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नश्वर पर दोहे

मानव शरीर की नश्वरता

धार्मिक-आध्यात्मिक चिंतन के मूल में रही है और काव्य ने भी इस चिंतन में हिस्सेदारी की है। भक्ति-काव्य में प्रमुखता से इसे टेक बना अराध्य के आश्रय का जतन किया गया है।

चाकी चलती देखि कै, दिया कबीरा रोइ।

दोइ पट भीतर आइकै, सालिम बचा कोई॥

काल की चक्की चलते देख कर कबीर को रुलाई जाती है। आकाश और धरती के दो पाटों के बीच कोई भी सुरक्षित नहीं बचा है।

कबीर

हाड़ जलै ज्यूँ लाकड़ी, केस जले ज्यूँ घास।

सब तन जलता देखि करि, भया कबीर उदास॥

हे जीव, यह शरीर नश्वर है। मरणोपरांत हड्डियाँ लकड़ियों की तरह और केश घास (तृणादि) के समान जलते हैं। इस तरह समस्त शरीर को जलता देखकर कबीर उदास हो गया। उसे संसार के प्रति विरक्ति हो गई।

कबीर
  • संबंधित विषय : देह

देउल देउ वि सत्थु गुरु, तित्थु वि वेउ वि कब्बु।

बच्छु जु दोसै कुसुमियउ, इंधणु होसइ सब्बु॥

देवल (मंदिर), देव, शास्त्र, गुरु, तीर्थ, वेद, काव्य, वृक्ष जो कुछ भी कुसुमित दिखाई पड़ता है, वह सब ईंधन होगा।

जोइंदु

धन्नो कहै ते धिग नरां, धन देख्यां गरबाहिं।

धन तरवर का पानड़ा, लागै अर उड़ि जाहिं॥

धन्ना भगत

जब लग स्वांस सरीर में, तब लग नांव अनेक।

घट फूटै सायर मिलै, जब फूली पूरण एक॥

फूलीबाई

कबीर ऐसा यहु संसार है, जैसा सैंबल फूल।

दिन दस के व्यौहार में, झूठै रंगि भूलि॥

यह जगत सेमल के पुष्प की तरह क्षण-भंगुर तथा अज्ञानता में डालने वाला है। दस दिन के इस व्यवहार में, हे प्राणी! झूठ-मूठ के आकर्षण में अपने को डालकर स्वयं को मत भूलो।

कबीर

गैंणा गांठा तन की सोभा, काया काचो भांडो।

फूली कै थे कुती होसो, रांम भजो हे रांडों॥

फूलीबाई

थोड़ा जीवण कारनै, मत कोई करो अनीत।

वोला जौ गल जावोगे, जो बालु की भीत॥

संत लालदास

पाणी केरा बुदबुदा, इसी हमारी जाति।

एक दिनाँ छिप जाँहिगे, तारे ज्यूं परभाति॥

यह मानव जाति तो पानी के बुलबुले के समान है। यह एक दिन उसी प्रकार छिप (नष्ट) जाएगी, जैसे ऊषा-काल में आकाश में तारे छिप जाते हैं।

कबीर

सदा नगारा कूच का, बाजत आठों जाम।

रहिमन या जग आइ कै, को करि रहा मुकाम॥

आठों पहर कूच करने का नगाड़ा बजता रहता है। यानी हर वक़्त मृत्यु सक्रिय है, कोई कोई मर ही रहा है। यही सत्य है। रहीम कहते हैं कि इस नश्वर संसार में आकर कौन अमर हुआ है!

रहीम

काग आपनी चतुरई, तब तक लेहु चलाइ।

जब लग सिर पर दैइ नहिं, लगर सतूना आइ॥

हे कौए! तू अपनी चतुरता तब तक दिखा ले जब तक कि तेरे सिर पर बाज पक्षी आकर अपनी झपट नहीं मारता। भाव यह है कि जब तक मृत्यु मनुष्य को आकर नहीं पकड़ लेती, तभी तक मनुष्य का चंचल मन अपनी चतुरता दिखाता है।

रसनिधि

पायन पुहुमी नापते, दरिया करते फाल।

हाथन पर्वत तौलते, तेहि धरि खायो काल॥

जो ओंधे पैरों से पूरी पृथ्वी नाप लेते थे, समुद्र को एक ही छलांग में कूद जाते थे और अपने हाथों से पर्वत उठा लेते थे, उन्हें भी मौत ने धर दबोचा।

कबीर

तरवर पत्त निपत्त भयो, फिर पतयो ततकाल।

जोबन पत्त निपत्त भयो, फिर पतयौ जमाल॥

पतझड़ में पेड़ पत्तों से रहित हुआ पर तुरंत ही फिर पल्लवित हो गया। पर यौवन-रूपी तरुवर पत्तों से रहित होकर फिर लावण्य युक्त नहीं हुआ।

जमाल

जमला जोबन फूल है, फूलत ही कुमलाय।

जाण बटाऊ पंथसरि, वैसे ही उठ जाय॥

यौवन एक फूल है जो कि फूलने के बाद शीघ्र ही कुम्हला जाता है। वह तो पथिक-सा है जो मार्ग में तनिक-सा विश्राम लेकर,अपनी राह लेता है।

जमाल

हाड़ जरै जस लाकड़ी, बार जरै जस घास।

कबिरा जरे रामरस, जस कोठी जरै कपास॥

मृत शरीर का दाह करने पर उसकी हड्डी लकड़ी के समान जलती है और बाल घास के समान जलते हैं, परंतु परोक्ष में राम मानकर उसकी उपासना एवं विरह-वेदना में जीव उसी प्रकार भीतर-भीतर जलता रहा जैसे कोठी में कपास जल जाए और बाहर पता चले।

कबीर

सैना रोऊँ किण सुमर, देख हूँसू किण अब्ब।

जो आए ते सब गये, हैं सो जैहें सब्ब॥

सैन कहते हैं—मैं किसे याद करके रोऊँ और किसे याद करके हँसूँ? जो आए थे, वे सब चले गए। जो हैं, वे सब चले जाएँगे।

सैन भगत

सुंदर देही पाय के, मत कोइ करैं गुमान।

काल दरेरा खाएगा, क्या बूढ़ा क्या ज्वान॥

मलूकदास

शुतर गिरयो भहराय के, जब भा पहुँच्यो काल।

अल्प मृत्यु कूँ देखि के, जोगी भयो जमाल॥

ऊँट के समान विशाल शरीर वाला पशु भी काल (मृत्यु) आने पर हड़बड़ाकर गिर पड़ता है। इस प्रकार शरीर की नश्वरता देखकर कवि जमाल उदासीन हो गया।

जमाल

गर्व भुलाने देह के, रचि-रचि बाँधे पाग।

सो देही नित देखि के, चोंच सँवारे काग॥

मलूकदास
  • संबंधित विषय : देह

सुंदर देही देखि के, उपजत है अनुराग।

मढी होती चाम की, तो जीबत खाते काग॥

मलूकदास
  • संबंधित विषय : देह

इस जीने का गर्व क्या, कहाँ देह की प्रीत।

बात कहते ढह जात है, बारू की सी भीत॥

मलूकदास
  • संबंधित विषय : देह

धन दारा संपत्ति सकल, जिनि अपनी करि मानि।

इन में कुछ संगी नहीं, नानक साची जानि॥

गुरु तेग़ बहादुर

रजत सीप मैं रजु भुजंग, जथा सुपन धन धाम।

तथा वृथा भ्रम रूप जग, साँच चिदातम राम॥

दीनदयाल गिरि

यौं मति जानै बावरे, काल लगावै बेर।

सुंदर सब ही देखतें, होइ राख की ढेर॥

सुंदरदास

सुन्दर अविनाशी सदा, निराकार निहसंग।

देह बिनश्वर देखिये, होइ पटक मैं भंग॥

सुंदरदास

सुन्दर पक्षी वृक्ष पर, लियौ बसेरा आनि।

राति रहे दिन उठि गये, त्यौं कुटंब सब जानि॥

सुंदरदास

असु गज अरु कंचन 'दया', जोरे लाख करोर।

हाथ झाड़ रीते गये, भयो काल को ज़ोर॥

दयाबाई

सुन्दर तूं तौ एकरस, तोहि कहौं समुझाइ।

घटै बढै आवै रहै, देह बिनसि करि जाइ॥

सुंदरदास

सुंदर ग़ाफ़िल क्यौं फिरै, साबधान किन होय।

जम जौरा तकि मारि है, घरी पहरि मैं तोय॥

सुंदरदास

बलि किउ माणुस जम्मडा, देक्खंतहँ पर सारु।

जइ उट्टब्भइ तो कुहइ, अह डज्झइ तो छारु॥

मनुष्य इस जीवन की बलि जाता हैं (अर्थात् वह अपनी देह से बहुत मोह रखता है) जो देखने में परम तत्व है। परंतु उसी देह को यदि भूमि में गाड़ दें तो सड़ जाती है और जला दें तो राख हो जाती है।

जोइंदु

माटी सूं ही ऊपज्यो, फिर माटी में मिल जाय।

फूली कहै राजा सुणो, करल्यो कोय उपाय॥

फूलीबाई

मेरै मंदिर माल धन, मेरौ सकल कुटुंब।

सुंदर ज्यौं को त्यौं रहै, काल दियौ जब बंब॥

सुंदरदास

सुन्दर मैली देह यह, निर्मल करी जाइ।

बहुत भांति करि धोइ तूं, अठसठि तीरथ न्हाइ॥

सुंदरदास

जागो रे अब जागो भैया, सिर पर जम की धार।

ना जानूँ कौने घरी, केहि ले जैहै मार॥

मलूकदास

सुन्दर बंध्या देह सौं, कबहु छूटा भाजि।

और कियौ सनमंध अब, भई कोढ मैं खाजि॥

सुंदरदास

भाई बंधु कुटुंब सब, भये इकट्ठे आय।

दिना पाँच को खेल है, 'दया' काल ग्रासि जाय॥

दयाबाई

तात मात तुम्हरे गये, तुम भी भये तैयार।

आज काल्ह में तुम चलो, 'दया' होहु हुसियार॥

दयाबाई

सुन्दर बंधै देह सौं, तौ यह देह निषिद्धि।

जौ याकी ममता तजै, तौ याही मैं सिद्धि॥

सुंदरदास

जैसो मोती ओस को, तैसो यह संसार।

बिनसि जाय छिन एक में, 'दया' प्रभू उर धार॥

दयाबाई

देह स्वर्ग अरु नरक है, बंद मुक्ति पुनि देह।

सुन्दर न्यारौ आतमा, साक्षी कहियत येह॥

सुंदरदास
  • संबंधित विषय : देह

सुन्दर देह मलीन है, राख्यौ रूप संवारि।

ऊपर तें कलई करी, भीतरि भरी भंगारि॥

सुंदरदास
  • संबंधित विषय : देह

‘लालू’ क्यूँ सूत्याँ सरै, बायर ऊबो काल।

जोखो है इण जीव नै, जँवरो घालै जाल॥

लालनाथ

गरव करत है देह को, बिनसै छिन में मीति।

जिहि प्रानी हरि जस कहिओ, नानक तिहि जग जीति॥

गुरु तेग़ बहादुर
  • संबंधित विषय : देह

राम गइओ रावनु गइओ, जा कउ बह परिवार।

कह नानक थिर कछु नहीं, सुपने जिउँ संसार॥

गुरु तेग़ बहादुर

जा गुलाब के फूल कौं, सदा रंग ठहराइ।

मधुकर मत पच तू अरे, वासौं नेह लगाइ॥

रसनिधि

क्षीण सपष्ट शरीर है, शीत उष्ण तिहिं लार।

सुन्दर जन्म जरा लगै, यह पट देह विकार॥

सुंदरदास
  • संबंधित विषय : देह

सुन्दर देह मलीन है, प्रकट नरक की खानि।

ऐसी याही भाक सी, तामैं दीनौ आंनि॥

सुंदरदास
  • संबंधित विषय : देह

'दया कुँवर' या जक्त में, नहीं रह्यो थिर कोय।

जैसो बास सराँय को, तैसो यह जग होय॥

दयाबाई

जग रचना सब झूठ है, जानि लेहु रे मीत।

कहु नानक थिर ना रहे, जिउ बालू की भीत॥

गुरु तेग़ बहादुर

सुन्दर कहा पखारिये, अति मलीन यह देह।

ज्यौं-ज्यौं माटी धोइये, त्यौं-त्यौं उकटै खेह॥

सुंदरदास
  • संबंधित विषय : देह

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