काका कालेलकर के उद्धरण

भारतीय धर्म ने और भारतीय संस्कृति ने कभी नहीं कहा कि केवल हमारा ही एक धर्म सच्चा है और बाक़ी के झूठे हैं। हम तो मानते हैं कि सब धर्म सच्चे हैं, मनुष्य के कल्याण के लिए प्रकट हुए हैं। सब मिल कर इनका एक विशाल परिवार बनता है। इस पारिवारिकता को और आत्मीयता को को जो चीज़ें खंडित करती है उनकी छोड़ देने के लिए सब को तैयार रहना ही चाहिए। हर एक धर्म-समाज अंतर्मुख होकर अपने दिल को टटोल कर देखे कि जागतिक मानवीय एकता का द्रोह हमसे कहाँ तक हो रहा है।

कट्टरता से धार्मिकता थोड़ी बहुत मज़ूबत होती है, सही, लेकिन, साथ-साथ सच्ची धार्मिकता काफ़ी निष्प्राण हो जाती है। कट्टरता हरेक धर्म के लिए श्मशान भूमि बनती है।
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उपवास करने से चित्त अंतर्मुख होता है, दृष्टि निर्मल होती है और देह हलकी बनी रहती है।



धर्म और रिलिजन' एक नहीं है। ये अलग धर्म, पंथ और संप्रदाय जिस हद तक धर्म या सार्वभौम धर्म का उपजीवन करते हैं उस हद तक ही इन सारे धर्मों की शक्ति और पवित्रता है। इन सारे अलग-अलग धर्मों ने विशिष्ट ग्रंथ, विशिष्ट रूढ़ि और विशिष्ट व्यक्तियों के साथ लोगों को बाँधकर अपने को बिगाड़ दिया है। धर्म के ग्रंथ-परतंत्र, व्यक्ति-परतंत्र, या रूढ़ि-परतंत्र नहीं करना चाहिए था। धर्म के स्वयं-शासित और स्वयंभू रखना चाहिए। हर-एक युग के श्रेष्ठ पुरुषों के हृदय में जो धर्मभाव जाग्रत होता है। उसी के अनुसार सबको चलना चाहिए। ऐसे सारवभौम, सर्वकल्याणकारी, सर्वोदयी धर्म के द्वारा ही व्यक्ति का और समाज का जीवन कृतार्थ होता है।

जब आहार शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक पुष्टि की साधना छोड़कर केवल इंद्रियतृप्ति और विलास का साधन बन जाता है, तब वह खाने वाले को ही खा जाता है।
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धन की बात हम छोड़ दें। जो लोग ईमानदार हैं, सदाचारी हैं, जिनकी नेकी पर समाज का विश्वास है, वे ही समाज का उत्तम धन हैं। लोगों की चारित्र्य-संपत्ति ही किसी भी समाज की पूंजी है।
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अधूरे ज्ञान से उत्पन्न हुए दोषों को दूर करने का उपाय पूर्ण ज्ञान है, अज्ञान नहीं।
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मृत्यु का अखंड स्मरण रखकर ही जो जीता है, वह अपने जीवन का दुरुपयोग नहीं करेगा।
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विवाह संबंध और गृहस्थाश्रम पवित्र इसीलिए माना गया है कि उसमें संगम, परस्परार्पण, त्याग, निष्ठा और सेवा के आदर्श को प्रधानता दी है।
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संबंधित विषय : जीवन
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