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‘अब सनी देओल में वो बात नहीं रही’

‘बॉर्डर 2’ का विचार सुनते ही जो सबसे पहला दृश्य मन में कौंधा, वह बालकनी में खड़े होकर पिता का कहना था—‘अब सनी देओल में वो बात नहीं रही।’ इस वाक्य में सिर्फ़ एक अभिनेता का अवसान नहीं था, एक पूरे युग की थकान थी। मुझे भी ‘बॉर्डर 2’ का विचार किसी लालटेन पर एलईडी फ़िट करने जैसा ही लगा। यहाँ रोशनी होगी, लेकिन गर्मी नहीं। वह आग नहीं देगी, सिर्फ़ चार्जिंग पोर्ट देगी।

इस प्रकार के प्रकाश से पूर्व देश इंडिया शाइनिंग के पहले चरण में था और भारतीय मध्यवर्ग अपनी ग़लतियों को देशभक्ति से ढकना सीख रहा था। असुरक्षाओं का विस्फोट सिनेमा-हॉल के भीतर ही नहीं, बाहर भी हो रहा था... इस तरह से बात शुरू की जाए और कहा जाए कि उन दिनों टीवी को रूमानी प्रेम-कहानियों से लगभग एलर्जी हो गई थी। टीवी की पिक्चर-ट्यूब अब तक अमिताभ बच्चन की ‘दीवार’ और रेखा की ‘सिलसिला’ देख-देखकर इतनी पक-चट चुकी थी कि उसे माधवन का कहना—‘रहना है तेरे दिल में’—ढंग से पच नहीं पा रहा था। जन प्रेम को सीरियल के सस्पेंस की तरह नहीं, सनी देओल के घूँसे की तरह देखना चाहते थे—पसीने में भीगा, क़ानून की किताब से छलका, हाथ में लोहे की रॉड और मुँह में ‘तारीख़ पर तारीख़!’ लिए हुए...

टीवी और समाज—दोनों ही तब संक्रमण में थे। इस संक्रमण का कोई आरटी-पीसीआर टेस्ट नहीं था। इतना तय था कि हमारी उम्र की जेब में इश्क़ के लिए जगह बहुत कम थी और ग़ुस्से के लिए बहुत ज़्यादा, क्योंकि प्रेम उस समय मुट्ठी भींचकर जताया जा रहा था। ...और वह भी इस अदा के साथ कि जैसे कोई कर्फ़्यू में छत से पतंग लुटा रहा हो—डरते हुए, लेकिन पूरे विश्वास के साथ। 

मुहब्बत का कैरेक्टर, आर्टिस्ट—तब एक ऐसा नायक था जो 120 रुपये मासिक डिश-केबल-बिल पर ज़ी सिनेमा से लेकर स्टार गोल्ड तक मँडराता था। कहना न होगा—हमारी उम्र के लिए यह अभिव्यक्ति का प्रयोगवादी दौर था और इस अभिव्यक्ति के कुछ तयशुदा किरदार थे। 

इस स्थानीयता में मेरे नायक का प्रेम कोमल नहीं था—‘बेताब’ था... ‘ज़िद्दी’ और ‘घायल’। अश्व उसका पसंदीदा पशु था... सनी देओल!

सनी देओल, जो ‘बेताब’ था, लेकिन आशिक़ नहीं दिखता था। वह घोड़े पर बैठकर आता तो था, लेकिन उसके हाथ में गुलाब नहीं होता था। वह प्रेम की सीटी बजाते हुए आने वाला लड़का नहीं था, बल्कि प्रेम का इक्का फेंकते ही टेबल पलट देने वाला मर्द था। [माफ़ कीजिएगा, यहाँ ‘मर्द को दर्द...’ वाली बहस में मत पड़िएगा!]   

मैं जवान हो रहा था। दुनिया छोटी थी। मेरे बिंब कमज़ोर थे। हालाँकि मैं इतना भी जवान नहीं हो रहा था कि तनुश्री दत्ता को देखकर मस्तिष्क में डोपामाइन का स्त्राव होने लग जाए। मैं—इतना ही जवान हो रहा था कि रानी मुखर्जी बुआ सरीखी और सुनील शेट्टी मामा लगने लगे। ऐसे में एक नायक जो ज़ेहन में बरक़रार था, उसका सिरा थे—मोहम्मद अज़ीज़। 

दृश्य : पीले सूट में श्रीदेवी कोई पत्र पढ़ रही हैं। बैकग्राउंड में मोहम्मद अज़ीज़ की आवाज़ में एक आहट बजती है—‘सावन के झूलों ने मुझको बुलाया, मैं परदेसी घर वापस आया...’ 

मोहम्मद अज़ीज़ की आवाज़ एक उच्छृंखल प्रेमी की आवाज़ है। प्रेमियों पर उच्छृंखलताएँ फबती है। लूप में लुप्त होते हुए नागरिक-संस्कार की काट प्रेम ही तो है। वह दुनिया की विवश-उपचारात्मक सलाहों की काट भी है। इस धीर-गंभीर नायक को देखकर श्रीदेवी चौंकती हैं। श्रीदेवी का चौंकना बेहद मौलिक है। इसे सीखा नहीं जा सकता। यह बस दे दिया गया है। इस प्रकटीकरण के नेपथ्य में प्रभु-प्रकाश [Epiphany]  है। रघुवीर सहाय की कविता याद है? याद है : 

दे दिया जाता हूँ

मुझे नहीं मालूम था 
कि मेरी युवावस्था के दिनों में भी 
यानी आज भी 
दृश्यालेख इतना सुंदर हो सकता है :
शाम को सूरज डूबेगा 
दूर मकानों की क़तार 
सुनहरी बुंदियों की झालर बन जाएगी 
और आकाश रंगारंग होकर 
हवाई अड्डे के विस्तार पर उतर आएगा 
एक खुले मैदान में हवा फिर से मुझे गढ़ देगी 
जिस तरह मौक़े की माँग हो :
और मैं दे दिया जाऊँगा। 

इस विराट नगर को चारों ओर से घेरे हुए 
बड़े-बड़े खुलेपन हैं, 
अपने में पलटे खाते बदलते शाम के रंग 
और आसमान की असली शक्ल
रात में वह ज़्यादा गहरा नीला है और चाँद 
कुछ ज़्यादा चाँद के रंग का 
पत्तियाँ गाढ़ी और चौड़ी 
और बड़े वृक्षों में 
एक नई ख़ुशबूवाले गुच्छों में सफ़ेद फूल 

अंदर, लोग;
जो एक बार जन्म लेकर 
भाई-बहन, माँ-बच्चे बन चुके हैं 
प्यार ने जिन्हें गलाकर 
उनके अपने साँचों में 
हमेशा के लिए ढाल दिया है 
और जीवन के उस अनिवार्य अनुभव की याद 
उनकी जैसी धातु हो 
वैसी आवाज़ उनमें बजा जाती है

सुनो सुनो, बातों का शोर;
शोर के बीच एक गूँज है 
जिसे सब दूसरों से छिपाते हैं
—कितनी नंगी और कितनी बेलौस!—
मगर आवाज़ जीवन का धर्म है 
इसलिए मढ़ी हुई करतालें बजाते हैं 
लेकिन मैं, 
जो कि सिर्फ़ देखता हूँ, 
तरस नहीं खाता, न चुमकारता, 
न क्या हुआ क्या हुआ करता हूँ

सुनता हूँ, और दे दिया जाता हूँ
देखो, देखो, अँधेरा है
और अँधेरे में एक ख़ुशबू है किसी फूल की 
रोशनी में जो सूख जाती है 

एक मैदान है 
जहाँ हम तुम और ये लोग सब लाचार हैं 
मैदान के मैदान होने के आगे
और खुला आसमान है 
जिसके नीचे हवा मुझे गढ़ देती है 
इस तरह कि एक आलोक की धारा है 
जो बाँहों में लपेटकर छोड़ देती है 
और गंधाते, मुँह चुराते, टुच्ची-सी आकांक्षाएँ बार-बार 
ज़बान पर लाते लोगों में 
कहाँ से मेरे लिए दरवाज़े खुल जाते हैं 
जहाँ ईश्वर और सादा भोजन है और 
मेरे पिता की स्पष्ट युवावस्था
सिर्फ़ उनसे मैं ज़्यादा दूर-दूर तक हूँ 
कई देशों के अधभूखे बच्चे 
और बाँझ औरतें, मेरे लिए 
संगीत की ऊँचाइयों, नीचाइयों में गमक जाते हैं 
और ज़िंदगी के अंतिम दिनों में काम करते हुए बाप 
काँपती साइकिलों पर 
भीड़ में से रास्ता निकालकर ले जाते हैं 
तब मेरी देखती हुई आँखें प्रार्थना करती हैं 
और जब वापस आती हैं अपने शरीर में, 
तब वह दिया जा चुका होता है
किसी शाप के वश बराबर बजते स्थानिक पसंद के परेशान संगीत में से 
एकाएक छन जाता है मेरा अकेलापन 
आवाज़ों को मूर्खों के साथ छोड़ता हुआ 
और एक गूँज रह जाती है शोर के बीच 
जिसे सब दूसरों से छिपाते हैं

नंगी और बेलौस, 
और उसे मैं दे दिया जाता हूँ।

बहरहाल, मिट्टी के घर में—छप्पर के नीचे प्रेमिका के माथे से पसीना पोंछने वाला प्रेमी सनी देओल मुझ तक पहुँच चुका था। मेरे साथ वह उनका भी नायक हो रहा था, जो परिवारों की हैसियत में परस्पर अंतर के बावजूद परस्पर प्यार में पड़ जाते थे/हैं। 120 रुपये के मासिक भुगतान का नतीजा यह था कि स्टार गोल्ड पर ‘घातक’, ज़ी सिनेमा पर ‘इंडियन’ और सेट मैक्स पर ‘नरसिम्हा’ के रूप में सनी देओल मुझसे बार-बार मिल रहा था। सनी देओल से जुड़ने के लिए ये तीन फ़िल्में ही काफ़ी थीं। लेकिन उसे कुछ और भी करना था... मसलन—उसे ‘घायल’ और ‘दामिनी’ और ‘ज़िद्दी’ में इंसाफ़ माँगते हुए पसीने में भीगना था, ‘डर’ में सीधा-सरल हो जाना था, ‘सलाखें’ में जनशत्रुओं को ‘नहीं रहे’ की स्थिति तक पहुँचाना था, फिर ‘गदर’ में हैंडपंप उखाड़ना था...  

सनी देओल को बार-बार अदालत में खड़ा होना था। उसे भारतीय समाज के दबे-कुचले मध्यवर्गीय क्रोध और कुंठा का एक बिंब होना था। वह प्रेमी नहीं था, लेकिन प्रेम के प्रति ईमानदार था। वह एक ऐसा मज़दूर था, जिसे यूनियन का भरोसा नहीं था। वह जिन लड़कियों से प्यार का इज़हार करता था, मैं उनसे कहना चाहता था कि तुम्हें हेलमेट पहन लेना चाहिए। उसके लिए प्रेम ‘लॉन्ग ड्राइव पे चलते हैं...’ का उत्साह नहीं था। उसके लिए प्रेम ‘तेरा मुझसे है पहले का नाता कोई...’ सरीखा अंधविश्वास भी नहीं था। उसके लिए प्रेम था—‘जा साले! अब तुझे मैं छोड़ूँगा नहीं।’ उसके ग़ुस्से में ग्लैमर नहीं, गाँव था। 

सनी देओल एक ऐसा प्रेमी था; जो ‘प्रपोज़’ नहीं करता था, बस ‘डिक्लेयर’ कर देता था—‘मैं तुझसे प्यार करता हूँ।’ यह प्रेम में होलटाइमर होना नहीं था। यह वॉइस क्रैकिंग, वियर्ड और टीशर्ट-फाड़ प्रेम था। इसमें लड़की के ‘हाय’ कहने से पहले ही, उसका भाई पीटा जा चुका होता था। 

मेरे पिता ‘हर क़दम पर क़ातिल है कोई...’ गुनगुनाते थे। वह न जाने क्यों ‘अर्जुन पंडित’ देखकर ख़ुश होते! शायद उनके भीतर का पुरुष, अपने भीतर की असहज स्त्री को चुप कराना चाहता था या शायद उनके भीतर का पुरुष किसी स्त्री से परेशान होना और परेशान करना चाहता था।  

मैंने जब शराब सीखी तो सोचने लगा कि मैं उतनी शराब कब पी सकता हूँ, जितनी ‘नरसिम्हा’ में सनी देओल ने पी थी!

सनी देओल तमाम शोरगुल लिए हुए जेनरिक सिट्रीज़ीन जैसा बेअसर नहीं था। उसके पास ग्रीक-गॉड जैसी छवि नहीं थी। उसकी मौजूदगी में कोई कृत्रिमता नहीं, अलबत्ता एक संकोच था। उसकी देह धड़धड़ाती हुई भारतीय मिट्टी से सनी लगती थी—मज़बूत और ख़ुरदरी। मस्कुलर होते हुए भी सनी देओल तराशी गई मांसपेशियों का मालिक नहीं लगता। उसकी कला किसी संस्थान से सीखी हुई तकनीक नहीं लगती। ललकार उसकी देह-भाषा का ठोस सत्य था और संकोच उसकी आँखों की विवशता। ग़ुस्से से तमतमाते नथुने—सब कुछ इतना स्वाभाविक और इतना कच्चा सनी देओल को ही नसीब था। सनी देओल पार्क के झूले पर बैठकर सस्ती या कम महँगी शाइरी सुनाने वाला, मोमबत्तियों से सजे टेबल पर घुटनों के बल बैठकर गुलाब देने वाला लफ़्फ़ाज़ नायक नहीं लगता था। 

इस सबके बहुत बाद किसी पंद्रह अगस्त या छब्बीस जनवरी के दिन मुझ तक ‘बॉर्डर’ पहुँची। ‘बॉर्डर’—जे.पी. दत्ता की बनाई हुई देशभक्ति की महाकाव्यात्मक भूलभुलैया। सनी देओल उसमें ऐसा लगा, जैसे भीष्म पितामह को बुलेटप्रूफ़ जैकेट पहना दी गई हो। ‘बॉर्डर’ के बाद सनी देओल कुछ भी हो सकता था—देश, धर्म, धरती, दलित, दमित—सब कुछ। उसकी आँखों में जो अनुपमेय ग़ुस्सा था; वह सिर्फ़ बम के फटने से नहीं उठता था, वह भीतर के अपमान से भी उबलता था।

अब ‘बॉर्डर 2’ आ रही है... और डर लग रहा है। क्योंकि शायद इस बार देश को कुछ और चाहिए। सनी देओल नहीं चाहिए। वह तो अब 65 के क़रीब हैं और ‘बॉर्डर’ भी अब महज़ भौगोलिक नहीं, एक विचित्र वैचारिक स्थिति है। ‘बॉर्डर’ अपने समय की चालू, लेकिन मौलिक चीख़-चीज़ थी। वह किसी शृंखला की पहली कड़ी या ऋतु नहीं थी। उसे दोहराना वैसा ही होगा, जैसे किसी समाधि पर फ़ोटोशूट करना। सनी देओल और जेपी दत्ता को शायद पता नहीं है कि वीर रस अब सोशल मीडिया की ‘रील’ बन चुका है और सिनेमाई राष्ट्रभक्ति लाइक-क्रिया।

इसे मध्यवर्गीय माँग कहा जाए या कुछ और... लेकिन यह नहीं होना चाहिए। यह नहीं ही होना चाहिए... जैसे सेब पर मोम की परत, तंबाकू में तेज़ाब और होज़री की दुकान पर नायलॉन नहीं बिकना चाहिए; वैसे ही सनी देओल को ‘गदर 2’, ‘बॉर्डर 2’ जैसी फ़िल्में अब नहीं करनी चाहिए। 

‘बॉर्डर’ मेरे बचपन का अंतर्देशीय पत्र था, ‘बॉर्डर 2’ उसे ईमेल बनाने की ज़िद है। वैसे भी ‘बॉर्डर 2’ के इस आगमन-दौर में देशभक्ति अब वैचारिक योगा मैट पर बैठकर ध्यान साध रही है। अब देशभक्ति सनी देओल के गले की फूलती नसों से महसूस नहीं होगी। वह भी जानते ही होंगे कि अब देशभक्ति प्राइम-टाइम एंकर की जैकेट में फँस चुकी है। 

सनी देओल प्रेम में अनाड़ी हो सकता था, लेकिन वह क्या करता? वह तो मूल रूप से प्यार में नहीं प्रतिकार में पारंगत था। यह कैसी विडंबना है कि सनी देओल संसद तो गए, लेकिन उनकी फ़िल्मों का नायक कभी संसद में नहीं जा पाया, संसदीय नहीं हो पाया!  

अब शायद Deol Genes उम्र और समय की सर्द हवाओं की ज़द में है। लॉर्ड बॉबी ज़रूर बीच-बीच में कुछ उम्मीदों की बत्ती जलाते हैं; लेकिन धर्मेंद्र और सनी देओल को देखकर लगता है, जैसे कोई पुराना पेड़ फूल लाने की ज़िद कर रहा हो।

ख़ैर! अंत में ‘डकैत’ का एक गीत बार-बार ज़ुबान पर आ रहा है : 

‘किस कारण नैया डोली, 
नैया में दो प्रेमी खेल रहे थे आँख मिचौली...’

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