जैनेंद्र कुमार के उद्धरण

धर्म स्त्री पर टिका है, सभ्यता स्त्री पर निर्भर है और फ़ैशन की जड़ भी वही है। बात क्यों बढ़ाओ, एक शब्द में कहो—दुनिया स्त्री पर टिकी है।

स्त्री ही व्यक्ति को बनाती है, घर को—कुटुंब को बनाती है, जाति और देश को भी।

मूल्य आज संपदा और सत्ता के संग्रह का बना हुआ है। धर्म अब वह है जो बताता है कि मूल्य संग्रह नहीं बल्कि अपरिग्रह है। संग्रह में आदमी हर किसी के पास से चीज़ों को अपनी ओर बटोरता है, लेकिन इसमें वह हर किसी के स्नेह को गँवाता भी जाता है। स्नेह को खोकर चीज़ को पा लेना, पाना नहीं गँवाना है। यह दृष्टि धर्म ही देता है और वह भोग की जगह त्याग की प्रतिष्ठा करता है। इसीलिए वह राजनीति और कर्म नीति परिणाम नहीं ला पाएगी जो धर्म नीति से हीन है।
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वैज्ञानिक एकांत में विज्ञान की साधना करता है, प्रचार के लिए कुछ नहीं करता। लेकिन लगता है कि जैसे बाक़ी सारी दुनिया उसकी खोज के आविष्कार को पाने को आतुर है। विज्ञान का अन्वेषित सत्य सहज ही जगत का सत्य बन जाता है। धर्म के सत्य पर प्रवचन होते हैं, शास्त्रार्थ होते हैं, फिर भी लगता है कि वह शास्त्र में रह जाता है, मनों में नहीं लिया जाता, क्यों?
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तुम लोग इज़्ज़तों में और पर्दों में रहकर जाने किन-किन व्यर्थताओं को अपने साथ लपेट लेते हो और उनमें गौरव मानते हो। यह सब तुम लोगों की झूठी सभ्यता है, ढकोसला है। फिर कहते हो, हम सच को पाना चाहते हैं। तुम्हारा सच कपड़ों में है, लिबास में है और सच्चाई से डरने में है।

परिवार मर्यादाओं से बनता है। परस्पर कर्त्तव्य होते हैं, अनुशासन होता है और उस नियत परंपरा में कुछ जनों की इकाई एक हित के आसपास जुटकर व्यूह में चलती है। उस इकाई के प्रति हर सदस्य अपना आत्मदान करता है, इज़्ज़त ख़ानदान की होती है। हर एक उससे लाभ लेता है और अपना त्याग देता है।


यह दुनिया एक है। अनेकों ऐसी-ऐसी असंख्य दुनियाओं में से एक है। मैं उस पर का एक नगण्य बिंदु हूँ। फिर अहंकार कैसा!
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आपसी व्यवहार में जैसे मौन भी बोलता है, वैसे ही भाषा में शब्द का अभाव भी बोलता है। दो या तीन नुक़्ते डालकर जाने हम कितना नहीं कह जाते।
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स्वच्छ और वास्तविक प्रेम इस प्रकार की आधिपत्य आकांक्षा से कुछ संबंध नहीं रखता है। वह 'उस' की प्रसन्नता, उसका सुख, उसके संतोष की ओर सचेष्ट रहता है, उस पर क़ब्ज़ा कर लेना नहीं चाहता।
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उपाय अंततः वही अधिक सार्थक होगा जिसमें सरकारी प्रशासन से आत्मानुशासन के मूल्य पर अधिक बल हो।
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मैं अकेला रहूँगा, क्योंकि मैं न बँधना चाहता हूँ। न बाँधना चाहता हूँ। स्नेह का बंधन ही मेरे लिए हो, क्योंकि वह बाँधकर भी खोलता है।
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संबंधित विषय : अकेलापन
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दार्शनिक जिन्हें सिद्धांत कहता है, राजनेता उनमें वहम देखता है। और राजनेता जिसे पद और प्रभुता मानता है, दार्शनिक उसे माया का खेल और फ़रेब मानता है।
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ज़्यादा बोलने से दूरी बढ़ने लग जाती है। घनिष्ठता में शब्द कम होते जाते हैं।
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संबंधित विषय : शब्द
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जवानों को सबसे अधिक आकर्षण हमेशा आदर्श का ही होता है। समय पर उनमें से उसके लिए विसर्जन न लिया जा सके तो जवान लोग अपने बड़ों को देखकर, फिर अपनी महत्त्वाकांक्षा में बह चलते हैं।।
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संबंधित विषय : समय
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युवकों का उत्साह केवल ताप बनकर यदि न रह जाए यदि उसमें तप भी मिल जाए, तो वह बहुत निर्माणकारी हो सकता है।
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