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गणेश देवी

1950 | महाराष्ट्र

समादृत साहित्यालोचक और भाषाविद्। साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित।

समादृत साहित्यालोचक और भाषाविद्। साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित।

गणेश देवी के उद्धरण

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साहित्य एक तरह का ज्ञान है : ब्रह्मांड, प्रकृति, समाज और मनुष्य की मानसिक प्रक्रियाओं के संदर्भ में—मानवीय अस्तित्व का ज्ञान।

भक्ति-काव्य भाषा साहित्यों के उभार का स्वाभाविक परिणाम था।

भारतीय साहित्य यह भी दिखाता है कि बिना सक्रिय आलोचना के भी बहुत महान साहित्य रचा जा सकता है, जैसा भक्ति साहित्य में दिखाई दिया।

ईश्वर की दुनिया और मनुष्य की दुनिया के बीच का स्पष्ट अंतराल, क्लासिकल से उत्तर-क्लासिकल भारतीय समाज में संक्रमण का कारण है।

उपनिवेशवाद सांस्कृतिक निरुत्साह पैदा करता है।

पाणिनी के कहने का आशय है कि ज्ञान को तब तक ज्ञान का दर्जा हासिल नहीं होता जब तक कि उसे सामाजिक स्वीकृति हासिल हो।

बहुभाषाई, बहुसांस्कृतिक शिक्षा वर्तमान में भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी शक्ति है।

भरत के नाट्यशास्त्र में निहित बुनियादी वैचारित प्रवृत्तियों की परीक्षा करने के लिए अरस्तु का काव्यशास्त्र एक सुगम प्रस्थानबिंदु—नाट्यशास्त्र के निरभ्र, गहन जल में ख़तरनाक गोता लगाने के लिए कूदने की एक जगह-जैसा है।

उन्नसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में जब उत्तर-मध्य क्षेत्र की तमाम बोलियों ने अपने-आपको उस भाषा के रूप में संगठित किया जिसे आज हम हिंदी कहते हैं, तो इसकी प्रेरणा इन बोलियों को बोलने वालों से नहीं, बल्कि ईस्ट इंडिया कंपनी से मिली थी।

जिन समाजों में साहित्य की कला को वर्ग/जाति के वर्चस्व को संगठित करने के माध्यम की तरह महत्व दिया जाता है, वहाँ साहित्यालोचना बहुत महत्व प्राप्त कर लेती है।

आलोचना साहित्य के सिद्धांतों का क़ानून बनाने की व्यवस्था होती है।

आधुनिक भारतीय आलोचक द्वारा; उपनिवेश द्वारा प्रस्तावित साहित्यिक मूल्यों के स्तरीकृत ढाँचे का स्वीकरण, उसे यह मानने की ओर ले जाता है कि ‘वास्तविक’ साहित्यिक आलोचनात्मक मुद्दे पाश्चात्य साहित्यिक परंपराओं में पाए जा सकते हैं।

भक्ति जीवन के किसी एक क्षेत्र में सीमित आंदोलन था। यह एक मिश्रित अवधारणा और व्यापक आंदोलन था।

यदि संस्कृत आलोचना जीवंतता से रहित स्थिति में पहुँच चुकी थी, या यह कहना ज़्यादा उचित होगा कि यह कृत्रिम श्वसन प्रणाली के सहारे जीवित थी और यदि भाषाओं के साहित्य ने मज़बूती हासिल करनी शुरू कर दी थी, तो यह समझना मुश्किल है कि किसी भी भाषा ने साहित्यालोचना का विकास क्यों नहीं किया।

जीवनानुभव और औपचारिक ज्ञान के बीच का विभाजन, भक्ति साहित्य के लिए प्रासंगिक आलोचनात्मक विमर्श के जन्म लेने का मूल कारण है।

साहित्यालोचना का संकट उतनी ही गंभीर प्रकृति का है, जितना मौजूदा समय में भारत में दूसरे बौद्धिक क्षेत्रों का संकट।

भारतीय आलोचक, आलोचना के क्षेत्र में संकट के भय से त्रस्त है।

आदर्श काव्य; कवि की अंतःप्रज्ञात्मक तर्क, अंतःप्रज्ञात्मक निर्णय और अंतःप्रज्ञात्मक बुद्धि को प्रदर्शित करता है।

अँग्रेज़ी साहित्यिक शिक्षा अपने साथ पहले अँग्रेज़ी से, फिर यूरोपीय भाषाओं से अँग्रेज़ी माध्यम में—नए साहित्यिक प्रतिरूप और आलोचनात्मक अवधारणाएँ लेकर आई।

भारत के सबसे महान कवि; सामाजिक विमर्श के अरक्षित क्षेत्रों यानी ‘लोक’, महिलाओं, बच्चों, मूर्खों और अज्ञानियों के लिए आरक्षित क्षेत्रों से सबसे अधिक आते हैं।

भाषा साहित्यों का अध्ययन यह दिखाएगा कि भारतीय भाषाओं में साहित्य, विद्रोह का विषय रहा है कि अपना प्राधिकार थोपने का।

वर्तमान क्षण से अलग भविष्य और अतीत की स्पष्ट धारणा—नई भाषाओं के साथ विकसित होती है।

साहित्यालोचना संकटग्रस्त विधेय है।

तथाकथित भारतीय नवजागरण के नेताओं ने आधुनिकीकरण की प्रक्रिया को ‘राष्ट्र के पुनर्जन्म’ के बतौर देखा।

भाषा के मानवीय हुनर होने की अपरिहार्य परिणति है—भाषाई रचनात्मकता।

संगति, विरोध और संतुलन की पुँजीभूत लय ही कोई कलाकार अपने ख़ास माध्यम के ज़रिए रचता है।

भारतीय संस्कति में नई परिस्थितियों के साथ अपनी शर्तों पर सामंजस्य बिठाने की अद्भुत प्रतिभा है।

यथार्थ के प्रवाह पर मस्तिष्क की प्रतिक्रिया का स्थाई संबंध कविता को महान बनाता है।

किसी साहित्य के अतीत की परंपराओं की महज़ व्याख्या करना भी अत्यंत दक्षता की माँग करता है।

किसी कालखंड के बारे में आलोचनात्मक अंतर्दृष्टि से रहित साहित्य का इतिहास, अपने विषय की आत्मा से पूरी तरह अछूता रह सकता है।

अँग्रेज़ औपनिवेशिक अधिकारियों द्वारा भारत के लिए तैयार की गई शिक्षा नीति, सभ्यता में हीनतर नस्लों को सभ्य बनाने के विचार पर आधारित थी।

विद्रोह की भावना भक्ति कविता का सार था।

भक्तिकाल ने भाषा और आत्म की अवधारणाओं में क्रांतिकारी बदलाव किए।

साहित्य के रसास्वादन की वास्तविक प्रक्रिया की तुलना, प्रेमी युगल के संयोग के क्षणों या ईश्वर और भक्त के संयोग के क्षणों से की जा सकती है। ये सब प्रवेश करने और प्रवेशित होने की प्रक्रियाएँ हैं।

तर्क का निष्कर्षात्मक हिस्सा व्यर्थ है, क्योंकि यह निष्क्रिय कयास है।

भाषा साहित्यों के कठोर दृष्टिकोण; और किसी चीज़ की ओर नहीं, बल्कि स्मृतिभ्रंश की ओर संकेत करते हैं।

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