तानाशाह पर कविताएँ

प्रतिरोध कविता का मूल

धर्म माना जाता है। आधुनिक राज-समाज में सत्ता की स्वेच्छाचारिता के ख़तरों के प्रति आगाह कराते रहने के कार्यभार को कविता ने अपने अपने मूल और केंद्रीय कर्तव्य की तरह धारण कर रखा है। इस आशय में आधुनिक कविताओं में ‘तानाशाह’ शब्द की आवाजाही उस प्रतिनायक के प्रकटीकरण के लिए बढ़ी है, जो आधुनिक राज-समाज के तमाम प्रगतिशील आदर्शों को चुनौती देने या उन्हें नष्ट करने की मंशा रखता हो।

निष्कर्ष

शुभांकर

हैंगओवर

निखिल आनंद गिरि

तानाशाह की खोज

उदय प्रकाश

मेरे शहर के हैं सवाल कुछ

हिमांशु बाजपेयी

हल्लो राजा

राकेश रंजन

एक आदमी आदेश देकर

पंकज चतुर्वेदी

राजा भी मरेगा एक दिन

अशोक कुमार पांडेय

सुनो बादशाह!

सौम्य मालवीय

हत्या का मुक़दमा

पंकज चतुर्वेदी

राजा अइलिन

राकेश रंजन

हत्यारे

पंकज चतुर्वेदी

विजेता

ज़ुबैर सैफ़ी

तानाशाह

सुधांशु फ़िरदौस

महामारी

पंकज चतुर्वेदी

स्मारक

कृष्ण कल्पित

तानाशाह

मंगलेश डबराल

सब गए समेट

दिनेश कुमार शुक्ल

मुझे क्या

नवनीत पांडे

अमलतास झरता है

सौम्य मालवीय

शहंशाह की नींद*

उमा शंकर चौधरी

राजा और रानी

शिवमंगल सिद्धांतकर

राजा जी

मनोज शर्मा

राजतिलक के वक़्त

अजीत रायज़ादा

नया अत्याचारी

मदन कश्यप

राजद्रोही

नित्यानंद गायेन

बाल नरेंदर

संदीप तिवारी

तानाशाह

अरमान आनंद

पिता की मूँछ

आलोक आज़ाद

नोटबंदी

रजनीश संतोष

चींटियाँ

महेश आलोक

बाँकपन

स्वप्निल श्रीवास्तव

राजा और हम

हरे प्रकाश उपाध्याय

तानाशाह के बावजूद

विश्वनाथ प्रसाद तिवारी

हिटलर

प्रमोद बेड़िया

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