बेवफ़ा सोनम बनी क़ातिल!
                                                     अविनाश
                                                                                                    14 जून 2025
                                                         अविनाश
                                                                                                    14 जून 2025
                                            
 
                                        
                                        ‘बेवफ़ा सोनम बनी क़ातिल’—यह नब्बे के दशक में किसी पल्प साहित्य के बेस्टसेलर का शीर्षक हो सकता था। रेलवे स्टेशन के बुक स्टाल्स से लेकर ‘सरस सलिल’ के कॉलमों में इसकी धूम मची होती। इसका प्रीक्वल और सीक्वल बनाने के लिए प्रकाशक फ़र्ज़ी नाम से अपना गुज़र-बसर करने की चाह रखने वाले लेखक पर दबाव बना रहा होता। मिडिल क्लास घरों में किशोर पुत्र और मध्य वय का बाप दोनों एक-दूसरे से छिपाकर इसके रद्दी काग़ज़ों को पलट-पलटकर अपने अँगूठे चिकने कर रहे होते। दोनों पसीने से लथपथ और अगले पन्ने की नई-नवेली खोजों में सुध-बुध खो बैठे होते, लेकिन दुर्भाग्य से यह इक्कीसवीं शताब्दी का तीसरा दशक है और पल्प साहित्य अब रद्दी काग़ज़ों से उठकर महँगी स्क्रीन्स पर आ गया है।
इस मॉडर्न युग में धीरे-धीरे पल्प के साथ जुड़ा हुआ साहित्य भी रिस-रिसकर ग़ायब हो चुका है और अब जहाँ देखो वहाँ पल्प ही पल्प है। इतनी तादाद में फैली लुगदी का करना क्या है?
लगभग एक दशक पहले, एक एकतरफ़ा आशिक़ की दस रुपये के नोट को नष्ट कर सकने की क़ुव्वत ने किसी सोनम गुप्ता को बेवफ़ा बना दिया था और आज तीन सौ रुपये के रिचार्ज से अनंत (जी) समय तक चलने वाले इंटरनेट ने एक सोनम को क़ातिल मान लिया है।
इंटरनेट ने समय के शिल्प को बदल दिया है। कथानक पर कथानक चढ़ते जा रहे हैं। पूरी संस्कृति इन कथानकों के बोझ से क्षीण होती जा रही है। कोई जीती-जागती संस्कृति किस तरह, कब और क्यों क्षरित हो जाती है—इसका अंदाज़ा भी नहीं लग पाता। सोनम का यह दुर्भाग्य है कि सौभाग्य के इस क्षरण के दोनों छोरों पर वह उपस्थित है।
नील पोस्टमैन ने इंटरनेट से पहले आए टीवी युग को एक वाक्यांश में परिभाषित किया था—अमेरिकी अब एक दूसरे से बात नहीं करते, वे विचारों का आदान प्रदान नहीं करते, वे बस तस्वीरों का आदान-प्रदान करते हैं। वे अच्छे दिखने, सेलिब्रिटीज और ब्रांड-प्रचार के बारे में बहस करते हैं।
कुछ-कुछ ठीक ऐसा ही हाल इंटरनेट आने के बाद हुआ है। यह दुनिया एक बद से बदतर जगह बनती गई। अब भारतीय भी ठहरकर किसी संवेदना में वक़्त नहीं बिताते। वे हर नए, पुराने मामले पर एक मीम शेयर करते हैं। यह मीम उनके भावावेशों में से किसी एक मुद्रा का वर्णन करता है, लेकिन यह वर्णन बस एक वक़्त में ही सही साबित होता है। जॉर्ज ऑरवेल की भविष्यवाणी इस नए युग में उल्टे मुँह गिर गई। एल्डस हक्सले कभी इस समाज में स्थापित नहीं हुए थे। नीत्शे को इस समाज ने दार्शनिक नहीं माना था और अंततः मीम तथा सेल्फ़ हेल्प गुरु ही इस समाज के उद्धारक के रूप में उभरकर आए।
...इस तरह मीम-जगत को प्रसिद्धि मिली। मीम-जगत ने इक्का-दुक्का ख़बरों को भारतीय विमर्श के केंद्र में लाकर खड़ा कर दिया। अगर सामाजिक क्षरण को बख़ूबी समझना है तो समाजविज्ञानियों को मीम का इतिहास खँगालना होगा। इसमें समाज किस पथ पर प्रगतिशील है, यह प्रत्यक्ष हो जाएगा। मीम इस आधुनिक युग की सांस्कृतिक नब्ज़ को पकड़ने वाले सबसे बेहतरीन साधन हैं। साहित्य का लुगदियों से भी निकल जाना और इस लुगदी का मीम के चमकदार कपड़े पहनकर यूँ सबकी नज़रों में पुनर्जन्म पाना, हमारे समाज की दशा-दिशा को दर्शाता है। जब मैं या हम मीम शब्द का प्रयोग करते हैं, तो मीम शब्द प्रत्यंतर और महाअंतर में नई दशाओं को परिभाषित करता है। उसमें अलग-अलग भाव तथा सामुदायिक ढंग से एक सहज समझ उपस्थित होती है। इस सामुदायिक समझ में क्या सही, क्या ग़लत; यह अलग मामला है, लेकिन शब्दों की अंत्येष्टि ने; मीम जैसे भावनात्मक टूल्स को जन्म दिया, जिसे शब्दों की जगह प्रयोग किया जाने लगा। विचार प्री-कोडेड, एम्बेडेड किट्स में आने लगे और इस तरह मीम ने पूरे युग पर एक आधिपत्य पा लिया; जिसमें सहमति अपने आप पा ली गई।
भारतीय मानस में गहरी पैठी पितृसत्तात्मकता धीरे-धीरे स्त्री-द्वेष में तब्दील होती गई। मर्द और औरत, जिन्हें एक दूसरे का पूरक होना था; जिनके बीच के अंतर को कम होना था, वहाँ यह खाई पहले से कहीं ज़्यादा गहरी होती चली गई। किशोर अब किसी भी मामले को तूल देने लगे। वे नई गढ़ी समझ और अपने परिवेश की परिभाषाओं में स्त्रियों के लिए नई गालियों को उजागर करते। इस बदलाव के पीछे एक पूरे युग की कारस्तानियों का हाथ रहा आया।
स्त्री को सदैव सेक्स के प्रिज़्म से देखने वाला मर्द—नब्बे के बाद सामने आई—पश्चिम से आयातित बराबरी की विचारधारा को काउंटर नहीं कर पाया। वह मूल रूप से इस बदलते समीकरण का मूक दर्शक बनकर रह गया। उसे यथास्थिति को स्वीकारना पड़ा। उसकी वासनाओं के क़िस्से अब खुलेआम सुनाए जाने लगे या सुनाए जा सकते थे। स्तनों के उभार, पृष्ट-भाग और गुदा की दरार को निहारने का आदी मर्द अब सतर्क होने लगा। उसे भय सताने लगा। वह सहम चुका था कि कहीं इस नए सामाजिक ऑर्डर में वह अछूत न मान लिया जाए।
अपने अस्ल रूप को उजागर न करने के क्रम में, मर्द ने अपनी कुंठित आकांक्षाओं को छुपाना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे वह इसमें सिद्धहस्त होने को ही था कि डिजिटल युग ने दस्तक दी। अब उसके पास एक नक़ाब था। नक़ाब के पीछे पोषित होने वाला मर्द समाज के भय से मुक्त हो गया। उसे इस नक़ाब के प्रयोग से ख़ुद से अलग दिखने, समझे जाने और कोई उँगली न उठने की आज़ादी मिल गई। वह अब उद्दंड हो सकने की आज़ादी को अपना मूल अधिकार मान बैठा। उसने अब अपनी उन दबी-कुचली, झुँझलाहट भरी, भद्दी आकांक्षाओं के लिए नए कथानक गढ़ने शुरू किए। अपने मन में गहरे पैठे मैल को बायोलॉजी के नियमों की आड़ में बढ़ाने लगा। वह जीवविज्ञान से सामाजिक विज्ञान की रूपरेखा बनाने की जुगत में लग गया।  पहले-पहल तो उसे दर्शक नहीं मिले। उनकी सीमित आबादी सीमित ही रही। फिर आया अकेलेपन का दौर—फ़ेमिनिज़्म का सामाजिक सांस्कृतिक असर।
स्त्रियाँ अब पुराने बंधनों से मुक्त हो रही थीं। वे मर्दों को न जाने कब ग़ैर-ज़रूरी मानने लगीं। मर्द अपनी इस ग़ैर-ज़रूरत को किसी भी शर्त पर बताने के क़ाबिल नहीं रहा। वह अपने भीतर दबता गया और दबता गया और... उसने उस मलबे जैसे जैव और सामाजिक विज्ञान के मिश्रण को पुनः परिभाषित किया। इस अतीत हो चुके दर्शन को नए मुहावरों में गढ़ने वालों को अब बड़ी तादाद में नया दर्शक वर्ग मिलने लगा। एक क्षुद्र दर्शन अब केंद्रीय पटल पर चिग्घाड़ने लगा। कुछेक घटनाओं को टूल बनाकर पुरुषों को विक्टिम बनने का मौक़ा मिल गया और अब मर्द शिकार था। इतिहास की कथाओं को पुनर्नियोजित किया जा रहा था। पहली दफ़ा शिकारी (स्त्री) अपनी दबी आवाज़, मीम-संवेदनाओं तथा शाब्दिक चुप्पी के माध्यम से अपना इतिहास सदा-सदा के लिए दर्ज करा रही थी।
अब हम इस क्रम में काफ़ी आगे आ चुके हैं। इन कुंठाओं से जिन्हें मुक्ति भी मिल चुकी थी, वे भी इन घटनाओं के बहुचर्चित होने पर अपने विचार बदलने लगे। 
मर्द होना—अस्ल में एक आईडेंटिटी क्राइसिस हो चुका है। उसे अपनी एक ऐसी जगह बनानी है, जिसमें उसे ख़ुद का ग़ैर-ज़रूरी होना न अनुभव हो और ऐसे में अल्फ़ा होने की होड़ है... बन सके तो बन जाओ। अल्फ़ा न बन सका, तो मर्द अत्यंत कमज़ोर; इन पक्षपाती क़ानूनों का ग़ुलाम और समाज में बिना किसी जगह के, बिना किसी पहचान के जीने वाला जीव बन जाएगा। वह बेहद कमज़ोर हो जाएगा और उसके पास एकमात्र विकल्प होगा कि वह विक्टिम बन सकता है। इस विकल्प के चारों ओर फैली चहारदीवारी उसे मजबूर करती है कि वह नीले ड्रम में गोते लगाए, एलिमनी के आलाप लगाए—क्योंकि सभी सोनम क़ातिल हैं, और मर्द अब बेहद कमज़ोर हो चुका है।
                                    
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