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मृदुला गर्ग

1938

मृदुला गर्ग के उद्धरण

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आधुनिक भारतीय साहित्य में प्रेम की अनूठी रचना कोई है तो रवींद्रनाथ ठाकुर की 'शेशेर कबिता'।

आम बोलचाल की भाषा से पात्रों की भाषा एकदम अलग नहीं हो सकती। हुई तो पाठक पात्र से एकात्म नहीं होंगे।

भविष्य को छोड़ दें तो अपने मुल्क का आम सच यह है कि क़रीब-क़रीब हर हिंदुस्तानी औरत का असली माशूक़, उसका बेटा होता है।

जो ऊपरी सतह पर स्पष्ट दिख रहा हो, उससे असंतुष्ट होने पर ही, वैकल्पिक संसार की रचना करने के ख़याल से कोई कलम उठाता है।

माशूक़ वह बला है, जिसमें कोई ख़ामी नज़र नहीं आती, जिससे प्यार के बदले प्यार नहीं माँगा जाता, जो हाड़-माँस का होकर भी अशरीरी होता है, जिसकी हर ख़ता माफ़ होती है, हर ज़ुल्म पोशीदा।

हिंदी में प्रेम के नाम पर लिखा बहुत कुछ जाता है पर उसका ताल्लुक़, ज़्यादातर, कर्तव्य, मोह या श्रद्धा से होता है

अगर बलात्कार को सती-च्युत होना मान कर हिंसा माना जाए तो अन्य हिंसा के शिकार की तरह, बलात्कृत स्त्री में आक्रोश या रोष तो होगा पर अपराधबोध नहीं। हालाँकि मनोवैज्ञानिक दृष्टि से पड़ताल करने पर हमें मानना पड़ता है कि, बलात्कार की प्रक्रिया इतनी जटिल है कि उस पर कोई एकांगी तर्क लागू नहीं किया जा सकता।

इतिहासजनित भ्रम या अहंकार के कारण सामाजिक सांस्कृतिक रूढ़ि या व्यवस्था जिसे असामान्य घोषित करती है, दरअसल वह असाधारण वैचारिक सोच और अनुसंधान हो सकता है।

आप फ्रायड के नियमों को मानें या नहीं, उसका यह महत्त्वपूर्ण योगदान स्वीकार करना होगा कि कोई व्यक्ति पूरी तरह से सामान्य नहीं होता।

लेखक के पास केवल शब्द होते हैं, शब्दों से बनी वह भाषा होती है, जो रसोई से लेकर बूचड़खाने तक उपयोग में लाई जाती है।

सवाल उठता है कि यह कौन तय करेगा कि सामान्य क्या है? सरकार ? समाज? क़ानून? मनोविश्लेषक? या हमें मानना होगा कि असामान्य और सामान्य को अलग करने वाला फ़ासला, बहुत धूमिल और लचीला है। यह सवाल साहित्य को जितना आड़े लेता है उतना ही मनोविज्ञान के सिद्धाँतों को।

प्रेम और स्वाधीनता के बीच जो द्वंद्व देखा जाता है, वह मोह और प्रेम के बीच फ़र्क़ करने के कारण पैदा होता है।

मेरा दावा है कि भावुक इंसान प्रेम कर ही नहीं सकता।

स्व. का विसर्जन करके ही हम पूर्ण रूप से मुक्त हो सकते हैं।

प्रतिरोध, साहित्य का स्थायी भाव है।

मोह में बुराई कुछ नहीं है। वह प्रेम की सीढ़ी का पहला पायदान है। जब मोह सबसे ऊपर वाले पायदान पर पहुँचता है तभी प्रेम कहलाता है। तब तक उसमें करुणा का समावेश हो चुका होता है।

करुणा से संपूर्त प्रेम की अवस्था में पहुँच कर, प्रेमी प्रतिदान नहीं चाहता।

जब दो जन, एक-दूसरे से प्रेम करते हैं, तब भी, अपनी-अपनी ओर से वे एकतरफ़ा प्रेम कर रहे होते हैं। ज़रूरी नहीं है कि दोनों का प्रेम, एक समय में, एक समान भावसंवेग-संपूर्त हो।

जहाँ इच्छा नहीं है, वहाँ अभाव भी नहीं है।

मुश्किल तब होती है जब जवान होने पर माशूक़ किसी और का आशिक बनने पर आमादा हो जाता है।

बलात्कार का चित्रण साहित्य में शुरू से होता आया है पर उसे देखने की दृष्टि में ज़बरदस्त गुणात्मक अंतर आया है। यह अंतर साहित्य में स्त्री की बदलती छवि और स्त्री विमर्श के बदलते रूपको के कारण आया है।

प्रेम बहुत जीवट, हिम्मत, संघर्ष और यातना झेलने का काम है।

आत्म-मुग्ध होने से लेखक उसकी कृति तभी बच सकती है, जब लेखक अपने को उन स्थितियों में शामिल करे, जिनके कारण उसका मोहभंग हुआ है; उस मानसिकता में भी जिससे वह असंतुष्ट हो।

जीवन में एकाध क्षण ही शायद ऐसा होता होगा, जब दो प्रेमी एक जैसी शिद्दत, आवेग और निष्ठा के साथ, एक-दूसरे से प्रेम करते हैं।

भावुक इंसान मोह में फंसता है और बाहर निकल आता है। फिर या बार-बार फँसता-निकलता रहता है या पूरी तरह व्यावहारिक बनकर मोह करना भी छोड़ देता है; आत्म-तुष्ट भाव से गृहस्थी चलाता है और प्रेम के नकारापन पर उपदेश देता है।

दरअसल प्रेम हमेशा एकतरफ़ा होता है।

साहित्य लिखने में जितना त्रास है, उतना तोष भी है। ऐसा होता तो सिर्फ़ आत्मपीड़क किस्म के लोग रचनात्मक लेखन करते।

प्रेम भाव की असली त्रासदी, प्रेमियों की मृत्यु या पीड़क बिछुड़ना नहीं है। असली नासदी यह विडंबना है कि हर मोहग्रस्त इंसान, प्रेम के नाम पर दो-चार सीढ़ी चढ़-उतर कर ऐलान कर देता है कि वह प्रेम कर चुका और इस नतीजे पर पहुँचा है कि, प्रेम भावुकता की निशानी है और स्वाधीनता का हनन करता है। यही नहीं, अपने उथले अनुभव के बल पर, वह, अन्य युवाओं को यह उपदेश देने से भी नहीं चूकता कि वे प्रेम करें तो बेहतर है।

सार्थक साहित्य तभी लिखा जा सकता है, जब हमारा मोहभंग, केवल बाह्य व्यवस्था से होकर, स्वयं अपने से भी हो।

भोग त्याग के बीच का द्वंद्व, साहित्य का अनंत विषय है तो मनोविज्ञान का भी।

भोग त्याग के बीच का द्वंद्व, साहित्य का अनंत विषय है तो मनोविज्ञान का भी।

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