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कमल जीत चौधरी की दस कथाएँ

कहानी


उसने प्यार किया था। उसे अपने पुराने प्रेमी की याद सताती थी। पति की ग़ैरमौजूदगी में एक रात उसने अपने प्रेमी को घर बुलाया। घर के सभी बल्ब बंद करके, वह उसे पिछले दरवाज़े से अंदर ले आई। अंदर पहुँचते ही प्रेमी ने उसे चूमना शुरू कर दिया, उसके हाथ भी उसके जिस्म पर मचल उठे। औरत ने उसे प्यार से रोकते हुए कहा : कमरे में चलो। अंदर पहुँचकर प्रेमी ने देखा कि वहाँ दीये की लौ में फूलों की सेज मुस्करा रही थी। बिस्तर पर एक ही सिरहाना था, जिस पर उसके लिखे प्रेमपत्र पड़े हुए थे...

इस साक्षात् को देख रहे खिड़की और दरवाज़े ने परस्पर बातचीत की। दरवाज़े ने कहा : क्या यह कहानी चलती रहेगी? खिड़की ने कहा : यह कहानी सुबह से पहले ख़त्म हो जाएगी।

 

लोकतंत्र


जिसे पता था कि दुनिया में सबसे ज़्यादा अमीर कौन है, उसने चुनाव लड़ा।
जिसे नहीं पता था कि दुनिया में सबसे ज़्यादा ग़रीब कौन है, उसने चुनाव लड़ा।
जो प्रेमिका की गली में अपना पोस्टर लगवाना चाहता था, उसने भी चुनाव लड़ा।

 

गुरु दक्षिणा


कॉलेज में वृक्षारोपण हो रहा था। सभी विद्यार्थी-समूहों को निर्देश था कि पौधा लगाकर, उसके नज़दीक अपने-अपने प्रिय शिक्षक के नाम की तख़्ती गाड़ दें। आज्ञा का पालन हुआ। पौधे कम और तख़्तियाँ अधिक लगने लगीं। मेरे नाम की एक भी तख़्ती न लगी। यह देख, मेरी दोस्त प्रो. सुनाल ने विद्यार्थियों से कहा—एक तख़्ती कमल जीत सर के नाम भी लगा दें। विद्यार्थियों ने चहकते हुए कहा—“मैडम जी, स्नातक पूरी होने तक हम इन पौधों का ध्यान रखेंगे। दसेक सावन बाद हम यहाँ झूला झूलने वापस लौटेंगे और तब सर का नाम पेड़ों के तनों पर लिखेंगे।

 

लकड़ी


राणे ने बग्गे से पूछा—तुमने कितने पेड़ लगाए हैं?

बग्गे ने लगभग उसका गला पकड़ते हुए कहा—यह सवाल छम्ब से विस्थापित हुए लोगों से कभी मत पूछना, हम लोग अपनी लकड़ी पैदा किए बिना नहीं मरते।


भविष्य की कहानी


खुदाई में जो भी चीज़ निकली उस पर एक आदमी के बड़े बुत की तस्वीर थी। उस सभ्यता के बारे में इतना ही पता चलता है कि वह गगनचुंबी बुतों के नीचे दबकर ख़त्म हुई।


चल झूठी


उर्दू के शायर विद्यारतन आसी ने एक क़िस्सा सुनाया—“सुबह-सुबह वे रब के घर जाते थे। रोज़ उनका टाकरा होता था। धर्माधिकारी वहाँ पूजा करने और राजो सफ़ाई करने के लिए आती थी। धर्माधिकारी राजो को फटकारते हुए कहता—सुबह-सुबह ईश्वर से पहले तुम्हारा मुँह देखना पड़ता है। तुम सफ़ाई करने के लिए दिन में नहीं आ सकती!

ऐसा नित्य होने लगा। धर्माधिकारी की नाराज़गी बढ़ती जाती थी। राजो प्रतिदिन गालियाँ सुनती मगर कुछ न कहती।

एक दिन जब धर्माधिकारी ने उसे और सख़्ती से डाँटा तो राजो ने तपाक से कहा—चल बड़ा आया, ज़्यादा बोला तो झप्पी मार लूँगी।

धर्माधिकारी ने कनखियों से कहा—चल झूठी!”

सुनकर, मैं ज़ोर से हँसा। फिर गंभीर होते हुए मैंने कहा—“प्रिय अग्रज, राजो ने पहले दिन ही यह बात कह देनी चाहिए थी।”


तूरों की बुढ़िया


तूर परिवार में एक बुज़ुर्ग हुईं। वह कमर से जितनी सीधी थी, उसके काम उतने उल्टे थे। वह एक हाथ कमर पर और दूसरा हाथ; अपनी भवों के ऊपर छज्जे की तरह रखती थी। पंजों के बल चलते-चलते; ज़बान को चलाने में एडी-चोटी का ज़ोर लगा देती थी। अपनी दबंगई के कारण वह पूरे छम्ब में ‘तूरें दी बुड्डी’ यानी ‘तूरों की बुढ़िया’ विशेषण से विख्यात थी। एक सुबह ख़बर फैली कि तूरों की बुढ़िया नदी में डूब गई। सारा गाँव उसकी लाश ढूँढ़ने के लिए निकल पड़ा। नदी का पाट चौड़ा था और गति मंद और गहराई कम थी। ढूँढ़ते-ढूँढ़ते शाम हो गई मगर लाश न मिली। अंत में एक सयाने आदमी ने कहा—हम सुबह से ग़लती कर रहे हैं। लाश तूरों की बुढ़िया की है। हमें लाश को नदी के बहाव के विपरीत ढूँढ़ना चाहिए। फिर क्या था, सब शुरू हो गए। मगर बहुत दिन तक ढूँढ़ने पर भी उसकी लाश नहीं मिली। अंततः सब हार गए। इस बात को घटित हुए लगभग चालीस साल हो गए हैं। तूरों की बुढ़िया को लोग आज भी याद करते हैं, और अक्सर यह कहते हैं—“धारा के विपरीत जीने से अधिक उल्टे में मरना ज़्यादा कठिन है। मगर तूरों की बुढ़िया ने यह दोनों कार्य बड़ी अनूकलता से किए...”

परिदृश्य


जो मुझे कमल कहते हैं, वे उन्हें ‘सर’ कहते हैं। जिन्हें वे ‘सर’ कहते हैं, वे मुझे ‘सर’ कहते हैं। 

फ़ुटनोट : यह कोई फ़िल्मी त्रिकोणीय प्रेमकथा होती तो स्वयं मरकर इसका अंत करता। मगर यह दूसरी कथा है। इसमें मुझे जीतेजी जीना है। मगर जिन्हें जीतेजी बार-बार डूबकर मरना है, वे नाव में बैठकर फ़ोटो खिंचवा रहे हैं।

 

कोट किल्ली पर


मामा फग्गू और उनके चचेरे भाई मास्टर करिश्न की जोड़ी पूरे छम्ब में प्रसिद्ध थी। वे हर ग़मी-शादी में साथ ही जाते थे। वे जहाँ जाते मास्टर को कुर्सी दी जाती और मामा को डान सौंप दिया जाता। क्यों? यह बात मामा फग्गू के मन में भी आई। उन्होंने सोचा यह शायद पहनावे की इज़्ज़त है। चूँकि करिश्न कोट पहनता है और मैं लाचा (पंजाबी धोतीनुमा पहनावा)। तो उन्होंने भी एक कोट सिलवा लिया। फिर अगली शादी में वह भी कोट पहनकर पहुँचे। इस बार उन्हें किसी ने डान सँभाल लेने के लिए नहीं कहा।

(डान—लगभग आधी बाँह जितना चौड़ा, एक बाँह जितना गहरा और दस-बारह बाँह जितना लंबा, खंदकनुमा चूल्हा। इसके ऊपर बड़े बर्तन रखकर, लकड़ी की आग से खाना बनाया जाता है। डान पर किसी अनुभवी देहाती का नेतृत्व रहता है। इसे डुग्गर व पंजाब देस का एक सांस्कृतिक प्रतीक कहा जा सकता है।)

करिश्न मास्टर ने चिरपरिचित अंदाज़ में बरामदे में महफ़िल जमा ली। इर्द-गिर्द कुछ कुर्सी-पसंद लोग जमे थे। एकाध घंटे बाद मास्टर ने पाया कि फग्गू सभा से ग़ायब है। चलती गप्प को रोकते हुए, उन्होंने ज़ोर से पूछा—अरे! फग्गू कहाँ चला गया? वहाँ बैठे एक आदमी ने बाहर देखते हुए उतने ही ज़ोर से उत्तर दिया : मामा फग्गू डान पर! सभी बाहर देखने लगे, फग्गू ने यह सुन लिया था। हाथ वापस बरामदे की ओर करके; फग्गू ने ज़ोर से हँसते हुए कहा—और, कोट किल्ली (खूँटी) पर। सभी की नज़रें बरामदे की दीवार पर टँगे कोट पर चली गई।। पूरा घर ठहाकों से गूँज गया। उसके बाद कभी किसी शादी में मामा फग्गू ने कोट नहीं पहना।


लद्धूराम की राम-राम


लद्धूराम ने विश्वयुद्ध में अनुपम बहादुरी दिखाई। उन्हें अँग्रेज़ों द्वारा ‘राय बहादुर’ का ख़िताब मिला। मरब्बे— युद्ध में बहादुरी दिखाने वाले सैनिकों को; अँग्रेज़ों द्वारा दी जाने वाली ज़मीनों को मरब्बे कहते थे—मिले। उन्हें सूबेदार बना दिया गया। उनकी प्रतिष्ठा बढ़ी। एक दिन वह सफ़ेद लिबास पहनकर; सफ़ेद घोड़े पर सवार थे। खेत में काम करते पुन्नू को उन्होंने ‘राम राम’, कहा। पुन्नू ने सुनकर भी, अनसुना कर दिया। लद्धूराम ने पुनः दुआ सलाम की। मगर पुन्नू चुपचाप कद्दू (धान रोपने के लिए खेत तैयार करने की एक प्रक्रिया) मारता रहा। इस पर लद्धूराम घोड़े से उतरकर; खेत की मेड़ पर खड़े हो गए। उन्होंने पुन्नू को कहा, “चाचा, आपको मैंने दो-तीन बार राम-राम की, आपने जवाब नहीं दिया! क्या हमसे कोई ग़लती हो गई है?” पुन्नू ने उत्तर दिया—'राय बहादुर साहब! मैं ठहरा किसान, खेत के कीचड़ से सना हुआ। आपको राम-राम करूँगा तो आपके सफेद कपड़े गंदे हो जाएँगे। इतना सुनना था कि लद्धूराम ने पुन्नू के खेत में गडिदी उल्टी छलांग’ मारकर कहा—चाचा, राम राम!

मरब्बे : युद्ध में बहादुरी दिखाने वाले सैनिकों को, अँग्रेज़ों द्वारा दी जाने वाली ज़मीनों को मरब्बे कहते थे।

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