
मनुष्य ने नियम-कायदों के अनुसार; अपने सजग ज्ञान द्वारा भाषा की सृष्टि नहीं की, और न उसके निर्माण की उसे आत्म-चेतना ही थी। मनुष्य की चेतना के परे ही प्रकृति, परम्परा, वातावरण, अभ्यास व अनुकरण आदि के पारस्परिक संयोग से भाषा का प्रारम्भ और उसका विकास होता रहा।

टेलीविज़न पर बड़े कॉर्पोरेट विज्ञापनदाता शायद ही कभी ऐसे कार्यक्रमों को प्रायोजित करते हैं जो कॉर्पोरेट गतिविधियों की गंभीर आलोचनाओं में संलग्न होते हैं, फिर चाहे पर्यावरण के स्तर में गिरावट की समस्या हो, चाहे सेना या औद्योगिक क्षेत्र के कामकाज के तरीक़े पर कोई बात कर रहा हो या कोई, तीसरी दुनिया में होने वाले तानाशाही रवैये के कॉर्पोरेट समर्थन और उनके द्वारा उठाए जाने वाले लाभ पर बात करे।

हमारी ज़मीन में रसायनों का ज़हर इस क़दर फैल चुका है कि प्रकृति का स्वतंत्र जीवन-चक्र अब उसमें चल ही नहीं सकता।

जब आप अपने जीवन, अपनी आदतें, अपने वातावरण को बदलना चाहते हैं, तो आपके साथ समय बिताने वाले लोग बदलने होंगे।

अनुपम मिश्र सरीखा तरल, प्रांजल गद्य अभी बीस साल और लिखा जाए तो लोग समझ सकेंगे कि पर्यावरण संरक्षण जैसा जुमला विकास की लीला का ही अंग है—अवरोध नहीं।

किसी देश की भौगोलिक और वायुमंडलीय परिस्थितियों में कोई परिवर्तन न होने पर भी उसके अंदर ज़बरदस्त सामाजिक परिवर्तन हो सकते हैं।

प्रतिभा तो स्वतंत्रता के वातावरण में ही मुक्त साँस ले सकती है।

कला का स्वाभाविक विकास स्वतंत्र वायुमंडल में हो सकता है—वह सीमा में बाँधी नहीं जा सकती, देश-काल के बंधन भी उसे संकुचित करते हैं, कोयल की भाँति वह अपने स्वरों से धरा-आकाश को भर देना देना चाहती है, लेकिन किसी के आदेश पर तान छेड़ने में उसे संकोच होता है।

हमारा वातावरण निर्धारित करता है कि हम किस तरह के इंसान बन सकते हैं।

नेतृत्व देने की जगह अनुपम मिश्र ने उन तमाम लोगों और संगठनों और संस्थाओं को संबल दिया, जो पर्यावरण की समस्याओं के जंजाल में स्वयं को नाचीज़ और खोया हुआ महसूस कर रहे थे।