विलास पर दोहे

विलास सुखभोग या आनंदमय

क्रीड़ा है। संयोग के समय प्रकट हाव-भाव अथवा प्रेमसूचक क्रियाएँ भी विलास मानी जाती हैं। किसी अंग की मनोहर चेष्टा को उस अंग से संबद्ध विलास के रूप में प्रकट किया जाता है। प्रस्तुत है विलास के विषय पर विभिन्न काव्यरूपों से एक चयन।

मीठो अरु कठवति भरो, रौंताई अरु छेम।

स्वारथ परमारथ सुलभ, राम नाम के प्रेम॥

मीठा पदार्थ (अमृत) भी हो और कठौता भरकर मिले, यानी राज्यादि अधिकार भी प्राप्त हों और क्षेमकुशल भी रहे (अर्थात् अभिमान और भोगों से बचकर रहा जाए) अर्थात् स्वार्थ भी सधे तथा परमार्थ भी संपन्न हो; ऐसा होना बहुत ही कठिन है परंतु श्री राम नाम के प्रेम से ये परस्पर विरोधी दुर्लभ बातें भी सुलभ हो जाती है।

तुलसीदास

लालन, लहि पाऐं दुरै, चोरी सौंह करैं न।

सीस-चढ़ै पनिहा प्रगट, कहैं पुकारैं नैन॥

नायक परकीया के पास रात बिताकर घर लौटा है। नायिका कहती है कि हे लाल, जान लेने पर अब शपथ खाने से तुम्हारी चोरी छिप नहीं सकती है।अब तुम भले ही कितनी ही शपथ खाओ, तुम्हारी चोरी स्पष्ट हो गई है। वह छिप नहीं सकती है। तुम्हारे सिर चढ़े हुए नेत्र रूपी गुप्तचर तुम्हारी चोरी को पुकार-पुकार कर स्पष्ट कर रहे हैं।

बिहारी

तुरत सुरत कैसैं दुरत, मुरन नैन जुरि नीठि।

डौंडी दै गुन रावरे, कहति कनौड़ी डीठि॥

नायक अन्यत्र संभोग करके आया है, नायिका भांप लेती है। वह कहती है कि भला तुम्हीं बताओ कि तुरंत किया हुआ संभोग छिप कैसे सकता है? अब तुम्हीं देखो, तुम्हारे नेत्र बड़ी कठिनता से मेरे नेत्रों से मिल रहे हैं (तुम मुझसे आँखें नहीं मिला पा रहे हो)। इतना ही नहीं तुम्हारी दृष्टि भी लज्जित है। तुम्हारी यह लज्जित दृष्टि ही तुम्हारे किए हुए का ढिंढोरा पीट रही है और मैं सब समझ रही हूँ।

बिहारी

धन संचय दुख देत है, धन त्यागे सुख होय।

रैदास सीख गुरु देव की, धन मति जोरे कोय॥

धन का सीमा से अधिक संचय दुख देता है। अधिक धन की कामना त्यागकर ही वास्तविक सुख की प्राप्ति होती है। अतः सभी गुरुओं की यही शिक्षा है कि कोई भी सीमा से अधिक धन का संचय करे।

रैदास

अद्भुत या धन को तिमिर, मो पै कह्यौ जाइ।

ज्यौं-ज्यौं मनिगन जगमगत, त्यौं-त्यौं अति अधिकाइ॥

इस धन का अंधकार बड़ा ही अद्भुत है, मैं इसका वर्णन नहीं कर सकता; क्योंकि ज्यों-ज्यों मणियों के समूह जगमगाते या चमकते हैं, त्यों-त्यों यह अंधकार बढ़ता ही जाता है। भाव यह है कि धन के आने पर मनुष्य की आँखों पर अँधेरा छा जाता है और अभिमान का अंधकार ज्यों-ज्यों संपत्ति बढ़ती है त्यों-त्यों बढ़ता ही जाता है। धन बढ़ने पर मनुष्य बड़ा अभिमानी हो जाता है।

मतिराम

बालमु बारैं सौति कैं, सुनि परनारि-बिहार।

भो रसु अनरसु, रिस रली, रीझ-खीझ इक बार॥

इस दोहे में नायक की दो पत्नियाँ हैं। वह बारी-बारी से अपनी दोनों पत्नियों को समय देता है। एक बार ऐसा होता है कि वह सपत्नी के पास जाना चाहता है इसलिए पूर्व पत्नी अर्थात् प्रथम पत्नी निश्चित रहती है कि आज तो नायक को आना ही नहीं है क्योंकि सपत्नी के पास जाएगा। इसी बीच कोई दूती प्रथम पत्नी को यह सूचना देती है कि नायक तो आज सपत्नी के पास भी नहीं गया, बल्कि किसी अज्ञात स्त्री के पास रात्रि बिताने चला गया है। इस पर प्रथम पत्नी के मन में एक साथ कई प्रतिक्रियाएँ उत्पन्न होती हैं। स्पष्ट शब्दों में उसके मन में क्रमशः रस, अनरस, रिस, रली, रीझ तथा खीझ के भाव उत्पन्न होते हैं। उन्हीं भावों को यहाँ पर व्यक्त किया गया है। सपत्नी की बारी पर नायक अन्य स्त्री के पास गया, सपत्नी रात्रि भर प्रतीक्षा करती रही,वह कुढ़ती रही दु:खी होती रही, समझती रही होगी कि नायक उसकी बारी में मेरे पास गया है। सपत्नी की इस कुढ़न, दुःख तथा वेदना से नायिका को अत्यधिक सुख मिला। शत्रु के दुःख से बढ़कर मानव के सुख का दूसरा कारण नहीं है। फिर नायिका को दुःख (अनरस) हुआ। सोचा, नायक का यह आचरण सुख का कारण नहीं है, इसका अर्थ तो यह है कि नायक के प्रेम को बाँटने वाली अब तीन हो गई हैं, एक सपत्नी के स्थान पर दो (एक स्वकीया और दूसरी परकीया) हो गई, अब तो मेरी बारी तीसरे दिन आया करेगी, यह तो घाटे की बात रही। तब नायिका को नायक पर क्रोध आया। थोड़ी देर बाद नायिका ने सपत्नी का ही दोष देखा। उसे मजाक सूझा-कैसी गुणवती है हमारी सौत कि जब उनकी बारी होती है तो हमारे बालम कहीं और चले जाते हैं सुन लिया उनका आकर्षण! और वह (तुलना करते हुए) अपने गुण पर रीझ गई-मेरी बारी पर कभी ऐसा नहीं हुआ। अपने-अपने गुण की बात है। अंत में इस विचार पर नायिका खीझ उठी कि आदत बुरी पड़ गई, हो सकता है किसी दिन मेरी बारी पर भी नायक किसी परकीया नायिका के पास चला जाए। इस प्रकार सुख-दुखात्मक भावों में उलझती हुई नायिका थककर खीझ गई, जितना सोचती थी उतना ही उलझती जाती थी।

बिहारी

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