसी है—उजली, अप्रत्याशित, असुरक्षित। वे बात करती हैं जीवन की धीमी गाढ़ी लय में। बीच में उभरती कुछ आवाज़ों में विद्रोह की हल्की चमक है। वे आवाज़ें निस्सारता में चलाए गए पत्थर की तरह आठ तल्ले ऊपर, छह तल्ले नीचे बिजली-सी गुज़रती हैं। मुक्ति का आभास कई बार सबसे सूक्ष्म बंधन होता है। यदि मनुष्य का संघर्ष सत्ता से नहीं, विस्मरण से है तो सिसिफ़स विस्मरण से नहीं डरता, उसके लोप से भयभीत होता है। उसकी शिला उसके अस्तित्व की पुष्टि है; संसार है क्योंकि उसकी शिला में संघर्ष है। कमला भी उसी प्रमाण की खोज में होगी—अपने काम, अपने शरीर, अपनी थकान में। सब अवरोध उसके स्मारक हैं कि वह है।
समय रेंग रहा है बाद दुपहर की संध्या प्रतीक्षा में। पंखा पुरानी कविता किताबों के पन्नों-सा गूँज रहा है। कमला चाय बना रही है। थकी हुई, पर सजीव। उसकी गति में किसी दूर के पर्वत का भार है। सिसिफ़स उस क्षण में शिखर पर है, जब शिला अभी लुढ़की नहीं। त्रासदी पतन में नहीं, उस विराम की क्षणभंगुरता में है। कमला भाप को उठते देखती है, जानती है कि उतराई निकट है। वही क्षण उसका आश्रय है। चाय उतरेगी और सिसिफ़स भी इसी क्षण पर्वत से उतरने को तैयार हो रहा होगा। भारी साँसें, शिथिल हाथ। दोनों एक ही मौन की साझेदारी कर रहे हैं। देवता गति का आदेश दे सकते हैं, अर्थ का नहीं। अर्थ उसी को मिलता है जो थिर सके। कल्पना करता हूँ कि सिसिफ़स अपने पत्थर से प्रेम करता है। पत्थर उसका दर्पण है—शत्रु भी, मित्र भी। कमला भी सीख रही होगी अपने श्रम से प्रेम करना। चाय की उबाल में उसे लय दिखने लगी होगी, घर को तहने में व्यवस्था की सुगंध। यह प्रेम निराशा के बिना है, आशा के बिना। आशा परिणाम की माँग करती है, प्रेम केवल उपस्थिति की। सिसिफ़स प्रेम करता है क्योंकि वह थिरता है।
एक दिन पूछना चाहता हूँ कमला से कि “क्या तुम मानती हो नियति को?” शायद उत्तर भी मैं ही पूर्ण करूँगा, “हाँ, जब विरोध करना व्यर्थ लगे।” भाग्य वही है, जब पुनरावृत्ति पहचान में आ जाए। हर निर्णय उसी चढ़ाई की पुनरावृत्ति है। सिसिफ़स भाग नहीं सकता, कमला भाग नहीं सकती। मुक्ति भागने में नहीं, स्वीकार में है? अनिवार्य को सह लेना, यही मनुष्य का साहस है? कामू का सिसिफ़स एक एकांत का योद्धा है; कमला का सिसिफ़स भीड़ का साधारण। साहस का अर्थ अपवाद में अतिरंजित न हो। कई बार साधारणता ही सबसे साहसी अवस्था हो सकती है। देवता जानते थे कि दंड श्रम में नहीं, एकांत में है। निरर्थकता का सामना सरल है, उसे अकेले झेलना कठिन। सिसिफ़स की मुस्कान तिरस्कार नहीं, दृष्टि है। देवता उसे तोड़ना चाहते थे, उसने पुनरावृत्ति को सुख बना लिया। जब कोई पीड़ा को ताल में ढाल देता है, तब दंड अर्थ खो देता है। कमला का मुस्कराना उसकी गुप्त विजय है।
मैंने कमला के लिए कुछ छोटे वाक्य गढ़े हैं : “पुनरावृत्ति पर हँसना।” “पत्थर तुम्हारा है।” “प्रशंसा की अपेक्षा मत करना।” ये उसके मंत्र होंगे। शब्द जो मौन से रक्षा करते हैं। सिसिफ़स के पास भी शायद ऐसे ही शब्द होंगे—अनकहे, पर भीतर ध्वनित। मनुष्य श्रम से नहीं, नीरवता से टूटता है। अंतर्ध्वनि अस्तित्व का उपचार है, विसंगति पर विजय का शिल्प। समय बीतता रहेगा, शिला वही, वही श्रम। पर अब उसमें कृतज्ञता होगी। रिक्तता, श्रम से अधिक भयावह है। सोचता हूँ सिसिफ़स समय है, पर्वत जगत और शिला चेतना। धक्का देना बंद हो जाए तो सब गतिहीन हो जाए—निर्जीव। जीवन का बेतुक फिर शाप नहीं, सह-रचना है। कमला यह नहीं जानती होगी, पर वह सहभागी है। एक और बुहार, एक और घिसाई, एक और उबाल। उसकी शांत दृढ़ता में एक कोमलता है। निरर्थकता ही कोमलता का आधार है। हर असफल प्रयत्न में भी ‘स्व’ के बने रहने का उद्घोष।
कमला आती रहेगी। कमला बाल कसती रहेगी और रोज़मर्रा की व्यर्थता में जुटती रहेगी। उधर सिसिफ़स अपनी चढ़ाई शुरू करता रहेगा। दोनों के श्रम एक लय में बँधे होंगे। सिसिफ़स मुस्करा रहा होगा, देवता ऊबे हुए से देख रहे होंगे। अस्तित्व का असहनीय, पर दीप्त गुरुत्व आविर्भूत होता रहेगा।
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