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त्रिलोचन

1917 - 2007 | सुल्तानपुर, उत्तर प्रदेश

आधुनिक हिंदी कविता के प्रमुख कवि। अपने जनवादी विचारों के लिए प्रसिद्ध। साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित।

आधुनिक हिंदी कविता के प्रमुख कवि। अपने जनवादी विचारों के लिए प्रसिद्ध। साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित।

त्रिलोचन के उद्धरण

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हमेशा पुरानी पीढ़ी नई पीढ़ी से निराश रही है। नई पीढ़ी भी पुरानी पीढ़ी बनकर निराश होती रही है।

शब्दों की शक्तियों का जितना ही अधिक बोध होगा अर्थबोध उतना ही सुगम्य होगा। इसके लिए पुरातन साहित्य का अनुशीलन तो करना ही चाहिए, समाज का व्यापक अनुभव भी प्राप्त करना चाहिए।

कवि जब पाठक की स्थिति में होता है, तब उसकी स्थिति रचना-काल से भिन्न होती है।

हिंदी का रचनाकार इतने-इतने बंधनों में जकड़ा हुआ है कि हम निर्बंध रचना की उम्मीद कर भी नहीं सकते।

समाज की गति के संचालन का कार्य जो शक्ति करती है, वह मुख्यतः प्रतिबंधक नियमों पर बल देती है।

कविता तो एक जीवन को तोड़कर सकल जीवन बनाती है। और जीवन टूटता है, वह कवि का है।

प्रौढ़-वय का शासक अपने को वैसा ही क्रांतिकारी समझता रहता है, जैसा कभी युवावस्था में वह था।

जनभाषा पर कुछ भी कहने के पहले यह भी ध्यान रखना चाहिए कि वह बहता नीर है। केवल सामाजिक संबंधों से ही उसे जाना और पहचाना जा सकता है और विवेकपूर्ण संतुलन से ही उसे काव्य का समर्थ माध्यम बनाया जा सकता है।

यदि मन में शिथिलता, श्रांति या शून्यता हो तो काव्यानुशीलन करना चाहिए।

कभी-कभी विचार-विशेष से आग्रह से भी काव्य समझने में बाधा खड़ी होती है।

ज्ञान, इच्छा और क्रिया जैसे और लोगों में है; वैसे ही रचनाकार और आलोचक में भी।

पूर्व-धारणाओं से काव्यार्थ-बोध में प्रायः बाधा उपस्थित होती है।

कविता अगर बनती जाएगी तो कवि नष्ट होता जाएगा।

किसी भी काव्य का अध्ययन करने से पहले आत्म-परीक्षा कर लेनी चाहिए।

पाठक की ग्राहक कल्पना का विकास प्रत्यभिज्ञा के आश्रय से होता है। जिसकी निरीक्षण शक्ति जितनी विकसित होगी उसकी भावना का भी परिपाक तदनुकूल ही होगा।

किसी भी प्रकार की संकीर्णता काव्य-सौंदर्य को अपहित कर लेती है।

कोई कवि सहज और स्वस्थ रहे तो समझ लीजिए, कुछ क़सर है।

अपनी रचना का पाठक बनकर कवि स्वयं तारतम्य की खोज करने लगता है।

चिंता और उद्विग्नता भी काव्य-सौंदर्य को परिच्छिन्न करती है।

वर्तमान समाज अनेक आदर्शों का रंगमंच बन गया है।

व्यवस्था मनुष्य को नपुंसक बनाती है।

कवि में जिस प्रकार विधायक कल्पना की आवश्यकता है, उसी प्रकार पाठक में ग्राहक कल्पना की आवश्यकता होती है।

समवर्ती अनुभव अपनी अनंतता और व्यापकता में बाह्यतः लक्षणीय नहीं प्रतीत होते।

किसी कवि के प्रति विशेष श्रद्धा दूसरे कवि का स्वरूप-बोध नहीं होने देती।

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धर्मनिरपेक्ष जिसे कह सकें ऐसा कोई आदमी नहीं है।

भाषा समाज में समकालिकता की सीमाओं के भीतर समबोध द्वारा प्राप्त होती है।

हिंदी में कबीर अकेले ऐसे कवि हैं, जो अपने ही कथ्य के कारण महत्त्वपूर्ण हैं।

वस्तुतः आधुनिकता उस नए चरित्र को उभारती है जो समवर्ती जीवन में मिलता है।

लक्षक मन ही लक्षणीयता को परखकर उभारता है।

काव्यार्थ के लिए नियमित रूप से काव्य का पाठ और मनन करना चाहिए।

रचनाकार को पाठकों की आवश्यकता होती है, जिसके निर्माण में उसके समर्थक बराबर योग देते हैं। यह प्रलोभन उपेक्षणीय नहीं है।

यदि मन पर किसी विशेष प्रकार के भावों अथवा विचारों के छाप पड़ चुकी हो तो भी काव्य का पाठ अनुपयुक्त है।

जब कोई अपनी समझ दूसरे को जताने की इच्छा करता है, तब आकार-इंगित-चेष्टा के बाद माध्यम उसका समर्थ सहायक बनता है; वह है भाषा।

काव्य-पाठ करने के पहले मन को प्रत्येक बाहरी प्रभाव से मुक्त कर लेना चाहिए।

शब्दों का व्याकरण से भी ऊपर सामाजिक संदर्भ होता है, जिसका अनुसंधान हर रचनाकार को अलग-अलग करना पड़ता है।

समबोध ज्ञान या अनुभव की उस अवस्था में पुष्ट होता है जो प्रत्येक मन में कल्पना, सूझ या निश्चय के रूप में उदित होता है।

समाजिक उत्तरदायित्व आदर्श-भेद से अर्थ-भेद का व्यंजक पाया जाता है।

परख भी समकालिकता और समबोध से अनुशासित होती है।

कविता द्वारा पेश किया गया चित्र या चरित्र जिस क्षेत्र या वर्ग का होगा यदि उसका निरूपण यथातथ्य हुआ तो कविता निराधार हो जाएगी।

आधुनिक हिंदी वह सामान्य भाषा है, जिसका समाज के अनेक स्तरों पर पार्थक्यविशिष्ट एक सर्वस्वीकृत व्यवस्था-विधान है।

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