Font by Mehr Nastaliq Web
Ramdhari Singh Dinkar's Photo'

रामधारी सिंह दिनकर

1908 - 1974 | सिमरिया, बिहार

समादृत कवि और निबंधकार। ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित।

समादृत कवि और निबंधकार। ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित।

रामधारी सिंह दिनकर के उद्धरण

28
Favorite

श्रेणीबद्ध करें

जिन्होंने सभ्यता को रुटीन के रूप में स्वीकार कर लिया है, उनके भीतर कोई बेचैनी नहीं उठती। वे दिन-भर दफ्तरों में काम करते हैं और रात में क्लबों के मज़े लेकर आनन्द से सो जाते हैं और उन्हें लगता है, वे पूरा जीवन जी रहे हैं।

जो व्यक्ति आध्यात्मिक जीवन के स्थान पर कृत्रिम, यांत्रिक जीवन का वरण करके तृप्त नहीं होता, उसके भीतर प्रश्न उठते ही रहते हैं और वह अनुत्तरित प्रश्नों के अरण्य में भटकता हुआ कहीं भी शान्ति नहीं पाता है।

नए मनुष्य को नीत्शे के मुख से यह सुनकर बड़ी ख़ुशी हुई थी कि ईश्वर की मृत्यु हो गई। किन्तु यह रहस्य अब खुला है कि ईश्वर की मृत्यु; ईश्वर की मृत्यु नहीं थी, उन मूल्यों की मृत्यु थी—जो मनुष्य और ईश्वर के बीच सेतु बनाये हुए थे।

कवि मात्र जन्म से ही कवि नहीं होता, उसे अभ्यास भी करना पड़ता है; किन्तु अभ्यास उन्हीं को फलता है, जो जन्म से भी कवि हैं।

कला की कोई भी क्रिया, मनुष्य और जीवन-धारण के लिए अनिवार्य नहीं है। इसलिए कला ही मनुष्य को वह क्षेत्र प्रदान करती है, जिसमें वह अपने व्यक्तित्व का सच्चा विकास कर सकता है।

जो व्यक्तित्व कामनाओं का दलन कुछ अधिक दूर तक करता है, उसका व्यक्तित्व व्यक्तित्व रहकर चरित्र बन जाता है।

समाज की स्थिरता का कारण रूढ़ियों का ही स्थैर्य होता है।

साहित्य की आधुनिक समस्या यह है कि लेखक शैली तो चरित्र की अपनाना चाहते हैं, किन्तु उद्दामता उन्हें व्यक्तित्व की चाहिए।

जो कवि केवल सौंदर्य का प्रेमी है, वह शुद्ध कलाकार बन जाता है।

मनुष्य और पशु में मुख्य भेद यह है कि मनुष्य ज्यों-ज्यों सुसंकृत होता है, त्यों-त्यों वह अनुपयोगी कार्य अधिक करता है।

धर्म संपूर्ण जीवन की पद्धति है। धर्म जीवन का स्वभाव है। ऐसा नहीं हो सकता कि हम कुछ कार्य तो धर्म की मौजूदगी में करें और बाक़ी कामों के समय उसे भूल जाएँ।

नारी केवल नर को रिझाने अथवा उसे प्रेरणा देने को नहीं बनी है। जीवन-यज्ञ में उसका भी अपना हिस्सा है और वह हिस्सा घर तक ही सीमित नहीं, बाहर भी है। जिसे भी पुरुष अपना क्षेत्र मानता है, वह नारी का भी कर्मक्षेत्र है।

अर्धनारीश्वर केवल इसी बात का प्रतीक नहीं है कि नारी और नर जब तक अलग हैं तब तक दोनों अधूरे हैं, बल्कि इस बात का भी कि जिस पुरुष में नारीत्व नहीं, वह अधूरा है एवं जिस नारी में पुरुषत्व नहीं, वह भी अपूर्ण है।

परंपरा और विद्रोह, जीवन में दोनों का स्थान है। परंपरा घेरा डालकर पानी को गहरा बनाती है। विद्रोह घेरों को तोड़कर पानी को चोड़ाई में ले जाता है। परंपरा रोकती है, विद्रोह आगे बढ़ना चाहता है। इस संघर्ष के बाद जो प्रगति होती है, वही समाज की असली प्रगति है।

जो मनीषी परम्परागत मूल्यों के विरोध में खड़े हैं, उनकी ईमानदारी पर शंका करने की कोई गुंजाइश नहीं है। मूल्यों की महिमा यह होनी चाहिए कि वे मनुष्य के भीतर मानवीय भावनाओं को जगाएँ। मनुष्य को सोचने को बाध्य करें, उसे व्याकुल और बेचैन बनायें।

यह स्थिति वांछनीय नहीं है कि कला और जनता का मिलन हमेशा साधारणता के ही स्तर पर हो।

इतिहास की दुनिया में आदर्श नाम की कोई चीज नहीं होती, वहाँ केवल तथ्य होते हैं; सत्य नाम की कोई चीज नहीं होती, वहाँ केवल तथ्य होते हैं।

कवि को यदि रचना की प्रक्रिया से अलौकिक आनन्द की प्राप्ति नहीं हो, तो उसकी कविता से पाठकों को भी आनन्द नहीं मिलेगा। कला की सारी कृतियाँ पहले अपने-आपके लिए रची जाती हैं।

खुली आँखें रास्ते के काँटों को देखती हैं, बंद आँखों से दूर का भी सत्य देखा जा सकता है।

चरित्रवान् व्यक्ति पर भावनाओं का कोई प्रभाव नहीं होता।

दुःख-दर्द, निःसंगता और अकेलापन, ये जीनियस के भाग्य में होते हैं, क्योंकि काल के वह विरुद्ध सोचता है। जीनियस मानता है कि राजमत और लोकमत, दोनों त्रासक हो सकते हैं।

जो कवि ज्ञान का उपयोग करता है, उसकी कविताएँ कहीं-न-कहीं जाकर, कर्तव्य को प्रेरित करती हैं।

उपयोगिता का धरातल वह धरातल है, जिस पर मनुष्य और पशु, दोनों सामान हैं।

एलियट कला को व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति नहीं मानते हैं, किन्तु रवीन्द्रनाथ और इक़बाल, दोनों का विचार है कि कला व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति है।

कोरा किताबी ज्ञान मनुष्य को धोखा भी दे सकता है, किन्तु संघर्षों से निकली हुई शिक्षा कभी भी झूठी नहीं होती।

जो लोग चाहते हैं कि लेखक और कवि किसी एक विचारधारा के दास बन जाएँ, वे कलाकारों से व्यक्तित्व का हरण करके उनके ऊपर अपनी पसंद का चरित्र थोपना चाहते हैं।

ऊँची कला कोशिश करने पर भी अपने को नीति और उद्देश्य के संसर्ग से बचा नहीं सकती, क्योंकि नीति और लक्ष्य जीवन के प्रहरी हैं और कला जीवन का अनुकरण किए बिना जी नहीं सकती।

गांधी, बुद्ध, अशोक नाम हैं बड़े दिव्य सपनों के, भारत स्वयं मनुष्य जाति की बहुत बड़ी कविता है।

गीता ने उपदेश तो फलासक्ति के त्याग का दिया था; किन्तु साधकों ने कर्मन्यास का अर्थ फलासक्ति का त्याग नहीं, कर्म मात्र का त्याग लगा लिया।

कविता की पूजा इसलिए नहीं होनी चाहिए कि वह समाज के लिए किसी स्थूल उपयोग की वस्तु है; बल्कि इसलिए कि वह मनुष्य की एक शक्ति है, चीज़ों को देखने की एक दृष्टि है।

संसार में आनन्द के साधन अनेक हैं, किन्तु केवल आनन्द भोगकर, केवल खिलौनों से जी बहलाकर—मर जाना यथेष्ट नहीं है।

आत्महत्या केवल मनुष्य करता है। पशु केवल उतने कर्म करते हैं, जितने से उनकी जैविक आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाए; किंतु मनुष्य की मनुष्यता तो तब तक आरम्भ ही नहीं होती हैं, जब तक वह केवल अपनी जैविक आवश्यकता की पूर्ति में संलग्न हैं।

जिसके जीवन में संघर्ष नहीं है, तनाव नहीं है, कर्मठता और उत्साह नहीं है—उसका व्यक्तित्व भी नहीं है।

व्यक्तित्व उस मनुष्य में उजागर होता है, जो सहज रूप से धारा में तैर रहा है। जो आदमी पानी के बीच चट्टान देखकर तैरना छोड़कर वहाँ बैठ गया, उसने मानो व्यक्तित्व गँवाकर चरित्र का वरण कर लिया है।

निःसंग मनीषी का अकेलापन उस व्यक्ति का अकेलापन है जिसे ईश्वर में विश्वास नहीं है। धर्म में जिसकी आस्था नहीं है और सभ्यता के सभी मूल्यों को जो शंका की दृष्टि से देखता है।

प्रतिभाएँ, साधारणतया, गाँवों में जन्म लेती हैं, महानगरों में आकर विकास पाती हैं और एक पीढ़ी के बाद फिर नष्ट हो जाती हैं, क्योंकि जाति की असली ऊर्जा का निवास महानगरों में नहीं होता। महानगर वह स्थान है जहाँ शक्ति और प्रतिभा की दुकान चलाई जाती है, ये शक्तियाँ वहाँ पैदा नहीं होतीं।

कर्म के कोलाहल से भरे संघर्ष में प्रवेश करने से ही; स्वतंत्रता के भीतर, सच्ची अर्थवत्ता का समावेश होता है।

मनुष्य का व्यक्तित्व ऐसा नहीं होता कि वह सबसे टूटकर अलग जी सके।

कवि के रूप में सफल होने का अर्थ है कि आदमी प्रतिक्रियाओं, प्रवृतियों और चीज़ों को देखने की उन दृष्टियों को ख़तरे में डाल दे जिन्हें संसार सहज और स्वाभाविक मानता है.

रूढ़ियों का साथ देकर समाज में अपने लिए स्थान बनाना आसान है। उनका विरोध करके आदमी समाज में अपने लिए जगह बड़ी मुश्किल से बनाता है।

नए ज्ञान के प्रति भारत हमेशा ही उदार रहा है। नये धर्मों, नई संस्कृतियों और नई विचारधाराओं को अपना कर भारत भी परिवर्तित होता रहा है, लेकिन विचित्रता की बात यह है कि भारत जितना ही बदलता है, उतना ही वह अपने आत्मस्वरूप के अधिक समीप पहुँच जाता है।

मनुष्य अपनी आत्मा का सही संधान गुफाओं में नहीं, मनुष्यों के रेले में पाता है। भीड़ और संघर्ष में पाता है।

इतिहास में तो कोई तर्क है, इंसाफ है, ईमानदारी है, अंतिम ध्येय नाम की कोई चीज है

व्यक्तित्व का आरम्भ समर का आरम्भ है, जीवन को घेरनेवाली बाधाओं पर आक्रमण का आरम्भ है।

व्यवहार में कोई भी व्यक्ति, समाज से हमेशा तटस्थ नहीं रह सकता।

केवल काल्पनिक सुन्दरता की रचना करना पाप है, उसे सत्य और शिव से भी युक्त होना चाहिए।

रूढ़िग्रस्त मूल्य केवल मुखौटे का काम देते हैं और उन्हें पहनकर आदमी अपनी जड़ता को छिपा लेता है।

जो कविता केवल सौन्दर्यपूर्ण और मादक है, किन्तु वह कर्म की प्रेरणा नहीं देती, वह प्रशंसा नहीं, निंदा की पात्री है।

जब भी किसी अन्याय को नज़र-अंदाज़ किया जाता है, न्याय की मृत्यु हो जाती है।

जो धर्म जितने ही अधिक कठोर नियंत्रण में विश्वास करता है, वह उतना ही कवित्वहीन भी होता है।

Recitation