अभिसार पर दोहे
भारतीय साहित्यशास्त्र
में ‘नायिका का नायक के पास जाना’ या ‘दूती या सखी द्वारा नायक को अपने पास बुलाना’ अभिसार कहा गया है। इस अर्थ में अभिसार में प्रवृत्त नायिका को ‘अभिसारिका’ कहा गया है। प्राचीन कवियों ने अभिसारिका को सभी नायिकाओं में सर्वाधिक मधुर, आकर्षक और प्रेमाभिव्यंजिका बताया है। काव्य के साथ ही चित्रकला में भी अभिसार का व्यापक अंकन हुआ है।
पति रति की बतियाँ कहीं, सखी लखी मुसकाइ।
कै कै सबै टलाटलीं, अलीं चलीं सुखु पाइ।।
बिहारी कह रहे हैं कि प्रियतम ने नायिका से रति की बातें कहना प्रारंभ कर दिया । नायिका भी चतुर थी अत: वह अपनी सखियों की ओर देखकर मुस्करा दी। सखियाँ भी नायिका की ही भाँति चतुर थीं अत: वे भी रति-रहस्य के संकेत को समझ गईं और बड़ी प्रसन्नता से धीरे-धीरे कोई-न-कोई बहाना लगाती हुई वहाँ से उठकर चल दी।
फूलति कली गुलाब की, सखि यहि रूप लखै न।
मनौ बुलावति मधुप कौं, दै चुटकी की सैन॥
एक सखी दूसरी सखी से चटचटा कर विकसित होती हुई कली का वर्णन करती हुई कहती है कि हे सखि, इस खिलती हुई गुलाब की कली का रूप तो देखो न। यह ऐसी प्रतीत होती है, मानो अपने प्रियतम भौंरे को रस लेने के लिए चुटकी बजाकर इशारा करती हुई अपने पास बुला रही हो।
साव-सलोणी गोरडी नवखी क वि विस-गंठि।
भडु पच्चलिओ सो मरइ जासु न लग्गइ कंठि॥
सर्वांग सुंदर गोरी कोई नोखी विष की गाँठ है। योद्धा वास्तव में वह मरता है जिसके कंठ से वह नहीं लगती।
अरुन नयन खंडित अधर, खुले केस अलसाति।
देखि परी पति पास तें, आवति बधू लजाति॥
अङ्गहिं अङ्ग न मिलिउ हलि अहरेँ अहरु न पत्तु।
पिअ जोअन्तिहे मुह-कमलु एम्वइ सुरउ समत्तु॥
हे सखि, अंगों से अंग नहीं मिला; अधर से अधरों का संयोग नहीं हुआ; प्रिय का मुख-कमल देखते-देखते यों ही सुरत समाप्त हो गई।
जइ केवँइ पावीसु पिउ अकिआ कुड्डु करीसु।
पाणिउ नवइ सरावि जिवं सब्बंगें पइसीसु॥
यदि किसी प्रकार प्रिय को पा लूँगी तो अनोखे खेल करूँगी। पानी नए पुरवा में जैसे प्रविष्ट हो जाता है, मैं भी सर्वांग से प्रिय (के अंग-अंग) में प्रवेश कर जाऊँगी।
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संबंधित विषय : मणिपुरी कविता
एहु जम्मु नग्गहं गियउ भड-सिरि खग्गु न भग्गु।
तिक्खाँ तुरिय न माणिया गोरी गलि न लग्गु॥
वह जन्म व्यर्थ गया जिसने शत्रु के सिर पर खड्ग का वार नहीं किया, न तीखे घोड़े पर सवारी की और न गोरी को गले ही लगाया।
ऐसी आजु कहा भई, मो गति पलटे हाल।
जंघ जुगल थहरत चलत, डरति बिसूरति बाल॥
पिय-सङ्गमि कउ निद्दडी पिअहो परोक्खहो केम्व।
मइँ विन्नि वि विन्नासिआ निद्द न एम्व न तेम्व॥
प्रिय के संगम में नींद कहाँ! प्रिय के वियोग में भी नींद कैसी! मैं दोनों ही प्रकार विनष्ट हुई; नींद न यों न त्यों।
सुरत करत पाइल बजै, लजै लजीली भूरि।
ननद जिठानी की सखी, हाँसी हिए बिसूरि॥
एक ब्रह्ममय सब जगत, ऐसे कहत जु बेद।
कौन देत को लेत सखि, रति सुख समुझि अभेद॥
पलकु पीक, अंजनु अधर, धरे महावरु भाल।
आजु मिले, सु भली करी; भले बने हौ लाल॥
नायक के परस्त्रीरमण करने पर नायिका व्यंग्य का सहारा लेकर अपने क्रोध को व्यक्त करती है। वह कहती है कि हे प्रिंयतम, आपके पलकों में पीक, अधरों पर अंजन और मस्तक पर महावर शोभायमान है। आज बड़ा शुभ दिन है कि आपने दर्शन दे दिए। व्यंग्यार्थ यह है आज आप रंगे हाथों पकड़े गए हो। परस्त्रीरमण के सभी चिह्न स्पष्ट रूप से दिखलाई दे रहे हैं। पलकों में पर स्त्री के मुँह की पीक लगी हुई है, अधरों पर अंजन लगा है और मस्तक पर महावर है। ये सभी चिह्न यह प्रामाणित कर रहे हैं कि तुम किसी परकीया से रमण करके आए हो। स्पष्ट संकेत मिल रहा है कि उस परकीया ने पहले तो कामावेश में आकर तुम्हारे मुख का दंत लिया होगा, परिणामस्वरूप उसके मुख की पान की पीक तुम्हारे पलकों पर लग गई। जब प्रतिदान देना चाहा तो वह नायिका मानिनी हो गई। जब तुमने उसके अधरों का दंत लेना चाहा तो वह अपने को बचाने लगी। परिणामस्वरूप उसके नेत्रों से तुम्हारे अधर टकरा गए और उसकी आँखों का काजल तुम्हारे अधरों पर लग गया। अंत में उसे मनाने के लिए तुमने अपना मस्तक उसके चरणों पर रख दिया, इससे उसके पैरों का महावर आपके मस्तक पर लग गया है। इतने पर भी जब वह नहीं मानी तब आप वहाँ से चले आए और आपको मेरा याद आई। चलो,अच्छा हुआ इस बहाने ही सही, आपके दर्शन तो हो गए।
प्रीतम नहिं कछु लखि सक्यो, आलि कही तिय कान।
नथ उतारि धरि नाक तं, कह जमाल का जान॥
सखी ने नायिका के कान में जो कहा, उसको प्रिय न जान सका । नायिका ने अपने नाक की नथ को क्यों खोल दिया ? अभिप्राय यह है कि नायिका के अधरों पर नथ को झूलते देखकर ऐसा जान पड़ता था मानो अधर रस की रक्षा के लिए ताला लगा हो। नथ अधर रस के पान में बाधक है, ऐसा भ्रम नायक को होते देखकर सखी ने नायिका से नथ हटा देने को कहा।
पर्यौ जौरु बिपरीत रति, रुपी सुरत-रन-धीर।
करति कुलाहलु किंकिनी, गहौ मौनु मंजीर॥
विपरीत रति में जुटे हुए नायक-नायिका का वर्णन करती हुई एक सखी दूसरी से कह रही है कि हे सखी, विपरीत रति में जोड़ पड़ गया है अर्थात् नायक नीचे आ गया है। दोनों परस्पर गुंथे हुए हैं और सुरति रूपी रण में धैर्यवान नायिका भली प्रकार डट गई है अर्थात् रम गई है, जिसके फलस्वरूप करधनी ने तो शोर करना आरंभ कर दिया है और मंजीर ने मौन धारण कर लिया है।
तुरत सुरत कैसैं दुरत, मुरन नैन जुरि नीठि।
डौंडी दै गुन रावरे, कहति कनौड़ी डीठि॥
नायक अन्यत्र संभोग करके आया है, नायिका भांप लेती है। वह कहती है कि भला तुम्हीं बताओ कि तुरंत किया हुआ संभोग छिप कैसे सकता है? अब तुम्हीं देखो, तुम्हारे नेत्र बड़ी कठिनता से मेरे नेत्रों से मिल रहे हैं (तुम मुझसे आँखें नहीं मिला पा रहे हो)। इतना ही नहीं तुम्हारी दृष्टि भी लज्जित है। तुम्हारी यह लज्जित दृष्टि ही तुम्हारे किए हुए का ढिंढोरा पीट रही है और मैं सब समझ रही हूँ।
लालन, लहि पाऐं दुरै, चोरी सौंह करैं न।
सीस-चढ़ै पनिहा प्रगट, कहैं पुकारैं नैन॥
नायक परकीया के पास रात बिताकर घर लौटा है। नायिका कहती है कि हे लाल, जान लेने पर अब शपथ खाने से तुम्हारी चोरी छिप नहीं सकती है।अब तुम भले ही कितनी ही शपथ खाओ, तुम्हारी चोरी स्पष्ट हो गई है। वह छिप नहीं सकती है। तुम्हारे सिर चढ़े हुए नेत्र रूपी गुप्तचर तुम्हारी चोरी को पुकार-पुकार कर स्पष्ट कर रहे हैं।
राधा हरि, हरि राधिका, बनि आए संकेत।
दंपति रति-बिपरीत-सुखु, सहज सुरतहूँ लेत॥
श्री राधा श्रीकृष्ण का रूप और कृष्ण राधाजी का रूप धारण कर मिलन-स्थल पर आ गए हैं। वे दोनों स्वाभाविक रति में निमग्न हैं, फिर भी विपरीत संभोग का आनंद ले रहे हैं। यहाँ विपरीत रति का आनंद स्वरूप-परिवर्तन के कारण कल्पित किया गया है।
लाज-गरब-आलस-उमंग, भरे नैन मुसकात।
राति-रमी रति देति कहि, औरे प्रभा प्रभात॥
एक सखी नायिका से कहती है कि हे सखी, यद्यपि तू अपनी 'राति-रमी' अर्थात् रात्रि-रमण की स्थिति का वर्णन नहीं कर रही है, किंतु तेरे लाज, गर्व, आलस्य और उमंग से भरे हुए नेत्र मुस्कराकर सब कुछ बतला रहे हैं। इससे तेरी शोभा अनिर्वचनीय और मोहक प्रतीत होने लगी है। छवि की यह अनिर्वचनीय मोहकता स्पष्ट कह करी है कि तू रात्रि-भर रति-क्रीड़ा
में निमग्न रही है।
लखि गुरुजन-बिच कमल सौं, सीसु छुवायौ स्याम।
हरि-सनमुख करि आरसी, हियैं लगाई बाम॥
नायक ने नायिका को जब गुरुजनों के बीच में बैठा हुआ देखा तो उसने उपहारस्वरूप लाए कमल के पुष्प को अपने सिर से लगा लिया। वास्तव में ऐसा करके नायक ने नायिका से यह भाव व्यक्त किया कि दिन में ही तब तक और जहाँ कमल सिर चढ़ाने को प्राप्त होता रहे, अर्थात् उस सरोवर के पास जिसमें कमल खिले हों, वहाँ आकर वह उसे मिलन का सुख प्रदान करे। नायिका ने अपनी आरसी नायक के सम्मुख कर हृदय से लगा ली और ऐसा करके उसने यह सूचित कर दिया कि 'हरि' अर्थात् सूर्य के रहते हुए मैं आपको आरसी के सदृश्य अर्थात् कमलों वाले तालाब पर ही आकर हृदय से लगाऊँगी।
मरकत-भाजन-सलिल-गत, इंदुकला कैं बेख।
झींन झगा मैं झलमलै, स्याम गात नख-रेख॥
नायिका बड़े मधुर ढंग से व्यंग्यात्मक शैली में कहती है कि हे प्रिय, आपके झीने अर्थात् पतले वस्त्र में श्याम शरीर पर नख-क्षत दिखलाई दे रहे हैं। वे नख-क्षत ऐसे प्रतीत होते हैं मानों किसी जल से युक्त नीलम की थाली में चंद्रमा की कलाएँ शोभित हो रही हों।
प्यारे मोकौं तीर दिहु, पै जिन देहु कमान।
कमांन लागत तीर सैम, तीर लगत प्रियप्रांन॥
प्रिय देना ही है तो तुम मुझे तीर (निकटता) दो; कमान (अपमान) मुझे न दो। यदि आपने मुझे कमान (अपमान) दिया तो वह बाण के सदृश मुझे चुभेगा और यदि तुम मुझे तीर (निकट रहने का अवसर) दोगे तो वह मेरे प्राणों को अत्यंत प्रिय लगेगा।
चितई ललचौहैं चखनु, डटि घूँघट-पट माँह।
छल सौं चली छुवाइ कै, छिनकु छबीली छाँह॥
नायक कह रहा है कि नायिका ने मुझे घूँघट में से ललचाई हुई आँखों से निर्निमेष दृष्टि से देखा। इसके पश्चात् वह किसी बहाने से अपनी छबीली छांह का स्पर्श कराकर चली गई। ऐसा करके नायिका ने अपने रूप का स्पर्शाभास दिया है। उस स्पर्शाभास से मुझे परम सुख प्राप्त हुआ है।
द्वैज-सुधा दीधिति-कला, वह लखि, दीठि लगाइ।
मनौ अकास-अगस्तिया, एकै कली लखाइ॥
नायक नायिका ने शुक्ल पक्ष की द्वितीया को अगस्त्य वृक्ष के नीचे मिलने की योजना बना रखी थी। नायक पहुँच गया लेकिन वहाँ नायिका नहीं आयी। दूती नायक का संदेश लेकर नायिका के पास जाती है लेकिन वहाँ नायिका अपने परिवार वालों के बीच में बैठी हुई है। अत: दूती नायिका को श्लेषात्मक शब्दावली में चंद्रमा दिखलाती है और कहती है कि हे सखी, तू अपनी नज़र से दूज के चंद्रमा को तो देख जो अपनी कलाओं से प्रकाशित है और उसकी कलाएँ ऐसी प्रतीत हो रही हैं मानों आकाश रूपी अगस्त्य वृक्ष में केवल एक ही कली दिखाई पड़ रही है। दूती दूज के चंद्रमा से तो अवधि का स्मरण दिलाती है और अगस्त्य वृक्ष का नाम लेकर संकेत-स्थल की ओर इशारा करती है और एक कली कहकर नायक के अकेले होने का संकेत करती है। अगस्त्य की कली शरदागम के साथ खिला करती है, इससे यह भी स्पष्ट होता है कि वह दिन शरदकाल की शुक्ल पक्ष की द्वितीया का है।
बिनती रति बिपरीत की, करी परसि पिय पाइ।
हँसि, अनबोलैं हीं दियौ, ऊतरु, दियौ बताइ॥
विपरीत रति की प्रार्थना करने पर नायिका नायक को किस प्रकार अपनी स्वीकृति प्रदान करती है, इसका वर्णन करते हुए सखी कह रही है कि पति ने नायिका के पैरों को छूकर विपरीत रति की प्रार्थना की तो नायिका ने हँसकर बिना बोले ही दीपक को बुझाकर अपना उत्तर दे दिया।
तरुन कोकनद-बरनबर, भए अरुन निसि जागि।
बाही कैं अनुराग दृग, रहे मनौ अनुरागि॥
नायिका कह रही है कि हे लाल,आपके नेत्र रात भर जगने से पूर्ण विकसित कमल से भी सुंदर लाल रंग वाले हो गए हैं। उन्हें देखकर ऐसा लगता है मानो तुम्हारे नेत्र उसी के अनुराग में रंगे हुए हैं जिसके पास तुम रात भर रहे हो। भाव यह है कि तुम्हारे नेत्रों से जो लाली दिखाई पड़ रही है, वह उस नायिका के प्रेम की साक्षी है।
प्रीतम नहिं कछु लखि सक्यो, आलि कही तिय कान।
नथ उतारि धरि नाक तँ, कह जमाल का जान॥
सामान्य अर्थ : सखी ने नायिका के कान में जो कहा, उसको प्रिय न जान सका। नायिका ने अपने नाक की नथ को क्यों खोल दिया?
गूढ़ार्थ : नायिका के अधरों पर नथ को झूलते देखकर ऐसा ज्ञात होता था मानों अधर रस की रक्षा के लिए ताला लगा हो। नथ अधर रस के पान में बाधक है ऐसा भ्रम नायक को होते देखकर सखी ने नायिका से नथ हटा देने को कहा।
रँगी सुरत-रंग पिय-हियैं, लगी जगी सब राति।
पैंड़ पैंड़ पर ठठुकि कै, ऐंड़-भरी ऐंडाति॥
सुरति के पश्चात् प्रेमगर्विता नायिका कदम-कदम पर ठिठकती हुई, गर्व से ऐंठती हुई और अलसाती हुई-सी चल रही है। कोई सखी कहती है कि प्रियतम के हृदय से लगी रहकर यह नायिका रात भर जगती रही है। यह संभोग के सुख के रंग में रंगी हुई है। यही कारण है कि अब प्रातः वेला में यह नायिका कदम-कदम पर रुक-रुककर गर्व से भरकर ऐंठती और ऐंड़ती हुई चल रही है। नायिका गर्व से भरी हुई है क्योंकि प्रिय के गले से चिपककर रात्रि बिताने का अवसर उसकी सौंतों को प्राप्त नहीं हो सकेगा। इसी भाव से भरकर वह इठला रही है। नायिका का ऐंड़ना इसलिए है कि रात में उसने संभोग किया है अत: अब उसके अंग टूट रहे हैं।
लखि, लोने लोइननु कैं, कौइनु, होइ न आजु।
कौनु गरीबु निवाजिबौ, तूठ्यौं रतिराजु॥
एक सखी नायिका से उसके नेत्रों के लावण्य का वर्णन कर रही है। वह कह रही है कि अरी सखी, आज तेरे आकर्षक नेत्रों के कोरों से तेरी प्रियतम-मिलन-कामना व्यक्त हो रही है, किंतु, बहुत प्रयास करने पर भी यह विदित नहीं हो रहा है कि तुम आज किस पर कृपा करोगी। आज किसके जीवन में बसंत आएगा अर्थात् तुम्हारे मिलन का सुख किसे प्राप्त होगा यह ज्ञात नहीं हो रहा है।
फिरि-फिरि बिलखी ह्वै लखति, फिरि-फिरि लेति उसासु।
साई! सिर-कच-सेत लौ, बीत्यौ चुनति कपासु॥
नायिका का की सखी नायिका से कहती है कि तू बीते हुए कपास के खेत की कपास चुनते हुए उसी प्रकार बिलख रही है, बार-बार ठंडी साँसें ले रही है जिस प्रकार कोई स्त्री अपने पति के सफेद बालों को चुनते हुए दुखी होती है और ठंडी साँसें लेने लगती है। इस दोहे का व्यंग्यार्थ यह है कि नायिका की पीड़ा का कारण कपास के खेत का नष्ट हो जाना है। नायिका की चिंतित मनोदशा इस कारण है कि अब वह प्रिय से कहाँ और कैसे मिल पाएगी?
सखि पिय सुरत सुरत मुरत, सुरत सूर तन पीर।
सुर तन हिन सुर तन नहीं, सुर तनया सरि नीर॥
जमुना के जल में चंद्र प्रतिविम्ब के दर्शन से सुरति समय के देखी हुई प्रिय की सूरठ का एवं सहवास का स्मरण हो आया। वह मधुर स्मृति शूल बन कर तन में चुभने लगी। काम जागृत हो उठा जिससे गोपिका का शरीर शिथिल हो गया जैसे उसमें प्राण ही न हो।
जमुना के जल में चंद्र प्रतिबिंब के दर्शन से रति क्रीड़ा के दौरान देखी हुई प्रिय की सूरत और सहवास का स्मरण हो आया। वह मधुर स्मृति शूल बन कर तन में चुभने लगी। काम जागृत हो उठा जिससे नायिका का शरीर शिथिल हो गया जैसे उसमें प्राण ही न हो।
वेई गड़ि गाड़ैं परी, उपट्यौ हारु हियैं न।
आन्यौ मोरि मतंगु मनु, मारि गुरेरनु मैन॥
नायिका परस्त्रीगामी नायक से कह रही है कि तुम्हारे हृदय पर जो चिह्न दिखलाई पड़ रहे हैं, वे किसी के हार के उभरे हुए चिह्न नहीं हैं। मुझे तो ऐसा लगता है मानों कामदेव रूपी शिकारी के द्वारा हाथी के सदृश तुम्हारे हृदय में गुलेल से मारी हुई गोलियों के चिह्न हैं। व्यंग्यार्थ यह है कि नायिका यह व्यंजित कर रही है कि तुमने रात भर तो परकीया से रमण किया है, दिन में तुम लोक-लाज के कारण उसके घर रह नहीं सकते थे, अत: तुम्हारा कामोन्माद तुम्हें घर ले आया है। अब तुम दिन भर मेरे साथ रति-क्रीड़ा करोगे। मैं जानती हूँ कि अगर मैं इतनी सुंदर और यौवन-संपन्न न होती तो तुम यहाँ आते ही नहीं। वास्तव में हे प्रिय, तुम बड़े भ्रष्ट हो।
गोप अथाइनु तैं उठे, गोरज छाई गैल।
चलि, बलि, अलि अभिसार की, भली संझौखैं सैल॥
एक सखी दूसरी सखी से कहती है कि देख तो सही, गोप अपने-अपने चौपालों से उठ गए हैं। गाँव की गलियों में गायों के चलने से या घरों की ओर लौटने से धूल छा गई है। अभिसार के लिए सांध्यकालीन यही बेला सर्वथा उपयुक्त है। हे सखी, मैं तुझ पर बलिहारी जाती हूँ और कहती हूँ कि तू मेरे साथ चल।
कुंज-भवनु तजि भवन कौं, चलियै नंदकिसोर।
फूलति कली गुलाब की, चटकाहट चहुँ ओर॥
नायिका रात भर प्रेमी के साथ रही है। कुंजभवन में वह रति-क्रीड़ा में निमग्न रही, अब प्रात:काल होने लगा है, फिर भी नायक न तो उसे छोड़ रहा है और न स्वयं ही वहाँ से जाने का नाम ले रहा है। ऐसी स्थिति में नायिका कलियों के चटकने के बहाने से नायक को प्रात:काल होने का संकेत दे रही है। वह कह रही है कि हे नंदकिशोर, अब कुंज-भवन को छोड़कर घर की ओर चलना चाहिए। कारण यह है कि गुलाब की कलियाँ फूल-फूलकर चटक-चटककर प्रात:काल होने की सूचना दे रही हैं।
सरद-रैनि स्यामा सुभग, सोवति माधौ-संग।
उर उछाह लिपटति सुघर, राजत अंग अनंग॥
गहि दृग मीन प्रबीन की, चितवनि बंशी चार।
भव-सागर में करत हैं, नागर नरन सिकारु॥
लपटि बेलि सी जाति अँग, निघुटि नटी लौ जाइ।
कोटि नवोढ़ा बारिये, वाकी बोलनि पाइ॥
सखि पिय सुरत, सुरत, सुरत, सुरत सुर तन पीर।
सुर तन हिन सुर तन नहीं, सुर तनया सरि नीर॥
जमुना के जल में चंद्र प्रतिबिंब के दर्शन से संभोग समय देखी हुई प्रिय की सूरत और सहवास का स्मरण हो आया। वह मधुर स्मृति शूल बन कर तन में चुभने लगी। काम जागृत हो उठा, जिससे गोपिका का शरीर शिथिल हो गया जैसे उसमें प्राण ही न हों।
समय समुझि सुख-मिलन कौ, लहि मुख-चंद-उजास।
मंद-मंद मंदिर चली, लाज-सुखी पिय-पास॥
निसि जागति दिन में सुवति, बोई पेड़ बबूर।
काटो कदली कंज सो, कह जमाल तकि दूर॥
सामान्य अर्थ : वह रात्रि भर जागती है और दिन में सोती है, इस प्रकार वह प्रकृति विरुद्ध कर्म कर सुखदाई फल क्यों पा रही है? यह तो ऐसा जान पड़ता है मानों बबूल का पेड़ बो कर केले का फल प्राप्त करना।
गूढ़ार्थ : वह रात्रि को जागकर अपने प्रिय के संग रहती है, तो वह रात्रि जागरण हेतु दिन में क्यों न सोवे।
लटपटाति पग धरति क्यों, बिछुरे यह किमि केश।
चकित सुनत भइ चातुरी, कहहु जमाल बिसेस॥
सामान्य अर्थ : जब सखि ने पूछा कि 'तुम्हारे केश बिखरे हुए क्यों हैं और पैर लड़खड़ाते क्यों धर रही हो' तब वह चतुर स्त्री यह सुनकर अचकचा क्यों गई?
गूढ़ार्थ : अभिसारिका अपने रात्रि विहार के पश्चात् लौटी है।
गलनि-गलनि गरकि गइ, गति गोमति की आज।
बिकल लोग यह तिय खुशी, कह जमाल किहि काज॥
सामान्य अर्थ : गोमती किनारे की भूमि बाढ़ के कारण बह गई है। सभी निवासी बहुत व्यथित हैं, पर यह स्त्री प्रसन्न क्यों है?
गूढ़ार्थ : उसे अपने प्रिय के मिलने का अवसर मिल गया क्योंकि सभी लोगों का ध्यान बाढ़ की ओर बँट गया है।
लखि मृगाँक गति नित की नित, मृग नैनी मुसकाय।
या में अचरज कौन है, कह जमाल समुझाय॥
सामान्य अर्थ : चंद्रमा की गति प्रतिदिन वह मृगनैनी देखती है और प्रसन्न होकर मुस्कराती है। चंद्रमा का क्षय होते देखकर, वह किस कारण ऐसा कर रही है ?
गूढ़ार्थ : चंद्र का क्षय होते देखकर वह समझती है कि जब कृष्ण-पक्ष आएगा तब अभिसार करने का अवसर मिलेगा।