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क़ाज़ी नज़रुल इस्लाम

1899 - 1976 | बर्दवान, पश्चिम बंगाल

'विद्रोही कवि' के रूप में समादृत बांग्ला कवि-लेखक और संगीतकार। बांग्लादेश के राष्ट्रीय कवि।

'विद्रोही कवि' के रूप में समादृत बांग्ला कवि-लेखक और संगीतकार। बांग्लादेश के राष्ट्रीय कवि।

क़ाज़ी नज़रुल इस्लाम के उद्धरण

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संसार में जितनी बड़ी-बड़ी जीतें हुई हैं, बड़े-बड़े आक्रमण हुए हैं, सबको महान बनाया है माताओं, बहिनों और पत्नियों के त्याग ने। किस युद्ध में कितने पुरुषों ने रक्त दिया—यह इतिहास में लिखा हुआ है, लेकिन उसके समीप में यह नहीं लिखा है कि कितनी स्त्रियों ने अपना सुहाग दान किया, कितनी माताओं ने कलेजा निकाल कर दिया, कितनी बहिनों ने सेवाएँ अर्पित की।

पुरुष हृदय था, नारी ने उसे आधा हृदय देकर मनुष्य बनाया।

पुरुष के प्यासे हृदय को मधु से सींचने वाली नारी ही है।

युग का धर्म यही है दूसरे को दी गई पीड़ा उलटकर अपने आप पर पड़ती है।

जिनका सारा शरीर मन मिट्टी के ममता रस से सींचा हुआ है—इस पृथ्वी की नाव की पतवार ही हाथों में रहेगी।

हमारी मृत्यु हमारे जीवन का इतिहास लिखती है

तुम जिसे घृणा करते हो, भाई, जिसे लात मारते हो, हो सकता है, उसके हृदय में दिन-रात भगवान निवास करते हों।

मेरे प्राणों के उजड़ चुके मेले में बिदाई की वंशी बज रही है।

यहाँ हम सभी समान रूप से पापी हैं, अपने पाप के मापदंड से दूसरों के पाप की माप-तौल करते हैं।

  • संबंधित विषय : पाप

तुम्हारे अंदर ही तो सभी पुस्तकें, सारे युगों के ज्ञान भरे पड़े हैं। मित्र, तुम अपने प्राणों के द्वार खोल कर देखो-सभी शास्त्र तुम्हें वहीं मिल जाएँगे। तुम्हारे अंदर सभी धर्म, सभी युगों के अवतार मोजूद हैं। तुम्हारा हृदय विश्व-मंदिर है, जहाँ सभी के देवताओं का निवास है। फिर क्यों अपने भगवान को निर्जीव किताबों के पन्नों में ढूँढ़ते फिर रहे हो? तुम्हारे सजीव हृदय के अंतस्तल में मुस्कुरा रहे हैं।

धर्मांधो! सुनो, दूसरों के पाप गिनने से पहले अपने पापों को गिनो।

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