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रांगेय राघव

1923 - 1962 | आगरा, उत्तर प्रदेश

प्रगतिशील कथाकार। कहानी, उपन्यास, नाटक, आलोचना, अनुवाद आदि गद्य विधाओं के साथ-साथ पद्य लेखन में भी प्रवीण। 'मुर्दों का टीला' ख्याति का मूल आधार।

प्रगतिशील कथाकार। कहानी, उपन्यास, नाटक, आलोचना, अनुवाद आदि गद्य विधाओं के साथ-साथ पद्य लेखन में भी प्रवीण। 'मुर्दों का टीला' ख्याति का मूल आधार।

रांगेय राघव के उद्धरण

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स्त्री की बुद्धि चंचल और विनाशकारी होती है।

स्त्री में दो ही चमत्कार हैं, प्रजनन और हृदय।

प्रेम और स्नेह की ज्योति स्त्री के कारण जीवित है।

तुम संन्यासिनी बनो, ताकि यौन जीवन से विरक्ति दिखाकर लोगों को प्रभावित कर सको। तुम वेश्या बनो कि उसी के बल पर जियो।

प्रेम से प्रेम करने वाली आँख का पानी जब घास पर पड़ता है तो ओस का हीरा बनकर चमकता है, जब इंसान पर ज़ुल्म देखा है तो अँगारा बन कर गिरता है, जब दर्द देखकर गिरता है तो लहू की बूंद बनकर, और जब इंसान को भूखा देखता है तो वह गेहूँ बन जाता है। और नफ़रत से प्रेम करने वाली आँखों का पानी जब घास पर पड़ता है तो घास झुलस जाती है, जब इंसान पर ज़ुल्म देखता है तो उसमें बर्फ़ की-सी बे-दिल ठंडक जाती है, जब दर्द देखकर गिरता है तो बंदूक़ की गोली बनकर और जब इंसान को भूखा देखता है तो वह ग़ुलामी का दस्तावेज़ बन जाता है।

भारतीय इतिहास अत्यंत दुर्गम है। इसका शोध केवल इतिहास का विवेचन नहीं है, वह मनुष्य की समस्त वासनाओं और अपूर्णता तथा पूर्णताओं के क्रमिक विकास का अध्ययन है, जो बाह्य रूप में सभ्यता है ओर आंतरिक रूप में अध्यात्म की उन्नति है।

दुःख सत्य नहीं है, दुःख की प्रतीति सत्य है।

  • संबंधित विषय : दुख
    और 1 अन्य

ईमानदारी वैभव का मुँह नहीं देखती, वह तो मेहनत के पालने पर किलकारियाँ मारती है और संतोष पिता की तरह उसे देखकर तृप्त हुआ करता है।

स्त्री मूलतः स्त्री की शत्रु होती है।

यश तो अहं की तृप्ति है।

मृत्यु मनुष्य की पराजय नहीं, पराजय है उसका मृत्यु से डरना।

मुसलमानों का भारतीयकरण नहीं, बल्कि मुल्लावर्ग की विदेशों से प्रेरणा लेकर अपने को विदेशी समझने की भावना और उच्च मुस्लिम वर्ग के ईरानी संस्कृति के उस प्रेम का (जो कि देशी जनता को संस्कृति से सदैव दूर रहने की चेष्टा करता है और भारतीय इतिहास की प्राचीनता और उसकी मानववादी परंपराओं से प्रेरणा नहीं लेता) भारतीयकरण होना चाहिए, क्योंकि यह दोनों धर्म के नाम पर विभिन्न जातीयताओं में बँटी मुस्लिम जनता को ग़लत मार्ग पर चलाकर अपने सामंतीय स्वार्थों को जीवित रखते आए है।

भारतीय संस्कृति सदियों से कहती रही है कि मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु उसकी सम्पत्ति है।

पिंजरा तो सोने का होने पर भी पिंजरा ही रहेगा।

मेहनत से धरती जो देती है, वह सोना बनता है।

जो औरों के लिए रोते हैं, उनके आँसू भी हीरों की चमक को हरा देते हैं।

जिन बातों को मनुष्य भूल जाना चाहता है, वही उसे बार-बार क्यों याद आती हैं? क्या मनुष्य का अतीत एक वह भयानक पिशाच है जो उसके भविष्य में वर्तमान का पत्थर बनकर पड़ा रहता है?

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