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बिमल मित्र

1912 - 1991 | पश्चिम बंगाल

बिमल मित्र के उद्धरण

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जन्म के बाद से मनुष्य लगातार मृत्यु की तरफ बढ़ता रहता है। बीच के ये दो दिन ही उसके कर्म के होते हैं। यह कर्म वह किस तरह करता है, इसी पर उसका मूल्यांकन किया जाता है।

आज के युग में हमारे समान व्यक्ति के लिए अपने अस्तित्व की रक्षा कर लेना ही ऐसी ज़िम्मेदारी हो गई है। कि सत्य बचा या नहीं, धर्म की रक्षा हो पाई या नहीं, यह ध्यान हम रखें कब?

राजनीति से देश का कल्याण होगा, धर्म का डंका पीटने से भी कुछ होगा, अर्थनीति से भी अपनी कमी दूर होगी जन्मभूमि पर प्रेम हो—जीवंत प्रेम। वह प्रेम आत्मा, संपत्ति और संतान से भी बड़ा हो—जिस प्रेम से छोटे-बड़े सब को एक नज़र से देखा जा सके।

अच्छा गृहस्थ, भला सामाजिक मनुष्य, भला देशभक्त होने के लिए शुरू में ही अहं को त्यागना होगा। अहं को त्यागने से ही अहं का विस्तार होता है।

अभाव में, ग़रीबी में, दुःख में, परेशानी में आदमी जो कुछ करता है, उससे उसका मूल्यांकन नहीं किया जाता, यह उसके प्रति अन्याय है।

मृत्यु से ही जीवन को पूर्ण रूप से प्राप्त करना पड़ता है। मृत्यु से ही सार्थकता के चरम लक्ष्य तक पहुँचा जा सकता है।

जो कविता के रस को नहीं समझता, वह अमानुष है।

अन्याय करने वालों का अपराध जितना है चुपचाप उसे बरदाश्त करने वालों का अपराध क्या उससे कम है ?

सम्मान एक बात है और अन्याय दूसरी बात है। सम्मान दिखाने पर ही क्या अन्याय भी सहन करना होगा ?

मनुष्य का आज का धर्म हो गया है—आगे बढ़ते चलो—सबको पीछे छोड़ते चलो—धक्का मारकर, चोट पहुँचाकर—किसी भी तरह बढ़ते चले जाओ।

जहाँ कहानी का अंत होता है, जीवन का अंत वहीं नहीं होता। जीवन विस्तृत-व्यापक होता है।

जो कुछ आँखों से नहीं दीखता, उसे चरित्र द्वारा देखना पड़ता है।

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आश्रय की ज़रूरत जब सबसे ज़्यादा होती है, तब आश्रय कितना दुर्लभ होता है।

पृथ्वी में जितना कुछ सच है, उसमें से मृत्यु ही तो सबकी अपेक्षा बड़ा सच है।

मनुष्य के बाहर का रूप देखकर उसके चरित्र के बारे में निर्णय कर लेना अनुचित है।

जीवन प्रतिकूल भाग्य के साथ संघर्ष करने में है।

दुनिया में जिसे जुआ खेलना आता है वह फूटी हुई पाई लेकर भी खेल सकता है। जो भला होगा और रहना चाहता है, उसके लिए सभी रास्ते खुले हैं।

माँ के लिए ब्राह्मण और शूद्र क्या, माँ तो जगदंबा है, जगत् जननी।

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जीवन सुंदर भी है, कठोर भी।

मनुष्य जितनी देर अहं से जुड़ा हुआ है, उतनी देर वह दोषयुक्त है, लेकिन उसका वह अहं-बोध घटते ही वह देवत्व की ओर अग्रसर होता है।

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