
काव्य में, कवि-परंपरा द्वारा प्रयुक्त्त, श्रुतिपेशल और सार्थक शब्द ही प्रयोग करना चाहिए। पदविन्यास की चारुता अन्य सभी अलंकारों से बढ़कर है।

अनुप्रास, यमक, रूपक, दीपक और उपमा-वाणी (काव्य) के ये पाँच अलंकार ही दूसरों द्वारा कहे गए हैं।


वैशिष्टय-प्रदर्शन के लिए किसी गुण या क्रिया के विरुद्ध, अन्य क्रिया का वर्णन हो उसे विद्वान् लोग विरोध अलंकार कहते हैं।

यमक पाँच प्रकार का कहा गया हैः आदियमक, मध्यान्तयमक, पादाभ्यासयमक, आवलीयमक, और समस्तपादयमक।

अनुप्रास अनेक अर्थों वाले होने चाहिए, लेकिन उनके अक्षर भिन्न नहीं होने चाहिए, अर्थात् समान ही होने चाहिए। इस मध्यम युक्ति (मार्ग) से कवियों की वाणी रम्य बनती है।

जिसके शब्द लोकप्रसिद्ध (लोकप्रचलित) हो; पदों की संधियाँ भली प्रकार से मिली हुई हों; जो ओजस्वी, प्रसाद गुणसंपन्न तथा सहज उच्चार्य हो, वही विदग्ध कवियों का वांछित यमक है, अर्थात् विद्वान ऐसे यमक की ही प्रशंसा करते हैं।

साहित्य अपनी चेष्टा को सफल करने के लिए अलंकार, रूपक, छंद, आभास, इंगित का सहारा लेता है। दर्शन विज्ञान के समान निरलंकार होने से उसका काम नहीं चलता।
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शब्दालंकार शब्द के शोभाधायक होते हैं और अर्थालंकार अर्थ के। चूँकि शब्द और अर्थ दोनों मिलकर ही काव्य होते हैं, इसलिए हमें तो शब्दालंकार और अर्थालंकार दोनों ही इष्ट हैं।

नारी में जैसे श्री और लज्जा होती है, साहित्य की अनिर्वचनीयता भी वही चीज़ है। उसका अनुकरण नहीं किया जा सकता, वह अलंकार का अतिक्रमण करती है—वह अलंकार से आच्छन्न नहीं होती।
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विशेषता बताने की इच्छा से इष्ट वस्तु का निषेध-सा करना आक्षेप अलंकार कहलाता है।
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साधु, साधारणत्व आदि गुण यहाँ भिन्न हैं, किंतु उपमेय और उपमान के परस्पर भिन्न होने पर भी वह गुणासाम्य का प्रतिपादन कराता है।

किसी कारणवश लोकोत्तर अर्थ का बोध कराने वाला जो वचन है, चमत्कारिक होने के कारण उसे अतिशयोक्त्ति कहा जाता है।

विशेष गुणासाम्य बताने की इच्छा से, विशिष्ट के साथ न्यून की भी समान कार्यकारिता प्रतिपादित करना तुल्ययोगिता कहलाता है।

