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शाम पर उद्धरण

दिन और रात के बीच के

समय के रूप में शाम मानवीय गतिविधियों का एक विशिष्ट वितान है और इस रूप में शाम मन पर विशेष असर भी रखती है। शाम की अभिव्यक्ति कविताओं में होती रही है। यहाँ प्रस्तुत चयन में शाम, साँझ या संध्या को विषय बनाती कविताओं का संकलन किया गया है।

जो व्यक्ति प्रातःकाल एवं सायंकाल केवल दो समय भोजन करता है और बीच में कुछ यहीं खाता, वह सदा उपवासी होता है।

वेदव्यास

मैं सत् हूँ, असत् हूँ और उभयरूप हूँ। मैं तो केवल शिव हूँ। मेरे लिए संध्या है, रात्रि है, और दिन है, क्योंकि मैं नित्य साक्षीस्वरूप हूँ।

आदि शंकराचार्य

कल किया जाने वाला कार्य आज पूरा कर लेना चाहिए; जिसे सायंकाल करना है, उसे प्रातःकाल ही कर लेना चाहिए; क्योंकि मृत्यु यह नहीं देखती कि इसका काम अभी पूरा हुआ या नहीं।

वेदव्यास

यदि मेरे संध्याकालीन अतिथि घड़ी नहीं देख सकते तो उन्हें मेरे मुखमंडल में समय देख लेना चाहिए।

राल्फ़ वाल्डो इमर्सन

प्रार्थना प्रातःकाल का आरंभ है और संध्या का अंत है।

महात्मा गांधी

हर शाम अपने मन को साफ़ करता हूँ, ताकि अगली सुबह साफ़ मन से लिख सकूँ।

कृष्ण बलदेव वैद