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विनोबा भावे

1895 - 1982 | महाराष्ट्र

विनोबा भावे के उद्धरण

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जीवन के सिद्धांतों को व्यवहार में लाने की जो कला या युक्ति है, उसी को 'योग' कहते हैं। सांख्य का अर्थ है— 'सिद्धांत' अथवा 'शास्त्र' और 'योग' का अर्थ है 'कला'।

कोई भी कर्म जब इस भावना से किया जाता है कि वह परमेश्वर का है तो मामूली होने पर भी पवित्र बन जाता है।

कर्म वही, परंतु भावना-भेद से उसमें अंतर पड़ जाता है। परमार्थी मनुष्य का कर्म आत्म-विकासक होता है, तो संसारी मनुष्य का कर्म आत्म-बंधक सिद्ध होता है।

निष्काम कर्मयोगी तभी सिद्ध होता है जब हमारे बाह्य कर्म के साथ अंदर से चित्तशुद्धि रूपी कर्म का भी संयोग होता है।

कर्मयोगी का कर्म उसे इस विश्व के साथ समरस कर देता है।

खादी द्वारा कला की—जीवित कला की—उपासना होती है।

ज्ञान मंत्र है। कर्म तंत्र है। उपासना दोनों को जोड़ देती है।

कर्त्तव्यहीनता से कर्त्तव्य श्रेष्ठ है। पर कर्त्तव्य से अकर्तव्य श्रेष्ठ।

यदि चित्त एकाग्र रहेगा, तो फिर सामर्थ्य की कभी कमी पड़ेगी। साठ वर्ष के बूढ़े होने पर भी किसी नौजवान की तरह तुममें उत्साह और सामर्थ्य दीख पड़ेगी।

तंत्र के साथ मंत्र होना चाहिए। केवल बाह्य तंत्र का कोई महत्त्व नहीं। केवल कर्महीन मंत्र का कोई महत्त्व नहीं।

हमारी प्रत्येक कृति छेनी बन कर हमारा जीवन रूपी पत्थर गढ़ती है।

शिष्य के ज्ञान पर सही करना, इतना ही गुरु का काम। बाक़ी शिष्य स्वावलंबी है।

समाज अव्यक्त है, अतिथि व्यक्त है। अतिथि समाज की व्यक्त मूर्ति है।

किसी में जीवन की प्रेरणा है तो उसका होना भी उसमें गुण होने का प्रमाण है। गुण है, इसलिए जीवन की आकांक्षा है।

कोश के सभी शब्दों का 'ईश्वर' ही एकमात्र अर्थ है।

सत्ता का अभिमान, संपत्ति का अभिमान, बल का अभिमान, रूप का अभिमान, कुल का अभिमान, विद्वत्ता का अभिमान, अनुभव का अभिमान, कर्तव्य का अभिमान, चारित्र्य का अभिमान—ये अभिमान के नौ प्रकार हैं। पर मुझे अभिमान नहीं है, ऐसा भास होने जैसा भयानक अभिमान दूसरा नहीं है

इस जन्म का जो अंत है, वही अगले जन्म का आरंभ है।

कलियुग कहने वाले को तो 'अंध श्रद्धालु' समझकर आप हँसते हैं, पर पश्चिम वाले कल-युग कहते हैं, तो आप भी कहते हैं। काल हमारी इच्छा और प्रयत्न के अनुरूप बनेगा। काल को मोड़ने की सामर्थ्य तो आपके दृढ़ निश्चय में है।

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मुझसे यदि कोई पूछे कि जीवन किसे कहते हैं तो मैं उसकी व्याख्या करूँगा-संस्कार-संचय।

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