दादू दयाल की संपूर्ण रचनाएँ
दोहा 150
झूठे अंधे गुर घणें, भरंम दिखावै आइ।
दादू साचा गुर मिलै, जीव ब्रह्म ह्वै जाइ॥
इस संसार में मिथ्या-भाषी व अज्ञानी गुरु बहुत हैं। जो साधकों को मूढ़ आग्रहों में फँसा देते हैं। सच्चा सद्गुरु मिलने पर प्राणी ब्रह्म-तुल्य हो जाता है।
-
शेयर
- व्याख्या
हस्ती छूटा मन फिरै, क्यूँ ही बंध्या न जाइ।
बहुत महावत पचि गये, दादू कछू न बसाइ॥
विषय-वासनाओं और विकारों रूपी मद से मतवाला हुआ यह मन रूपी हस्ती निरंकुश होकर सांसारिक प्रपंचों के जंगल में विचर रहा है। आत्म-संयम और गुरु-उपदेशों रूपी साँकल के बिना बंध नहीं पा रहा है। ब्रह्म-ज्ञान रूपी अंकुश से रहित अनेक महावत पचकर हार गए, किंतु वे उसे वश में न कर सके।
-
शेयर
- व्याख्या
जहाँ आतम तहाँ रांम है, सकल रह्या भरपूर।
अंतर गति ल्यौ लाई रहु, दादू सेवग सूर॥
जहाँ आत्मा है, वहीं ब्रह्म है। वह सर्वत्र परिव्याप्त हैं। यदि साधक आंतरिक वृत्तियों को ब्रह्ममय बनाए रहे, तो ब्रह्म सूर्य के प्रकाश के समान दिखाई पड़ने लगता है।
-
शेयर
- व्याख्या
दादू प्रीतम के पग परसिये, मुझ देखण का चाव।
तहाँ ले सीस नवाइये, जहाँ धरे थे पाव॥
विरह के माध्यम से ईश्वर का स्वरूप बने संतों की चरण-वंदना करनी चाहिए। ऐसे ब्रह्म-स्वरूप संतों के दर्शन करने की मुझे लालसा रहती है। जहाँ-तहाँ उन्होंने अपने चरण रखे हैं, वहाँ की धूलि को अपने सिर से लगाना चाहिए।
-
शेयर
- व्याख्या
मीरां कीया मिहर सौं, परदे थैं लापरद।
राखि लीया, दीदार मैं, दादू भूला दरद॥
हमारे संतों ने अपनी अनुकंपा से माया और अहंकार के आवरण को उघाड़कर (मुक्त कर) हमें ब्रह्मोन्मुख कर दिया है। ब्रह्म-लीन रहने से हमें ब्रह्म-दर्शन हो गए हैं। ब्रह्म से अद्वैत की स्थिति में साधक अपने सारे कष्ट भूल जाते हैं।
-
शेयर
- व्याख्या