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विद्यानिवास मिश्र

1926 - 2005 | गोरखपुर, उत्तर प्रदेश

प्रख्यात ललित-निबंधकार, भाषाविद्, साहित्य-मर्मज्ञ, और संपादक। पद्म भूषण से सम्मानित।

प्रख्यात ललित-निबंधकार, भाषाविद्, साहित्य-मर्मज्ञ, और संपादक। पद्म भूषण से सम्मानित।

विद्यानिवास मिश्र के उद्धरण

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जन-रागिनी और उसकी अंत:श्रद्धा जाने कितनी घटनाओं को अपनी गहराई के जादू से दैवी रूप प्रदान कर देती है, इतिहास विफल रहता है, कला समय का आघात बर्दाश्त नहीं कर पाती और साहित्य कभी-कभी पन्नों में सोया रह जाता है, किन्तु लोक-रागिनी का स्वर आँधी-पानी के बीच समय की उद्दाम-धारा के बहाव के बीच, विस्मृति के कितने अभिचारों के बीच भी शाश्वत बना रहता है और यद्यपि यह नहीं पता चलता कि किस युग से, किस घटना से और किस देश से उसका संबंध है और यह भी नहीं पता चलता कि उसके कितने संस्करण अपने-आप अनजाने कण्ठों द्वारा हो गए हैं, पर उसमें जो सत्य सत्त बनकर खिंच आता है, उसे कोई भी हवा उड़ा नहीं पाती, क्योंकि वह सत्य बहुत भारी होता है।

जिन लोगों के मन में केशव के काव्य के बारे में रूखेपन और पाण्डित्य का भ्रम है, उन्हें कदाचित् यह पता नहीं है कि केशव हिंदी के उत्तर-मध्य युग के कवियों में सबसे अधिक व्यवहारविद्, लोक-कुशल और मनुष्य के स्वभाव के मर्मज्ञ कवि हैं।

एक प्रकार से नाम और रूप ही सृष्टि का पर्याय है, नाम सूत्र है, रूप विस्तार है। नाम प्रतीतियों की अविच्छिन्न श्रृंखला है, रूप प्रतीति का एक गृहीत क्षण। नाम सूक्ष्म है, रूप स्थूल।

परंपरा को स्वीकार करने का अर्थ बंधन नहीं, अनुशासन का स्वेच्छा से वरण है।

इस ज़िंदगी को एकदम उतार कर फेंक दें, इसका साहस नहीं, और नई ज़िंदगी बुन सकें, इसके लिए संकल्प है यत्न। केवल शब्द हैं, रो लें या हँस लें या कह कर चुप हो जाएँ।

मृत्यु का आघात जिस करुणा के स्रोत को उद्वेलित करता है, वह करुणा ही सबसे बड़ी मानवीय निधि है।

परंपरा अपने को ही काटकर, तोड़ कर आगे बढ़ती है, इसलिए कि वह निरंतर मनुष्यों को अनुशासित रखते हुए भी स्वाधीनता के नए-नए आयामों में प्रतिष्ठित करती चलती है। परंपरा बंधन नहीं है, वह मनुष्य की मुक्ति (अपने लिए ही नहीं, सबके लिए मुक्ति) की निरंतर तलाश है।

मनुष्य की पहचान निस्संदेह ममता है, पर साथ ही मनुष्यता का माप-दंड भी उस ममता का दान है।

राम का निर्वासन वस्तुतः सीता का दुहरा निर्वासन है।

राम तो लौटकर राजा होते हैं, पर रानी होते ही सीता राजा रामद्वारा वन में निर्वासित कर दी जाती हैं।

खजुराहो स्वयं में एक विश्व है और उस विश्व में जाने के पहले अन्य विश्वों की स्मृति विर्सार्जत करके जाना ठीक होता है।

यौवन के स्वस्थ उपभोग के बिना मनुष्य की जीवन-साधना अधूरी है, इसे कालिदास जानते थे और कालिदास जीवित हैं और केवल जीवित हैं, अब भी शिव के भक्तों के लिये कालिदास आराध्य हैं, क्योंकि कालिदास का यौवन शिव-भक्ति में चूक नहीं बर्दाश्त कर सकता।

मनुष्य का कोई भी इतिहास मलिन नहीं होता, उसका कोई भी दान, यदि वह सचमुच दान है, तो छोटा नहीं होता।

खजुराहो का निर्माता केवल कालजीवी नहीं था, कला-साधक था।

यह सही है कि प्राचीन युग की बहुत-सी रचनाएँ ऐसी भी होंगी, जो अपने लिए लिखी गई होंगी अर्थात् उसके लिखने से अपनी पूजा हुई होगी, आगे आनेवाली पीढ़ी के लिए निजी भोग से कुछ बचा रहा होगा; पर इसका अर्थ यह नहीं है कि उस युग की समस्त देन को बुहारु लगाकर बेतवा की धार में विसर्जित कर दिया जाए, क्योंकि उस युग की नाड़ी की धड़कन यदि कहीं मिल सकती है, तो इन्हीं रद्दी की टोकरियों में।

नैतिकता का उत्कर्ष वहाँ हैं जहाँ से नैतिक-अनैतिक की संधि-रेखा आँखों से ओझल हो जाती है।

क्या कला-कसौटी जनसाधारण की पहिचान नहीं है?

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रूप की उद्भ्रांति से बचने के लिए हमारी आँखों में कोई अंजन नहीं है।

हमारी जो नई पीढ़ी है, वही हमारी पिछली पीढ़ी तक के लोगों की घूँघट के प्रति जो एक नैतिक आस्था है, उसे अत्यन्त उपहासास्पद मानने लगी है।

युग बदलता है तो युग के मान भी बदलते हैं।

साहित्य का कोई भी कृतिकार अपने लिए नहीं लिखता, वह केवल अपनी दाय छोड़ जाता है।

शायद अप्राप्त मिलन ही सुख है, प्राप्त नहीं।

जिस सामंत शब्द के साथ लगी हुई प्रत्येक परंपरा का आज हम चुटकी उड़ाते-उड़ाते महज़ एक फ़्यूडल नाम देकर तिरस्कार कर देते हैं, उसका भी कृतित्व मनुष्य की ऊँची से ऊँची आकाँक्षा को स्पर्श करने वाला है। यह समय के आघात से बचे हुए इन पुरावशेषों में स्पष्ट प्रतिभासित हो जाता है।

श्रीमद्भागवत के गायक परमहंस शुकदेव के समक्ष यदि जल-विहार करने वाली अप्सराओं को कोई लज्जा नहीं सता सकी, तो यह शुकदेव की उत्कृष्ट नैतिकता थी। कला भी नैतिकता की इस उत्कर्ष भूमि पर अवस्थित रहती है, यह स्मरण करते हुए ही उसकी आशंसा या आलोचना करनी चाहिए।

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प्रत्येक कला अपने परिसर और अपनी पिछली परंपरा को लेकर ही प्रस्तुत होती है। इसलिए उसके रस-ग्रहण के लिए भी, उसके देश-काल के प्रति केवल सहानुभूति अपेक्षित होती है, बल्कि साथ ही वह संतुलित विमल दृष्टि भी जिससे उसको आज से जोड़ने में मदद मिल सके।

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दान को दान की मात्रा से नहीं, देने वाले की शक्ति से मानना चाहिए।

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कालिदास के युग की उच्च स्तर की कलाप्रियता तथा आमोदप्रियता आज नहीं है और इसलिए हम नीवीबन्ध के उच्छ्‌वास या विवृतजघना नदी के अंग-विभ्रम का वर्णन पढ़ते ही कुंठित हो जाते हैं।

हम नए इतिहास का निर्माण करने चले हैं, पर हमें उसके आधार का पता नहीं है।

खजुराहो के ऊपर बहुत कम लिखा गया है ओर जो लिखा गया है, वह भी एक प्रकार से लिखा जाता तो उसके साथ अधिक न्याय होता; क्योंकि असमग्र सत्य बराबर असत्य के समान होता है।

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