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ऑक्सफ़ोर्ड, इलाहाबाद विश्वविद्यालय : कैंपस की कहानियाँ, अँग्रेज़ी संस्कृति और सिनेमा

“मैं हॉस्पिटल में वेंटिलेटर पर ऑक्सीजन मास्क पहने हुए नहीं मरना चाहता, बल्कि नेचुरल डेथ चाहता हूँ, अपनों के साथ रहते हुए। हॉस्पिटल में मरने से पहले जो थोड़ी-सी जीने की ख़्वाहिश बची है, वह भी मर जाती है। इसलिए मैं मरने से पहले नहीं मरना चाहता।” नेटफ़्लिक्स पर हाल ही में आई फ़िल्म ‘माय ऑक्सफ़ोर्ड ईयर’ (My Oxford Year) का किरदार जेमी डेवनपोर्ट इस फ़िलॉसफ़ी के साथ जीता है। वह प्रॉक्सी प्रोफ़ेसर है, जो ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय में विक्टोरियन पोएट्री पढ़ाता है। साहित्य, सिनेमा, संगीत और कला आपको जीवन के प्रति एक गहरा और स्वतंत्र नज़रिया देते हैं और आपके वजूद का मर्म समझाते हैं।

फ़्रांस के मशहूर फ़िल्मकार ज्याँ लुक गोदार्द ने अपने जीवन के आख़िरी पड़ाव पर स्विट्जरलैंड में इच्छा मृत्यु ली। उन्होंने कहा, “मैं पूरे होशो-हवास में दुनिया से विदा लेना चाहता हूँ। मैं नहीं चाहता कि मेरी साँसों और धड़कनों को कृत्रिम यंत्र के सहारे की ज़रूरत पड़े और साँस लेने के लिए मुँह पर ऑक्सीजन मास्क लगाना पड़े।”

एक कलाकार जीवन को असाधारण दृष्टि से देखता है। वह ख़ुशी के साथ ग़म को भी किसी उत्सव की तरह मनाता है। यही फ़लसफ़ा हम ऐसे बड़े संस्थानों में साहित्य के माध्यम से सीखते हैं, जो शायद दुनिया में विरले ही कहीं और सिखाई जाती है, जहाँ जीवन ही नहीं बल्कि मौत को भी रोमांटिसाइज किया जाता है। ये सलीक़ा उन्हीं को मयस्सर होता है जो ‘आर्ट्स’ और ‘एस्थेटिक्स’ को अपने जीवन और कर्मों में आत्मसात करते हैं। साहित्य के बिना एक ख़ूबसूरत दुनिया की कल्पना कर पाना मुश्किल है। नहीं तो जेम्स जॉयस महान् ड्रामानिगार शेक्सपियर के बारे में यह नहीं कहते कि “आफ़्टर द गॉड शेक्सपियर क्रिएटेड मोस्ट।” (ईश्वर ने दुनिया बनाई और शेक्सपियर ने इसे ख़ूबसूरत।) और न ही, महाकवि कीट्स के क़ब्र पर यह एपिटाफ़ लिखा होता कि “हियर लाइज़ वन हूज़ नेम वाज़ रिट ऑन वाटर” (यह एक ऐसे इंसान की क़ब्र है, जिसका नाम पानी की सतहों पर लिखा है।) मृत्यु के बाद भी यह अमरत्व केवल ऐसे फ़नकारों के मुक़द्दर में होता है, जिन्होंने अपने आपको इस विधा में साध लिया है या कीट्स के फ़्रेज़ में कहें तो जिसके अंदर नेगेटिव कैपेबिलिटी जैसा तत्व हो। ऐसे ही तमाम कलाकारों के ज़िंदगी और मौत के हज़ारों क़िस्से हैं जो नई पीढ़ी के लिए किसी कल्चरल कैपिटल की तरह हैं। जिन्हें हम अपने यूनिवर्सिटी और कॉलेज के दिनों में ‘बेड टाइम टेल्स’ की तरह पढ़ते हैं। प्रेम, जीवन, दर्द और तड़प पर उनकी लिखी पंक्तियों को अपने साथियों और प्रेमिकाओं के साथ साझा करते हैं। ऐसी ही एक कविता ज़ेहन में आ रही है जो मैंने फ़िल्मकार गोदार्द के इंतिक़ाल पर ‘एक फ़िल्मकार का आख़िरी दिन’ शीर्षक से लिखी है :

सुबह नींद नहीं खुलनी चाहिए,
कहा अपने सहयोगी से गोदार्द ने
दिन भर व्यस्त रहे,
किताबों पर पड़े धूल झाड़े
सार्त्र को पढ़ा,
पुराने रिकॉर्ड पर अपनी म्यूज़ अन्ना करीना की फ़िल्में देखीं
शाम को बालकनी में बैठकर,
प्रकृति की तरफ़ निहारते हुए सिगार पीते रहे
दो पेग वाइन लेकर रात्रि का भोजन किया,
नेरुदा की कविताएँ पढ़ीं
और बिस्तर पर अनमने ढंग से पड़े ओपेरा सुनते रहे
आख़िर में उन्होंने अपने सहयोगी से कहा,
“ओपेरा बजने देना, मैं संगीत सुनते हुए दुनिया को अलविदा कहना चाहता हूँ।”
वो उनके पास बैठा और तफ़सील से पूछा, कुछ कहना है?
गोदार्द पहले चुप रहे, फिर उन्होंने बड़े मुश्किल से कहा,
“कह देना मैं उन्हें गुड बाय नहीं कह पाया,
जिसकी एक झलक के लिए कभी मीलों पैदल चला जाया करता था,
आज भी उन्हें उतना ही प्रेम करता हूँ।

एक कलाकार ही इतने सलीक़े से दुनिया को अलविदा कह सकता है, ख़ासकर वह जिसने जीवन को अपनी शर्तों पर जिया हो। दुनिया जब एक कलाकार के आँखों के सामने सिमटती या ओझल होती है, तो मन में संतोष का भाव होता है। अंदर कोई ख़ालीपन नहीं होता, बल्कि लगता है कि भरपूर जिया। अपनी एक दुनिया बनाई, कुछ रचा, प्रेम किया, कुछ यादें संजोई। असल में, वर्तमान ही जीवन है। जो पीछे छूट गया, उसका कोई पछतावा नहीं; बल्कि गठिया कर भूले बिसरे यादों की पोटली में रख लिया है, जो शायद एक दिन साथ ही दफ़न हो जाएँगी। एक लम्हा जो हमने जिया, उसे वक़्त भी हमसे नहीं चुरा सकता। जीवन न तो अतीत में है, न ही भविष्य में। बस जिस पल हम जी रहे हैं, वही है। उससे इतर कुछ भी नहीं, और निहित उसी में हमारे जीवन का मर्म है।

‘माय ऑक्सफ़ोर्ड ईयर’ फ़िल्म में अमेरिका से ऑक्सफ़ोर्ड पढ़ने आई एना डी ला वेगा स्वभाव से रोमांटिक है। उसने अपने जीवन में हर एक चीज़ प्लान कर रखी है। उसे साल भर कैसे जीना है, कौन-कौन-सी जगहें टहलनी हैं; सब कुछ उसने अपनी डायरी में लिख रखा है। वह ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय में पहुँचकर बहुत उत्साहित है। लेकिन कैंपस लाइफ़ की अपनी अलग डेस्टिनी होती है। लाइब्रेरी में कौन-सी किताबें आपको चुनेंगी? कैंटीन पर आपकी नज़रें किससे टकराएँगी? किसे अपने बैचमेट से प्रेम होगा? किसे अपनी जूनियर या सीनियर पसंद आएगी? कितनों का दिल टूटेगा? कहाँ किससे मुलाक़ात होगी? अगर किसी से प्रेम हुआ तो क्या वह रेसिप्रोकेट करेगा? अगर बात बन गई तो पहला किस कहाँ होगा, लाइब्रेरी में या थिएटर में ‘रोमियो जूलियट’ देखते समय या ‘हैमलेट’? पहली बार कोई लड़का किसी लड़की का हाथ कहाँ पकड़ेगा? किस पार्क में बैठकर कॉलरिज और वर्ड्सवर्थ की बातें होंगी? किसको कीट्स की तरह प्लेटोनिक प्रेम करना है, और किसको जेन ऑस्टेन के ‘प्राइड एंड प्रेज्यूडिस’ की तरह अपने लिए कोई अच्छा लड़का ढूँढ़ना है? कौन-सा लड़का किस लड़की को सेड्यूस करेगा? किस लड़की को लॉरेंस की उर्सुला बनना है? या किसे आगे चलकर मादाम बोवारी या लेडी चैटरलीज़ लवर बनना है? कितनी कहानियाँ बनने से पहले ही ख़त्म हो जाएँगी। कितने एकतरफ़ा प्यार और टूटे दिल के साथ यहाँ से विदा लेंगे। कितनों को अपने सपनों का राजकुमार यहीं मिलेगा। ऐसी अनगिनत सवालों की गुत्थियाँ। कुछ सुलझेंगी, कुछ ऐसे ही ताउम्र सवाल बनकर अतीत के गर्त में खो जाएगी या आने वाली अगली नस्लों में तामील होंगी। ये सारी बातें अँग्रेज़ी साहित्य पढ़ने वाले हर लड़के या लड़की की ज़िंदगी से होकर गुज़रने वाली हैं। ऑक्सफ़ोर्ड जैसे संस्थान दुनिया भर में अपने अध्यापन के लिए जाने जाते हैं, ख़ासकर अँग्रेज़ी साहित्य के पठन-पाठन के क्षेत्र में उसकी अग्रणी भूमिका रही है। कई सदियों का इतिहास। दुनिया के कई महान् लेखकों की पांडुलिपियाँ, कीट्स के हाथ से लिखे हुए अपनी प्रेमिका फैनी ब्राउन के प्रेम पत्र, कई लेखकों का पहला संस्करण, शेक्सपियर के फ़ोलियोस। एक पूरी रोमांटिक लेगेसी, जिसमें ऐसे नाम हैं जिन्होंने समूची मानवता को प्रभावित किया है।

‘माय ऑक्सफ़ोर्ड ईयर’ फ़िल्म में विश्वविद्यालय में दाख़िल होने के बाद एना को जिस लड़के से प्रेम होता है, उसकी ज़िंदगी महज़ साल भर की होती है। प्रेम में पड़ने के बाद जब उसे पता चलता है कि जेमी को कैंसर है, तो वह निराश ज़रूर होती है, लेकिन स्वभाव नहीं बदलती। एक प्रेमिका का स्वभाव, जो यथार्थ और रोमांस को बख़ूबी समझता है, और बहुत कुछ अपने यादों के इनसाइक्लोपीडिया में समेट लेना चाहता है। शेक्सपियर, बायरन, कीट्स, टेनिसन और सिल्विया प्लाथ को पढ़कर जो हम अनुभव करते हैं, वह बातें इतनी दुनियावी नहीं लगती; फिर भी हम वैसे ही जीना चाहते हैं। एना को पता है कि जो पल आज वह जी रही है, वह लौटकर नहीं आने वाला। इसलिए एना हर पल को ख़ूबसूरत ढंग से जीना चाहती है और अपने प्रेमी जेमी के साथ ज़्यादा से ज़्यादा वक़्त बिताना चाहती है। जेमी और उसके पिता के बीच वह सुलह करवाती है और जेमी का अस्पताल में इलाज न कराने का समर्थन करती है। मजबूर पिता को वह अपने बर्थडे पर जॉन कीट्स की पंक्तियाँ लिखकर सांत्वना देती है :

स्टॉप एंड कंसीडर!
लाइफ़ इज बट अ डे;
अ फ़्रेज़ाइल ड्यू-ड्रॉप ऑन
इट्स पेरिलस वे...

प्रेम, दर्द और मौत पर आपको कीट्स से बेहतर शायद ही कोई बता पाए। कहा जाता है कि आप जैसा पढ़ते हो, वैसे ही बनते जाते हो। साहित्य एक ऐसा विषय है जो आपको इतना बता सकता है कि आपके यहाँ से जाने के बाद दुनिया किस तरह आपको याद रखेगी। फ़िल्म के मुख्य किरदार एना और जेमी कैंपस में बातचीत के दौरान हेनरी डेविड थोरो, ऑस्कर वाइल्ड, मैथ्यू अर्नाल्ड और कीट्स की बात करते हैं। ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय के ‘ड्यूक हम्फ्री’ लाइब्रेरी में किताबों के पन्नों को पलटने के रोमांस पर बात करते हैं। वे दोनों सिल्विया प्लाथ, शैली, टॉल्किन, बायरन का हवाला देते हुए यूरोप टहलने की बात करते हैं। जेमी को टेनिसन की जीवन और मृत्यु पर लिखी कविता ‘क्रॉसिंग द बार…’ बहुत पसंद है। वे दोनों यूरोप घूमने साथ जाने वाले होते हैं, इससे पहले ही जेमी दुनिया छोड़कर चला जाता है। ख़ैर, फ़िल्म में सिनेमैटिक लिबर्टी ली गई है, लेकिन ‘माय ऑक्सफ़ोर्ड ईयर’ उपन्यास में उसकी लेखिका जूलिया व्हेलन ने दिखाया है कि जेमी की मृत्यु के बाद एना उन सारे जगहों पर घूमने जाती है, वह अपने साथ जेमी की उपस्थिति और अनुपस्थिति को महसूस करती है। नॉस्टैल्जिया कभी-कभी आपको सुकून देता है, कभी एक कैथार्टिक सुख। किसी के होने और न होने में बस इतना फ़र्क़ है कि आप देख सकते हैं, लेकिन छू नहीं सकते। ठीक ऐसे ही जो हमारी मेमोरी में बीता कल है, उसे हम देख सकते हैं, लेकिन छू नहीं सकते। साहित्य का यही मिस्टिसिज़्म है। जो महसूस करो तो ‘ब्लिस’ और ‘रूहानी’ है, और न समझ आए तो ‘कर्स’ और एक ‘अधूरापन’।

ऑक्सफ़ोर्ड और कैम्ब्रिज जैसे संस्थानों ने अपने एल्यूमिनी से जुड़ी तमाम स्मृतियों को सहेज कर रखा है। उन विश्वविद्यालयों के पास अपना प्रेस और संग्रहालय है, जिसमें विश्वविद्यालय से संबंधित लेखकों की कविताएँ, कहानियाँ, उपन्यास, नाटक, आर्टिकल्स, टैब्लॉयड और पुराने पम्पलेट रखे हुए हैं। हर हॉस्टल और कॉलेज के पास अपना पुस्तकालय और संग्रहालय है, जिसकी उचित कैटलॉगिंग है। स्थापना से नौ सौ उन्तीस साल पुरानी बिल्डिंग की मरम्मत और रखरखाव इतने एहतियात से किया जाता है कि कोई एक ईंट अलग नहीं दिखती। कैंपस की दीवारों और सड़कों को तनिक भी परिवर्तित नहीं किया गया है। अगर आप कल्पना करें, तो ये सारी बातें आपको कितना रोमांचित करती हैं। इसे ही एस्थेटिक सेंसिबिलिटी कहते हैं, जो हिंदुस्तान के विश्वविद्यालयों में न के बराबर दिखती है। दरअस्ल, हमें अपनी लेगेसी और संस्थानों से प्रेम करना सिखाया ही नहीं जाता।

मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय में 2009 में दाख़िल हुआ। इलाहाबाद विश्वविद्यालय को पूरब का ऑक्सफ़ोर्ड कहा जाता था। ख़ैर, यह कोई अतिशयोक्ति नहीं थी; अँग्रेज़ी विभाग में ऐसे कई दिग्गज प्रोफ़ेसर थे जिनका अपना स्वैग था। उठना, बैठना, बातचीत करने का सलीक़ा, क्वींस इंग्लिश बोलना, स्टाफ़ चैंबर में बैठकर सिगरेट के कश लेना, लंदन मैगज़ीन और ऑक्सफ़ोर्ड एकेडेमिक्स जैसे जर्नल की बात करना उन दिनों आम बात थी। रोमांटिक और विक्टोरियन पोएट्री ऐसी पढ़ाई जाती थी, जैसे मालूम पड़ता था कि शैली, बायरन, कॉलरिज, वर्ड्सवर्थ और कीट्स का यहाँ से कोई पुराना नाता हो। कई प्रोफ़ेसरों का कुछ लेखकों पर स्पेशलाइज़ेशन था।

लोग कहते हैं, फ़िराक़ गोरखपुरी वर्ड्सवर्थ की ‘प्रील्यूड’ को ऐसे पढ़ाते थे जैसे वह वर्ड्सवर्थ के साथ ‘डॉव कॉटेज’ में रहे हों। प्रोफ़ेसर मानस मुकुल दास जब टेनिसन की कविता ‘ब्रेक, ब्रेक, ब्रेक…’ पढ़ाते थे, तो लगता था कि इतने सुंदर तरीक़े से टेनिसन को दुनिया में कोई नहीं पढ़ा सकता। प्रोफ़ेसर अमर सिंह को लिटरेचर का इंसाइक्लोपीडिया कहा जाता था; अरविंद कृष्ण मेहरोत्रा की क्लास में वाल्टर डी ला मारे, विल्फ़्रेड ओवन और डायलन थॉमस को पढ़ना किसी जादू से कम नहीं था। ऐसे प्रोफ़ेसरों की एक फ़ेहरिस्त है, जिसमें प्रोफ़ेसर नीलम सरन गौर का चार्ल्स डिकेंस, विक्टोरियन नॉवेल और पोएट्री पर लेक्चर; प्रोफ़ेसर वंदना शर्मा का कीट्स पढ़ाना; अरिंदम चटर्जी का थॉमस हार्डी और लॉरेंस की क्लॉस; के. जी. श्रीवास्तव का ओल्ड इंग्लिश लिटरेचर, मिल्टन, चॉसर और ग्रीक लिटरेचर पढ़ाना; प्रोफ़ेसर लक्ष्मी राज शर्मा का शेक्सपियर पढ़ाना; प्रोफ़ेसर सचिन तिवारी का जॉन ओसबोर्न, सैमुअल बेकेट और प्रोफ़ेसर एस. के. शर्मा का जॉन डन पढ़ाना शामिल हैं। इनमें से कई ऑक्सब्रिज (ऑक्सफ़ोर्ड और कैम्ब्रिज) संस्कृति से बख़ूबी वाक़िफ़ थे। कई ने तो वहाँ से पढ़ाई भी की थी। वजह यह है कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय का अँग्रेज़ी विभाग कई दशकों तक अँग्रेज़ी साहित्य के क्षेत्र में, लगभग ऑक्सफ़ोर्ड की तरह, भारत के अग्रणी संस्थानों में रहा। एक बहुत दिलचस्प वाक़या है, जो अँग्रेज़ी के अध्यापक रहे फ़िराक़ गोरखपुरी अपने विषय में कहते थे : “हिंदुस्तान में केवल ढाई लोगों को अँग्रेज़ी आती है—भारत के प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद को और मुझे, पूरी ठीक-ठाक, और आधी अधूरी पंडित नेहरू को।” ऑक्सफ़ोर्ड की तरह इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अँग्रेज़ी विभाग के ऐसे तमाम क़िस्से और रोमांचक कहानियाँ हैं।

‘माय ऑक्सफ़ोर्ड ईयर’ फ़िल्म की तरह कई एना और जेमी की अधूरी प्रेम कहानियाँ हर दौर में रही हैं। भले ही यहाँ की लाइब्रेरी में ‘ड्यूक हम्फ्री’ लाइब्रेरी की तरह इनर सैंक्टोरियम न हो, फिर भी इसने कई पीढ़ियों को तराशा है और जीने की एक वजह दी है। जैसे ऑक्सफ़ोर्ड से पढ़ने वाले कुछ विश्वविख्यात नाम—रॉबर्ट साउथी, सी. एस. लुइस, फिलिप लार्किन, सर एडविन अर्नाल्ड, मैथ्यू अर्नोल्ड, टी. एस. एलियट, एल्डस हक्सले, ऑस्कर वाइल्ड, गिरीश कर्नाड और वी. एस. नायपॉल हैं; ठीक वैसे ही इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पढ़ने वाले कई बड़े साहित्यकार और लेखक हैं जिन्होंने हिंदुस्तान में साहित्य पढ़ने, समझने और सीखने की अलख जगाई है : फ़िराक़ गोरखपुरी, प्रेमचंद, हरिवंशराय बच्चन, कमलेश्वर, महादेवी वर्मा, भगवती चरण वर्मा, धर्मवीर भारती, अमरकांत, दूधनाथ सिंह, शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी, पंकज मिश्रा और महर्षि महेश योगी जैसे अनगिनत नाम। बस हमें ज़रूरत है इन्हें सहेजने की और इनसे सीखने की। अपने लेखकों, साहित्यकारों से जुड़ी सामग्रियों को विश्वविद्यालयों में संग्रहित करने की। अगर हमने ऐसा किया, तो हमारे विश्वविद्यालयों को भी ऑक्सफ़ोर्ड और कैम्ब्रिज से कमतर नहीं आंका जाएगा। आने वाली नस्लें इन्हें भी वैसे ही सेलिब्रेट करेंगी जैसे आज हम मिल्टन, शेक्सपियर, कीट्स, शैली या बायरन को करते हैं। हम भी अपने संस्थानों को प्रेम कर पाएँगे और हमारे भी क़िस्से कल आबाद होंगे।

“बहुत कुछ 
जीत लेने के बाद 
या बहुत कुछ खो देने के बाद भी
बहुत कुछ बचा रहेगा 
…वो पल
जब हमने तुम्हें प्रेम किया था
वक़्त जब कभी पलटेगा 
वो पन्ना 
हमारा उस पर हस्ताक्षर होगा
मैं तुम्हें 
वहीं खड़ा मिलूँगा 
उसी जगह
ठीक उसी अंदाज़ में 
जैसे मिला था पहली बार।”

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