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राम पर दोहे

सगुण भक्ति काव्यधारा

में राम और कृष्ण दो प्रमुख अराध्य देव के रूप में प्रतिष्ठित हुए। राम की प्रतिष्ठा एक भावनायक और लोकनायक की है जिन्होंने संपूर्ण रूप से भारतीय जीवन को प्रभावित किया है। समकालीन सामाजिक-राजनीतिक घटनाक्रमों ने भी राम को कविता चिंतन का प्रसंग बनाया। इस चयन में राम के अवलंब से अभिव्यक्त बेहतरीन दोहों और कविताओं का संकलन किया गया है।

राम नाम अवलंब बिनु, परमारथ की आस।

बरषत वारिद-बूँद गहि, चाहत चढ़न अकास॥

राम-नाम का आश्रय लिए बिना जो लोग मोक्ष की आशा करते हैं अथवा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूपी चारों परमार्थों को प्राप्त करना चाहते हैं वे मानो बरसते हुए बादलों की बूँदों को पकड़ कर आकाश में चढ़ जाना चाहते हैं। भाव यह है कि जिस प्रकार पानी की बूँदों को पकड़ कर कोई भी आकाश में नहीं चढ़ सकता वैसे ही राम नाम के बिना कोई भी परमार्थ को प्राप्त नहीं कर सकता।

तुलसीदास

तुलसी ममता राम सों, समता सब संसार।

राग रोष दोष दुख, दास भए भव पार॥

तुलसी कहते हैं कि जिनकी श्री राम में ममता और सब संसार में समता है, जिनका किसी के प्रति राग, द्वेष, दोष और दुःख का भाव नहीं है, श्री राम के ऐसे भक्त भव सागर से पार हो चुके हैं।

तुलसीदास

तुलसी जौं पै राम सों, नाहिन सहज सनेह।

मूंड़ मुड़ायो बादिहीं, भाँड़ भयो तजि गेह॥

तुलसी कहते हैं कि यदि श्री रामचंद्र जी से स्वाभाविक प्रेम नहीं है तो फिर वृथा ही मूंड मुंडाया, साधु हुए और घर छोडकर भाँड़ बने (वैराग्य का स्वांग भरा)।

तुलसीदास

दंपति रस रसना दसन, परिजन बदन सुगेह।

तुलसी हर हित बरन सिसु, संपति सहज सनेह॥

तुलसी कहते हैं कि रस और रसना पति-पत्नी है, दाँत कुटुंबी हैं, मुख सुंदर घर है, श्री महादेव जी के प्यारे 'र' और 'म' ये दोनों अक्षर दो मनोहर बालक हैं और सहज स्नेह ही संपत्ति हैं।

तुलसीदास

तुलसी परिहरि हरि हरहि, पाँवर पूजहिं भूत।

अंत फजीहत होहिंगे, गनिका के से पूत॥

तुलसी कहते हैं कि श्री हरि (भगवान् विष्णु) और श्री शंकर जी को छोड़कर जो पामर भूतों की पूजा करते हैं, वेश्या के पुत्रों की तरह उनकी अंत में बड़ी दुर्दशा होगी।

तुलसीदास

हियँ निर्गुन नयनन्हि सगुन, रसना राम सुनाम।

मनहुँ पुरट संपुट लसत, तुलसी ललित ललाम॥

हृदय में निर्गुण ब्रह्म का ध्यान, नेत्रों के सामने सगुण स्वरूप की सुंदर झांकी और जीभ से सुंदर राम-नाम का जप करना। तुलसी कहते हैं कि यह ऐसा है मानो सोने की सुंदर डिबिया में मनोहर रत्न सुशोभित हो।

तुलसीदास

जपमाला छापैं तिलक, सरै एकौ कामु।

मन-काँचे नाचै वृथा, साँचै राँचै रामु॥

माला लेकर किसी मंत्र-विशेष का जाप करने से तथा मस्तक एवं शरीर के अन्य अंगों पर तिलक-छापा लगाने से तो एक भी काम पूरा नहीं हो सकता, क्योंकि ये सब तो आडंबर मात्र हैं। कच्चे मन वाला तो व्यर्थ ही में नाचता रहता है, उससे राम प्रसन्न नहीं होते। राम तो सच्चे मन से भक्ति करने वाले व्यक्ति पर ही प्रसन्न होते हैं।

बिहारी

रैदास हमारौ राम जी, दशरथ करि सुत नाहिं।

राम हमउ मांहि रहयो, बिसब कुटंबह माहिं॥

रैदास कहते हैं कि मेरे आराध्य राम दशरथ के पुत्र राम नहीं हैं। जो राम पूरे विश्व में, प्रत्येक घर−घर में समाया हुआ है, वही मेरे भीतर रमा हुआ है।

रैदास

गैंणा गांठा तन की सोभा, काया काचो भांडो।

फूली कै थे कुती होसो, रांम भजो हे रांडों॥

फूलीबाई

सुख सागर नागर नवल, कमल बदन द्युतिमैन

करुणा कर वरुणादिपति, शरणागत सुख दैन॥

हृदयराम

राम नाम अवलंब बिनु, परमारथ की आस।

बरसत बारिद बूँद गहि, चाहत चढ़न अकास॥

जो राम नाम का सहारा लिए बिना ही परमार्थ और मोक्ष की आशा करता है, वह तो मानो बरसते हुए बादल की बूँदों को पकड़कर आकाश में चढ़ना चाहता है (अर्थात् जैसे वर्षा की बूँदों को पकड़कर आकाश पर चढ़ना असंभव है, वैसे ही राम नाम का जप किए बिना परमार्थ की प्राप्ति असंभव है)।

तुलसीदास

राम भरत लछिमन ललित, सत्रु समन सुभ नाम।

सुमिरत दसरथ सुवन सब, पूजहिं सब मन काम॥

श्री राम,भरत,लक्ष्मण और शत्रुघ्न ऐसे जिनके सुंदर और शुभ नाम हैं,दशरथ जी के इन सब सुपुत्रो का स्मरण करते ही सारी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती है॥

राम, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न ऐसे जिनके सुंदर और शुभ नाम हैं, दशरथ के इन सब सुपुत्रों का स्मरण करते ही सारी मनोकामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं।

तुलसीदास

हरे चरहिं तापहिं बरे, फरें पसारहिं हाथ।

तुलसी स्वारथ मीत सब, परमारथ रघुनाथ॥

वृक्ष जब हरे होते हैं, तब पशु-पक्षी उन्हें चरने लगते हैं, सूख जाने पर लोग उन्हें जलाकर तापते हैं और फलने पर फल पाने के लिए लोग हाथ पसारने लगते हैं (अर्थात् जहाँ हरा-भरा घर देखते हैं, वहाँ लोग खाने के लिए दौड़े जाते हैं, जहाँ बिगड़ी हालत होती है, वहाँ उसे और भी जलाकर सुखी होते हैं और जहाँ संपत्ति से फला-फूला देखते हैं, वहाँ हाथ पसार कर मांगने लगते हैं)। तुलसी कहते है कि इस प्रकार जगत में तो सब स्वार्थ के ही मित्र हैं। परमार्थ के मित्र तो एकमात्र श्री रघुनाथ जी ही हैं।

तुलसीदास

नाम गरीबनिवाज को, राज देत जन जानि।

तुलसी मन परिहरत नहिं, धुरविनिआ की वानि॥

तुलसीदास कहते हैं कि गरीब निवाज (दीनबंधु) श्री राम का नाम ऐसा है, जो जपने वाले को भगवान का निज जन जानकर राज्य (प्रजापति का पद या मोक्ष-साम्राज्य तक) दे डालता है। परंतु यह मन ऐसा अविश्वासी और नीच है कि घूरे (कूड़े के ढेर) में पड़े दाने चुगने की ओछी आदत नहीं छोड़ता (अर्थात् गदे विषयो में ही सुख खोजता है)।

तुलसीदास

रामहि सुमिरत रन भिरत, देत परत गुरु पायँ।

तुलसी जिन्हहि पुलक तनु, ते जग जीवत जाएँ॥

भगवान् श्रीराम का स्मरण होने के समय, धर्मयुद्ध में शत्रु से भिड़ने के समय, दान देते समय और श्री गुरु के चरणों में प्रणाम करते समय जिनके शरीर में विशेष हर्ष के कारण रोमांच नहीं होता, वे जगत में व्यर्थ ही जीते हैं।

तुलसीदास

लहइ फूटी कौड़िहू, को चाहै केहि काज।

सो तुलसी महँगो कियो, राम ग़रीबनिवाज॥

तुलसी कहते हैं कि जिसको एक फूटी कौड़ी भी नहीं मिलती थी (जिसकी कोई प्रतिष्ठा नहीं थी),उसको भला कौन चाहता और किसलिए चाहता। उसी तुलसी को ग़रीब-निवाज श्री राम जी ने आज महँगा कर दिया (उसका गौरव बढ़ा दिया)।

तुलसीदास

राम नाम रति राम गति, राम नाम बिस्वास।

सुमिरत सुभ मंगल कुसल, दुहुँ दिसि तुलसीदास॥

तुलसीदास कहते हैं कि जिसका राम नाम में प्रेम है, राम ही जिसकी एकमात्र गति है और राम नाम में ही जिसका विश्वास है, उसके लिए राम नाम का स्मरण करने से ही दोनों ओर (इस लोक में और परलोक में) शुभ, मंगल और कुशल है।

तुलसीदास

राम भरोसो राम बल, राम नाम बिस्वास।

सुमिरत सुभ मंगल कुसल, मांगत तुलसीदास॥

तुलसीदास जी यही माँगते हैं कि मेरा एक मात्र राम पर ही भरोसा रहे, राम ही का बल रहे और जिसके स्मरण मात्र ही से शुभ, मंगल और कुशल की प्राप्ति होती है, उस राम नाम में ही विश्वास रहे।

तुलसीदास

हरन अमंगल अघ अखिल, करन सकल कल्यान।

रामनाम नित कहत हर, गावत बेद पुरान॥

राम नाम सब अमंगलों और पापों को हरने वाला तथा सब कल्याणों को करने वाला है। इसी से श्री महादेव जी सर्वदा श्री राम नाम को रटते रहते हैं और वेद-पुराण भी इस नाम का ही गुण गाते हैं।

तुलसीदास

रे मन सब सों निरस ह्वै, सरस राम सों होहि।

भलो सिखावन देत है, निसि दिन तुलसी तोहि॥

रे मन! तू संसार के सब पदार्थों से प्रीति तोड़कर श्री राम से प्रेम कर। तुलसीदास तुझको रात-दिन यही शिक्षा देता है।

तुलसीदास

रसना सांपिनी बदन बिल, जे जपहिं हरिनाम।

तुलसी प्रेम राम सों, ताहि बिधाता बाम॥

जो श्री हरि का नाम नहीं जपते, उनकी जीभ सर्पिणी के समान केवल विषय-चर्चा रूपी विष उगलने वाली और मुख उसके बिल के समान है। जिसका राम में प्रेम नही है, उसके लिए तो विधाता वाम ही है (अर्थात् उसका भाग्य फूटा ही है)।

तुलसीदास

संकर प्रिय मम द्रोही, सिव द्रोही मम दास।

ते नर करहिं कलप भरि, घोर नरक महुँ बास॥

(भगवान् श्री रामचंद्र जी कहते हैं कि) जिनको शिव जी प्रिय हैं, किंतु जो मुझसे विरोध रखते हैं; अथवा जो शिवजी से विरोध रखते हैं और मेरे दास बनना चाहते हैं, मनुष्य एक कल्प तक घोर नरक में पड़े रहते हैं (अतएव श्री शंकर जी में और श्री राम जी में कोई ऊँच-नीच का भेद नहीं मानना चाहिए।)।

तुलसीदास

हम लखि लखहि हमार लखि, हम हमार के बीच।

तुलसी अलखहि का लखहि, राम नाम जप नीच॥

तू पहले अपने स्वरूप को जान, फिर अपने यथार्थ ब्रह्म के स्वरूप का अनुभव कर। तदनंतर अपने और ब्रह्म के बीच में रहने वाली माया को पहचान। अरे नीच ! (इन तीनों को समझे बिना) तू उस अलख परमात्मा को क्या समझ सकता है? अतः (अलख-अलख चिल्लाना छोडकर) राम नाम का जप कर।

तुलसीदास

सीता लखन समेत प्रभु, सोहत तुलसीदास।

हरषत सुर बरषत सुमन, सगुन सुमंगल बास॥

तुलसी कहते हैं कि सीता और लक्ष्मण के सहित प्रभु श्री रामचंद्र जी सुशोभित हो रहे हैं, देवतागण हर्षित होकर फूल बरसा रहे हैं। भगवान का यह सगुण ध्यान सुमंगल-परम कल्याण का निवास स्थान है।

तुलसीदास

जानि राम सेवा सरस, समुझि करब अनुमान।

पुरुषा ते सेवक भए, हर ते भे हनुमान॥

श्री राम की सेवा में परम आनंद जानकर पितामह ब्रह्माजी सेवक जांबवान् बन गए और शिव जी हनुमान् हो गए। इस रहस्य को समझो और प्रेम की महिमा का अनुमान लगाओ।

तुलसीदास

मीठो अरु कठवति भरो, रौंताई अरु छेम।

स्वारथ परमारथ सुलभ, राम नाम के प्रेम॥

मीठा पदार्थ (अमृत) भी हो और कठौता भरकर मिले, यानी राज्यादि अधिकार भी प्राप्त हों और क्षेमकुशल भी रहे (अर्थात् अभिमान और भोगों से बचकर रहा जाए) अर्थात् स्वार्थ भी सधे तथा परमार्थ भी संपन्न हो; ऐसा होना बहुत ही कठिन है परंतु श्री राम नाम के प्रेम से ये परस्पर विरोधी दुर्लभ बातें भी सुलभ हो जाती है।

तुलसीदास

अनुदिन अवध बधावने, नित नव मंगल मोद।

मुदित मातु-पितु लोग लखि, रघुवर बाल विनोद॥

श्री अयोध्या जी में रोज बधावे बजते हैं, नित नए-नए मंगलाचार और आनंद मनाए जाते हैं। श्री रघुनाथ जी की बाल लीला देख-देखकर माता-पिता तथा सब लोग बडे प्रसन्न होते हैं।

तुलसीदास

बिनु सतसंग हरिकथा, तेहि बिनु मोह भाग।

मोह गएँ बिनु रामपद, होइ दृढ़ अनुराग॥

सत्संग के बिना भगवान की लीला-कथाएँ सुनने को नहीं मिलती, भगवान की रहस्यमयी कथाओं के सुने बिना मोह नहीं भागता और मोह का नाश हुए बिना भगवान् श्री राम के चरणों मे अचल प्रेम नहीं होता।

तुलसीदास

बालक कोसलपाल के, सेवकपाल कृपाल।

तुलसी मन मानस बसत, मंगल मंजु मराल॥

कोसलपति दशरथ के बालक श्री राम सेवकों की रक्षा करने वाले तथा बड़े ही कृपालु हैं। वे तुलसी के मनरूपी मानसरोवर में कल्याण रूप सुंदर हंस के समान निवास करते हैं।

तुलसीदास

तुलसी राम कृपालु सों, कहि सुनाउ गुन दोष।

होय दूबरी दीनता, परम पीन संतोष॥

तुलसी कहते हैं कि तुम कृपालु श्री रामजी से अपने सब गुण-दोष दिल खोलकर सुना दो। इससे तुम्हारी दीनता दुबली (कम) हो जाएगी और संतोष परम पुष्ट (दृढ़) हो जाएगा।

तुलसीदास

पंचबटी बट बिटप तर, सीता लखन समेत।

सोहत तुलसीदास प्रभु, सकल सुमंगल देत॥

पंचवटी में वटवृक्ष के नीचे सीता और लक्ष्मण समेत प्रभु श्री राम सुशोभित हैं। तुलसी कहते हैं कि यह ध्यान सब सुमंगलों का दाता है।

तुलसीदास

कियो सुसेवक धरम कपि, प्रभु कृतग्य जियँ जानि।

जोरि हाथ ठाढ़े भए, बरदायक वरदानि॥

श्री हनुमान जी ने एक अच्छे सेवक का धर्म ही निभाया। परंतु यह जानकर वर देने वाले देवताओं के भी वरदाता महेश्वर श्री भगवान् हृदय से ऐसे कृतज्ञ हुए कि हाथ जोड़कर हनुमान जी के सामने खड़े हो गए (कहने लगे कि हे हनुमान्! मैं तुम्हारे बदले में उपकार तो क्या करूँ, तुम्हारे सामने नज़र उठाकर देख भी नहीं सकता)।

तुलसीदास

ज्यों जग बैरी मीन को, आपु सहित बिनु बारि।

त्यों तुलसी रघुबीर बिनु, गति आपनी बिचारि॥

जैसे जल को छोड़कर सारा जगत् ही मछली का वैरी है, यहाँ तक कि वह आप भी वैरी का काम करती है (जीभ के स्वाद के लिए काँटे में अपना मुँह फंसा लेती है), वैसे ही हे तुलसी! एक श्री रघुनाथ जी के बिना अपनी भी यही गति समझ ले (अपना ही मन वैरी बनकर तुझे विषयों में फंसा देगा)।

तुलसीदास

सकल कामना हीन जे, राम भगति रस लीन।

नाम सुप्रेम पियूष हृद, तिन्हहुँ किए मन मीन॥

जो समस्त कामनाओं से रहित हैं और श्री रामजी के भक्तिरस में डूबे हुए हैं, उन महात्माओं ने भी राम नाम के सुंदर प्रेमरूपी अमृत-सरोवर में अपने मन को मछली बना रक्खा है (अर्थात् नामामृत के आनंद को वे क्षण भर के लिए भी त्यागने में मछली की भांति व्याकुल हो जाते हैं)।

तुलसीदास

राम दूरि माया बढ़ति, घटति जानि मन माँह।

भूरि होति रवि दूरि लखि, सिर पर पगतर छाँह॥

जैसे सूर्य को दूर देखकर छाया लंबी हो जाती है और सूर्य जब सिर पर जाता है तब वह ठीक पैरों के नीचे जाती है, उसी प्रकार श्री राम से दूर रहने पर माया बढ़ती है और जब वह श्री राम को मन में विराजित जानती है, तब घट जाती है।

तुलसीदास

राम नाम पर नाम तें, प्रीति प्रतीति भरोस।

सो तुलसी सुमिरत सकल, सगुन सुमंगल कोस॥

तुलसीदास जी कहते हैं कि जो राम नाम के परायण हैं और राम नाम में ही जिसका प्रेम, विश्वास और भरोसा है, वह राम नाम का स्मरण करते ही समस्त सद्गुणों और श्रेष्ठ मंगलों का ख़ज़ाना बन जाता है।

तुलसीदास

जो जन भीजै रामरस, बिगसित कबहुँ रुख।

अनुभव भाव दरसे, ते नर सुख दुख॥

जो साधक आत्मचिंतन में सदैव डूबे रहते हैं, वे सांसारिक उपलब्धियों में हर्षित होते हैं और उनके चले जाने से शोकित होते हैं। सदैव स्वरूपस्थिति के अनुभव में लीन होने से उन्हें सांसारिक भाव-तरंगें नही प्रभावित कर पातीं। अतएव वे सांसारिक वस्तुओं के मिलने-बिछुड़न में सुखी होते हैं और दुखी होते हैं।

कबीर

राम नाम मनिदीप धरु, जीह देहरीं द्वार।

तुलसी भीतर बाहेरहुँ, जौं चाहसि उजिआर॥

तुलसी कहते हैं कि यदि तू भीतर और बाहर दोनों ओर प्रकाश (लौकिक एवं पारमार्थिक ज्ञान) चाहता है तो राम नाम के दीप को अपनी देहरी पर हमेशा जलाए रख अर्थात् अपनी देह की देहरी जीभ पर हमेशा राम-नाम का सुमिरन रखना। इससे तुम्हारे भीतर और बाहर दोनों और चेतना का उजाला रहेगा।

तुलसीदास

सुद्ध सच्चिदानंदमय, कंद भानुकुल केतु।

चरित करत नर अनुहरत, संसृति सागर सेतु॥

शुद्ध (प्रकृतिजन्य त्रिगुणों से रहित, मायातीत दिव्य मंगल विग्रह), सच्चिदानंदकंदस्वरूप, सूर्यकुल के ध्वजा रूप भगवान् श्री राम मनुष्यों के समान ऐसे चरित्र करते हैं, जो संसार-सागर से तारने के लिए पुल के समान हैं (अर्थात् उन चरित्रों को गाकर और सुनकर लोग भवसागर से सहज ही तर जाते हैं)।

तुलसीदास

राम बाम दिसि जानकी, लखन दाहिनी ओर।

ध्यान सकल कल्यानमय, सुरतरु तुलसी तोर॥

भगवान् श्री रामजी की बाईं ओर श्री जानकी जी हैं और दाहिनी ओर श्री लक्ष्मण जी हैं, यह ध्यान संपूर्ण रूप से कल्याणमय है। हे तुलसी! तेरे लिए तो यह मनमाना फल देने वाला कल्पवृक्ष ही है।

तुलसीदास

ज्यों जग बैरी मीन कौ, आपु सहित बिनु वारि।

त्यों ‘तुलसी’ रघुवीर बिनु, गति अपनी सुविचारि॥

जिस प्रकार पानी के बिना मछली के सब शत्रु हो जाते हैं, यहाँ तक कि वह स्वयं भी अपने आप ही अपनी शत्रु हो जाती है वैसी ही भगवान् राम के बिना मनुष्य के सब शत्रु हो जाते हैं। इसलिए गोस्वामी जी अपने मन को समझाते हुए कहते हैं कि तू भी अपना कल्याण चाहता है तो भगवान् की शरण में जा ताकि तेरा उद्धार हो जाय।

तुलसीदास

प्रीति प्रतीति सुरीति सों, राम राम जपु राम।

तुलसी तेरो है भलो, आदि मध्य परिनाम॥

तुलसी कहते हैं कि तुम प्रेम, विश्वास और विधि के साथ राम-राम जपो; इससे तुम्हारा आदि, मध्य और अंत तीनों ही कालों में कल्याण है।

तुलसीदास

राम नाम सुमिरत सुजस, भाजन भए कुजाति।

कुतरुक सुरपुर राज मग, लहत भुवन बिख्याति॥

राम नाम का स्मरण करने से (गणिका एवं अजामिल आदि) अप्रिय स्वभाव वाले भी सुंदर कीर्ति के पात्र हो गए। स्वर्ग के राजमार्ग पर स्थित बुरे वृक्ष भी त्रिभुवन मे ख्याति पा जाते हैं।

तुलसीदास

वेष विसद बोलनि मधुर, मन कटु करम मलीन।

तुलसी राम पाइऐ, भएँ बिषय-जल मीन॥

तुलसी कहते हैं कि ऊपर का वेष साधुओं का-सा हो और बोली भी मीठी हो, परंतु मन कठोर और कर्म भी मलिन हो; इस प्रकार विषय रूपी जल की मछली बने रहने से श्री राम की प्राप्ति नहीं होती (श्री राम तो सरल मन वाले को ही मिलते हैं)।

तुलसीदास

राम निकाई रावरी, है सबही को नीक।

जौं यह साँची है सदा, तौ नीको तुलसीक॥

तुलसी कहते हैं कि हे रामजी! आपकी भलाई (सुहृद्भाव) से सभी का भला है। अर्थात् आपका कल्याणमय स्वभाव सभी का कल्याण करने वाला है। यदि यह बात सत्य है तो तुलसीदास का भी सदा कल्याण ही है।

तुलसीदास

राम सनेही राम गति, राम चरन रति जाहि।

तुलसी फल जग जनम को, दियो बिधाता ताहि॥

तुलसी कहते हैं जो श्री राम का ही प्रेमी है, श्री राम ही जिसकी गति है और श्री राम के ही चरणों में जिसकी प्रीति है। बस, उसी को विधाता ने जगत में जन्म लेने का यथार्थ फल दिया है।

तुलसीदास

सबरी गीध सुसेवकनि, सुगति दीन्हि रघुनाथ।

नाम उधारे अमित खल, बेद बिदित गुन गाथ॥

श्री रघुनाथ जी ने तो शबरी, गिद्धराज, जटायु आदि अपने श्रेष्ठ सेवकों को ही सुगति दी; परंतु राम नाम ने तो असंख्य दुष्टों का उद्धार कर दिया। राम नाम की यह गुणगाथा वेदों में प्रसिद्ध है।

तुलसीदास

मोर-मोर सब कहँ कहसि, तू को कहु निज नाम।

कै चुप साधहि सुनि समुझि, कै तुलसी जपु राम॥

तू सबको मेरा-मेरा कहता है, परंतु यह तो बता कि तू कौन है ? और तेरा अपना नाम क्या है? तुलसी कहते हैं कि अब या तो तू इसको (नाम और रूप के रहस्य को) सुन और समझकर मौन हो जा (मेरा-मेरा कहना छोड़कर अपने स्वरूप में स्थित हो जा) या राम का नाम जप।

तुलसीदास

जथा भूमि सब बीजमय, नखत निवास अकास।

राम नाम सब धरममय, जानत तुलसीदास॥

जैसे सारी धरती बीजमय है, सारा आकाश नक्षत्रों का निवास है, वैसे ही राम नाम सर्वधर्ममय है—तुलसीदास इस रहस्य को जानते हैं।

तुलसीदास

राम नाम कलि कामतरु, राम भगति सुरधेनु।

सकल सुमंगल मूल जग, गुरुपद पंकज रेनु॥

कलियुग में राम नाम मनचाहा फल देने वाले कल्पवृक्ष के समान है, रामभक्ति मुँह माँगी वस्तु देने वाली कामधेनु है और श्री सद्गुरु के चरण कमल की रज संसार में सब प्रकार के मंगलों की जड़ है।

तुलसीदास