किसी के शब्दों की लय में झूलना एक सुखद, लेकिन अचेतन निर्भरता हो सकती है।
मनुष्य की अचेतन क्रिया की यंत्रवत कारीगरी और यांत्रिक साधन ही आगे चलकर स्वतंत्र कलाओं में परिणत होते गए।
सिर्फ़ खाने, पीने, हँसने, सोने में व्यस्त रहने से जीव को मौत भूल जाती है। मौत के भूलने से प्रभु-पति को विस्मृत करके, जीव वो काम करता रहता है जो उसके दुःख का कारण बनते हैं।
चैतन्य को जड़शक्ति का औद्धत्य लील जाने को व्याकुल है।
भाषा का निर्माण उसकी सजग चेतना का परिणाम नहीं, उसकी अचेतन क्रिया का अगोचर प्रयास है।
अचेतन उतना ही तुच्छ और बेतुका है जितना कि चेतन।