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मेहदी हसन : ‘पी के हम-तुम जो चले झूमते मैख़ाने से...’

मैं वर्ष 1977 में झुंझुनू से जयपुर आ गया था—राजस्थान विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में एम.ए. करने के लिए। वह अक्टूबर का महीना होगा, जब रामनिवास बाग़ स्थित रवींद्र मंच पर राजस्थान दिवस समारोह चल रहा था। इसी समारोह के अंतर्गत एक शाम मेहदी हसन के गायन का कार्यक्रम रखा गया था। राजस्थान सरकार ने इस समारोह में मेहदी हसन को ख़ासतौर से आमंत्रित किया था। उन्नीस साल के मेहदी हसन 1947 के बँटवारे में पाकिस्तान चले गए थे। वह तीस बरस बाद अपने वतन लौट रहे थे—वह एक शौक़िया गायक और साइकिल/ट्रैक्टर के मैकेनिक के रूप में पाकिस्तान गए थे, लेकिन अब शहंशाह-ए-ग़ज़ल के रूप में लौट रहे थे।

राजस्थान सरकार ने, जयपुर ने और समूचे राजपूताने ने मेहदी हसन के स्वागत में पलक-पाँवड़े बिछा दिए थे। कार्यक्रम रवींद्र मंच मुक्ताकाश पर था, जो अभी बन ही रहा था। कार्यक्रम-स्थल पर और बाहर अपार भीड़ थी—पूरे रामनिवास बाग़ में लाउड स्पीकर लगा दिए गए थे। मेहदी हसन ने कार्यक्रम की शुरुआत माँड से की—‘केसरिया बालम! आओ नीं पधारो म्हारै देस...’ इसके बाद कोई तीन घंटे तक रामनिवास बाग़ में मेहदी हसन की जादुई आवाज़ की रस-वर्षा होती रही।

मेहदी हसन ख़ासा कोठी में ठहरे थे और स्टेट-गेस्ट थे। जहाँ तक याद पड़ रहा है, उनके साथ उनके दो पुत्र और कुछ और लोग भी पाकिस्तान से आए थे। मैं सुबह ही ख़ासा कोठी पहुँच गया था और उन सबसे शेखावाटी में बात करके घुल-मिल गया था। वे सब शेखावाटी में बात करते थे।

आज भी पाकिस्तान में उनके परिवार के लोग शेखावाटी भाषा में ही बात करते हैं। कार्यक्रम के अगले दिन मेहदी हसन को झुंझुनू जाना था—वहाँ से अपने गाँव लूणा। लूणा मेरे गाँव बगड़ से पंद्रह किलोमीटर दूर था।

क़ाफ़िला अगले दिन झुंझुनू के लिए रवाना हुआ। चार-पाँच गाड़ियाँ थीं, कुछ सरकारी अधिकारी साथ थे। मेहदी हसन ने मुझे अपनी गाड़ी में आगे बिठाया—शायद इसलिए कि मैं शेखावाटी का था और लूणा गाँव कई बार जा चुका था। वह रास्ते भर मुझसे झुंझुनू के बारे में, लूणा के बारे में और बगड़ के बारे में बात करते रहे। मेरे गाँव के कई लोगों को वह व्यक्तिगत तौर पर जानते थे। जयपुर से जब हमने शेखावाटी में प्रवेश किया, तो मेहदी हसन भावुक हो गए—वह बाहर के एक-एक दृश्य को मानो आँखों से पी रहे थे।

रह-रहकर उनकी आँखें छलछला जाती थीं। उस रात मेहदी हसन का क़ाफ़िला झुंझुनू के सर्किट हाउस में रुका। सर्किट हाउस में, मुझे याद है, लोगों का हुजूम उनके स्वागत में उमड़ा हुआ था।

दूसरे दिन सुबह हम लूणा गाँव के लिए रवाना हुए। मेहदी हसन झुंझुनू की एक-एक गली से परिचित थे। राणी सती मंदिर, मोतीलाल कॉलेज से मुड़कर जब गाड़ियाँ मालसीसर रोड पर मुड़ीं तो मेहदी हसन ने गाड़ी रुकवाई। वह रास्ते पर बने एक मज़ार/ख़ानक़ाह तक गए। सज्दा किया और अपने बेटे को कुछ बताते रहे।

लूणा गाँव से पहले रेत के धोरों के बीच एक उजड़ा हुआ पुराना मंदिर था। उन्होंने फिर गाड़ियाँ रुकवाईं। मेहदी हसन जाकर उस मंदिर के प्राँगण में बैठ गए। पहले तो कुछ गुनगुनाते रहे, फिर ज़ार-ज़ार रोने लगे। सब स्तब्ध थे। वह मंदिर के पत्थरों को चूमते जाते थे, रोते जाते थे और रेत को हथेलियों में भरकर किसी बच्चे की तरह देर तक बिलखते रहे। बाद में उन्होंने बताया कि इस मंदिर में अपनी किशोरावस्था में वह भजन गाया करते थे... कोई भजन वह मन ही मन गुनगुनाते रहे, जब तक कि लूणा गाँव नहीं आ गया। 

लूणा मलसीसर रोड पर एक छोटा-सा गाँव है। तीन-चार गाड़ियाँ जब गाँव में आकर रुकीं, तो गाँव भर में हल्ला मच गया—मेहन्द्‌‌यो आयो है, मेहन्द्‌‌यो आयो है!

गाँव के बीचोबीच एक पीपल वृक्ष था। उसके नीचे खाटें बिछाई गईं, गाँव के बूढ़े-युवा-बच्चे औरतें सब भावुक थे। मेहदी हसन बुज़ुर्गों के पाँव छू रहे थे। लोग उन्हें छूकर देख रहे थे। अब तक मेहदी हसन का पुश्तैनी मकान बिक चुका था। उनके दादा का मज़ार टूटी-फूटी हालत में बचा हुआ था। बहुत देर तक मेहदी हसन अपने पितामह के मज़ार के पास बैठे रहे। प्रार्थना करते रहे। उनकी आँखें बार-बार छलछला आती थीं।

फिर उसी पीपल वृक्ष के नीचे महफ़िल जमी। पुरानी बातें याद की जाती रहीं। वहीं पर बाजरे की रोटी, साँगरी का साग, छाछ, राबड़ी, लहसुन की चटनी का दिव्य-भोज आयोजित हुआ। मेहदी हसन की सुगन कँवर बुआ ने हथ-कढ़ी-सौंफ-शराब की मटकी भिजवाई, जिसे काँसे के गिलास में ढालकर पीने के बाद हारमोनियम की खोज शुरू हुई। हारमोनियम मिला जयपाल भंगी के घर। फिर मेहदी हसन ने अपनी मातृ-मिट्टी को अपने सुरों से नवाज़ा। 

वह गाते रहे—माँड तरह-तरह की... मारवाड़ की, शेखावाटी की, जयुपरी माँड, जोधपुरी माँड और पंजाबी टप्पे।

वह दिन-दुपहर शाम मेरे मन में आज तक अंकित है। ऐसे क्षण भुलाए नहीं जा सकते!

झुंझुनू के सर्किट हाउस में लोगों का जमघट था। शाम को वहीं मंच बनाकर मेहदी हसन के गाने का कार्यक्रम रखा गया था। झुंझुनू क्षेत्र के सभी अधिकांश राजनेता, सरकारी अधिकारी और नागरिक मेहदी हसन को सुनने के लिए बेताब थे। मैं सर्किट हाउस के गलियारे में खड़ा होकर सिगरेट पी रहा था कि किसी ने मुझसे कहा कि मेहदी हसन साहब आपको ढूँढ़ रहे हैं। मैं उनके कमरे में गया, वह भी सिगरेट पी रहे थे। मेहदी हसन ने मुझसे कहा कि नीचे सीढ़ियों के पास गाड़ी लेकर मेरा इंतिज़ार करो। मुझे जनसंपर्क विभाग की एक जीप मिली, जिसे मैंने सीढ़ियों के पास लगा दिया। मेहदी हसन साहब आकर जीप में आगे बैठे—मैं पीछे। उन्होंने ड्राइवर से कहा गुदड़ी बाज़ार ले चलो।

गाड़ी झुंझुनू के ताल तक पहुँची थी कि मेहदी साहब ने मुझसे शेखावाटी में पूछा—पोस्ट-ऑफ़िस के पीछे जो एक शराबघर (दारू का ठेका) होता था उसका क्या हुआ?

उस देशी शराब के मशहूर ठेके पर मैं भी कई बार ठोकर खा चुका था। वह ठेका अभी उसी जगह है। जानकर मेहदी साहब हँसने लगे। जीप वहीं रोककर हम पैदल उस ठेके की तरफ़ चलने लगे कि मेरा दोस्त मुमताज़ अली मिल गया—अब वह भी हमारे साथ था। उस ठेके के अंदर एक बड़ा-सा दालान था—वहाँ एक कोने में ईंटों और एक कटे हुए पेड़ के तने पर हम बैठ गए। मेहदी हसन ने केसर-कस्तूरी की फ़रमाइश की। मुमताज़ दौड़कर केसर-कस्तूरी की एक बोतल ले आया और नमक-नीबू में भिगोए हुए हरे चने। हम वहाँ कोई घंटा भर रुके; शराबघर में चहल-पहल थी, लेकिन कोई नहीं जान पाया कि उस जगह मेहदी हसन जैसा अंतरराष्ट्रीय ख्याति का मशहूर गायक बैठा है।

पी के हम-तुम जो चले झूमते मैख़ाने से
झुक के कुछ बात कही शीशे ने पैमाने से

ठीक-ठीक यही ग़ज़ल गुनगुनाते हुए, वह प्रसन्नचित्त मैख़ाने से बाहर निकले थे। बहुत बाद में मुझे मालूम हुआ कि यह ग़ज़ल शाद अज़ीमाबादी की है। यह भी संयोग ही कहा जाएगा कि मेहदी हसन की तरह शाद को भी शहंशाह-ए-ग़ज़ल कहा जाता है।

अब हम गुदड़ी बाज़ार की तरफ़ चले, जहाँ उनकी कोई बहन का घर था। मुमताज़ हमारे साथ था, जो गुदडी बाज़ार के एक-एक घर को पहचानता था। जीप से उतरकर एक पतली गली में हम घुसे थे। एक टूटा-फूटा घर जिसमें टाट के परदे लटक रहे थे। मुमताज़ ने जाकर अंदर बताया तो उनकी बहन भागते हुए बाहर आई और मेहदी हसन से लिपट गई। आँसुओं से दोनों का दामन भीग गया था। इसके बाद हम अंदर जाकर बैठे। मेहदी हसन ने कहा कि खाना यहीं खाऊँगा—बाजरे की रोटी और लहसुन की साग-चटनी बनाओ... मेहदी हसन बच्चों से खेलते रहे, बात करते रहे, जब तक कि पीतल की मोटी थाली में खाना परोसा गया। हमने उसी एक थाली से लेकर खाना खाया—लूणा गाँव के दिव्य भोज की तरह यह भोज भी यादगार था, लग रहा था जैसे बाजरे के आटे को पानी से नहीं आँसूओं से गूँथा गया था! मेहदी हसन कोठरी में अंदर गए और पाँच मिनट में वापस आकर कहा कि चलिए, सर्किट हाउस में लोग इंतिज़ार कर रहे होंगे।
 
सर्किट हाउस में अफ़रा-तफ़री मची थी। सब मेहदी हसन को ढूँढ़ रहे थे। मंच पर स्थानीय कलाकार मेहदी हसन की ग़ज़लों पर हाथ साफ़ कर रहे थे। नौ बज गए थे... इसके बाद बारह बजे तक लोग मेहदी हसन को सुनते रहे—राजस्थानी माँड, ग़ज़लें और फ़िल्मी गीत : 

ज़िंदगी में तो सभी प्यार किया करते हैं
मैं तो मर कर भी मेरी जान तुझे चाहूँगा 

दरअस्ल, मेहदी हसन मूलत माँड-गायक थे। वह मिरासियों-कलावंतों के घराने में पैदा हुए, जहाँ संगीत पेशा भी है और जीवन-शैली भी। माँड राजस्थान का एक मार्मिक राग़ है—लोक और शास्त्र की सीमाओं पर खड़ा हुआ। मेहदी हसन की आवाज़ में दर्द है, रवादारी है और जो मार्मिकता और सजलता है; वह माँड की देन है। वह बेगम अख़्तर की जोड़ के इसलिए थे, क्योंकि बेगम अख़्तर भी अपनी ग़ज़लों को ठुमरी के अंदाज़ में गाया करती थीं। इस वजह से ही वह एक अलग और विशिष्ट गायिका बन सकीं। 

ग़ुलाम अली और जगजीत सिंह जैसे रसीले गायकों से मेहदी हसन जैसे बीहड़-गायक की तुलना नहीं की जा सकती। जगजीत तो मशहूर ही मेहदी हसन की ग़ज़लों को गाकर हुए थे।

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ जिस तरह इस उपमहाद्वीप के शाइर थे, उसी तरह मेहदी हसन भी इस विस्तृत-आर्यावर्त की आवाज़ थे।

मेहदी हसन ने उर्दू की उत्कृष्ट शाइरी को गाया। वह जैसे मीर को गाने के लिए ही बने थे। ग़ालिब को मेहदी हसन ने बहुत कम गाया—गाया भी तो बेमन से। मेहदी हसन का मिज़ाज मीर का मिज़ाज था। वह बड़े गायक ही नहीं, बड़ी शाइरी के भी पारखी भी थे। उन्होंने फ़ैज़ को गाया, फ़राज़ को गाया यहाँ तक कि परवीन शाकिर की कई ग़ज़ल गाईं।

हम दूसरे दिन जयपुर की तरफ़ लौट रहे थे—मेहदी हसन दुखी थे, जैसे उन्हें दूसरी बार निर्वासित किया जा रहा हो। निर्वासन ने भी मेहदी हसन की आवाज़ को मार्मिक बनाने में योगदान दिया।

बेगम अख़्तर के शताब्दी वर्ष (2012) में मेहदी हसन की मृत्यु भी प्रतीकात्मक-सी प्रतीत हुई—ग़ज़ल-संस्कृति-गायकी के अवसान सरीखी... 

मोहब्बत करने वाले कम न होंगे
तिरी महफ़िल में लेकिन हम न होंगे

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