सेक्स पर दोहे

‘सेक्स’ अँग्रेज़ी भाषा

का शब्द है जो हिंदी में पर्याप्त प्रचलित है। हिंदी में इसका अर्थात् : रति, संभोग, सहवास, मैथुन, यौनाचार, काम, प्रेमालाप से संबद्ध है। सेक्स एक ऐसी क्रिया है जिसमें देह के माध्यम सुख की प्राप्ति की जाती है या प्रेम प्रदर्शित किया जाता है। सेक्स-केंद्रित कविताओं की प्रमुखता साहित्य में प्राचीनकाल से ही रही है। हिंदी में रीतिकाल इस प्रसंग में उल्लेखनीय है। इसके साथ ही विश्व कविता और भारतीय कविता सहित आधुनिक हिंदी कविता में भी सेक्स के विभिन्न आयामों पर समय-समय पर कविताएँ संभव हुई हैं। यहाँ प्रस्तुत है सेक्स-विषयक कविताओं का एक चयन।

अङ्गहिं अङ्ग मिलिउ हलि अहरेँ अहरु पत्तु।

पिअ जोअन्तिहे मुह-कमलु एम्वइ सुरउ समत्तु॥

हे सखि, अंगों से अंग नहीं मिला; अधर से अधरों का संयोग नहीं हुआ; प्रिय का मुख-कमल देखते-देखते यों ही सुरत समाप्त हो गई।

हेमचंद्र

अरुन नयन खंडित अधर, खुले केस अलसाति।

देखि परी पति पास तें, आवति बधू लजाति॥

कृपाराम

एक ब्रह्ममय सब जगत, ऐसे कहत जु बेद।

कौन देत को लेत सखि, रति सुख समुझि अभेद॥

कृपाराम

सुरत करत पाइल बजै, लजै लजीली भूरि।

ननद जिठानी की सखी, हाँसी हिए बिसूरि॥

कृपाराम

पलकु पीक, अंजनु अधर, धरे महावरु भाल।

आजु मिले, सु भली करी; भले बने हौ लाल॥

नायक के परस्त्रीरमण करने पर नायिका व्यंग्य का सहारा लेकर अपने क्रोध को व्यक्त करती है। वह कहती है कि हे प्रिंयतम, आपके पलकों में पीक, अधरों पर अंजन और मस्तक पर महावर शोभायमान है। आज बड़ा शुभ दिन है कि आपने दर्शन दे दिए। व्यंग्यार्थ यह है आज आप रंगे हाथों पकड़े गए हो। परस्त्रीरमण के सभी चिह्न स्पष्ट रूप से दिखलाई दे रहे हैं। पलकों में पर स्त्री के मुँह की पीक लगी हुई है, अधरों पर अंजन लगा है और मस्तक पर महावर है। ये सभी चिह्न यह प्रामाणित कर रहे हैं कि तुम किसी परकीया से रमण करके आए हो। स्पष्ट संकेत मिल रहा है कि उस परकीया ने पहले तो कामावेश में आकर तुम्हारे मुख का दंत लिया होगा, परिणामस्वरूप उसके मुख की पान की पीक तुम्हारे पलकों पर लग गई। जब प्रतिदान देना चाहा तो वह नायिका मानिनी हो गई। जब तुमने उसके अधरों का दंत लेना चाहा तो वह अपने को बचाने लगी। परिणामस्वरूप उसके नेत्रों से तुम्हारे अधर टकरा गए और उसकी आँखों का काजल तुम्हारे अधरों पर लग गया। अंत में उसे मनाने के लिए तुमने अपना मस्तक उसके चरणों पर रख दिया, इससे उसके पैरों का महावर आपके मस्तक पर लग गया है। इतने पर भी जब वह नहीं मानी तब आप वहाँ से चले आए और आपको मेरा याद आई। चलो,अच्छा हुआ इस बहाने ही सही, आपके दर्शन तो हो गए।

बिहारी

पर्यौ जौरु बिपरीत रति, रुपी सुरत-रन-धीर।

करति कुलाहलु किंकिनी, गहौ मौनु मंजीर॥

विपरीत रति में जुटे हुए नायक-नायिका का वर्णन करती हुई एक सखी दूसरी से कह रही है कि हे सखी, विपरीत रति में जोड़ पड़ गया है अर्थात् नायक नीचे गया है। दोनों परस्पर गुंथे हुए हैं और सुरति रूपी रण में धैर्यवान नायिका भली प्रकार डट गई है अर्थात् रम गई है, जिसके फलस्वरूप करधनी ने तो शोर करना आरंभ कर दिया है और मंजीर ने मौन धारण कर लिया है।

बिहारी

राधा हरि, हरि राधिका, बनि आए संकेत।

दंपति रति-बिपरीत-सुखु, सहज सुरतहूँ लेत॥

श्री राधा श्रीकृष्ण का रूप और कृष्ण राधाजी का रूप धारण कर मिलन-स्थल पर गए हैं। वे दोनों स्वाभाविक रति में निमग्न हैं, फिर भी विपरीत संभोग का आनंद ले रहे हैं। यहाँ विपरीत रति का आनंद स्वरूप-परिवर्तन के कारण कल्पित किया गया है।

बिहारी

तुरत सुरत कैसैं दुरत, मुरन नैन जुरि नीठि।

डौंडी दै गुन रावरे, कहति कनौड़ी डीठि॥

नायक अन्यत्र संभोग करके आया है, नायिका भांप लेती है। वह कहती है कि भला तुम्हीं बताओ कि तुरंत किया हुआ संभोग छिप कैसे सकता है? अब तुम्हीं देखो, तुम्हारे नेत्र बड़ी कठिनता से मेरे नेत्रों से मिल रहे हैं (तुम मुझसे आँखें नहीं मिला पा रहे हो)। इतना ही नहीं तुम्हारी दृष्टि भी लज्जित है। तुम्हारी यह लज्जित दृष्टि ही तुम्हारे किए हुए का ढिंढोरा पीट रही है और मैं सब समझ रही हूँ।

बिहारी

लालन, लहि पाऐं दुरै, चोरी सौंह करैं न।

सीस-चढ़ै पनिहा प्रगट, कहैं पुकारैं नैन॥

नायक परकीया के पास रात बिताकर घर लौटा है। नायिका कहती है कि हे लाल, जान लेने पर अब शपथ खाने से तुम्हारी चोरी छिप नहीं सकती है।अब तुम भले ही कितनी ही शपथ खाओ, तुम्हारी चोरी स्पष्ट हो गई है। वह छिप नहीं सकती है। तुम्हारे सिर चढ़े हुए नेत्र रूपी गुप्तचर तुम्हारी चोरी को पुकार-पुकार कर स्पष्ट कर रहे हैं।

बिहारी

लाज-गरब-आलस-उमंग, भरे नैन मुसकात।

राति-रमी रति देति कहि, औरे प्रभा प्रभात॥

एक सखी नायिका से कहती है कि हे सखी, यद्यपि तू अपनी 'राति-रमी' अर्थात् रात्रि-रमण की स्थिति का वर्णन नहीं कर रही है, किंतु तेरे लाज, गर्व, आलस्य और उमंग से भरे हुए नेत्र मुस्कराकर सब कुछ बतला रहे हैं। इससे तेरी शोभा अनिर्वचनीय और मोहक प्रतीत होने लगी है। छवि की यह अनिर्वचनीय मोहकता स्पष्ट कह करी है कि तू रात्रि-भर रति-क्रीड़ा

में निमग्न रही है।

बिहारी

मरकत-भाजन-सलिल-गत, इंदुकला कैं बेख।

झींन झगा मैं झलमलै, स्याम गात नख-रेख॥

नायिका बड़े मधुर ढंग से व्यंग्यात्मक शैली में कहती है कि हे प्रिय, आपके झीने अर्थात् पतले वस्त्र में श्याम शरीर पर नख-क्षत दिखलाई दे रहे हैं। वे नख-क्षत ऐसे प्रतीत होते हैं मानों किसी जल से युक्त नीलम की थाली में चंद्रमा की कलाएँ शोभित हो रही हों।

बिहारी

बिनती रति बिपरीत की, करी परसि पिय पाइ।

हँसि, अनबोलैं हीं दियौ, ऊतरु, दियौ बताइ॥

विपरीत रति की प्रार्थना करने पर नायिका नायक को किस प्रकार अपनी स्वीकृति प्रदान करती है, इसका वर्णन करते हुए सखी कह रही है कि पति ने नायिका के पैरों को छूकर विपरीत रति की प्रार्थना की तो नायिका ने हँसकर बिना बोले ही दीपक को बुझाकर अपना उत्तर दे दिया।

बिहारी

रँगी सुरत-रंग पिय-हियैं, लगी जगी सब राति।

पैंड़ पैंड़ पर ठठुकि कै, ऐंड़-भरी ऐंडाति॥

सुरति के पश्चात् प्रेमगर्विता नायिका कदम-कदम पर ठिठकती हुई, गर्व से ऐंठती हुई और अलसाती हुई-सी चल रही है। कोई सखी कहती है कि प्रियतम के हृदय से लगी रहकर यह नायिका रात भर जगती रही है। यह संभोग के सुख के रंग में रंगी हुई है। यही कारण है कि अब प्रातः वेला में यह नायिका कदम-कदम पर रुक-रुककर गर्व से भरकर ऐंठती और ऐंड़ती हुई चल रही है। नायिका गर्व से भरी हुई है क्योंकि प्रिय के गले से चिपककर रात्रि बिताने का अवसर उसकी सौंतों को प्राप्त नहीं हो सकेगा। इसी भाव से भरकर वह इठला रही है। नायिका का ऐंड़ना इसलिए है कि रात में उसने संभोग किया है अत: अब उसके अंग टूट रहे हैं।

बिहारी

वेई गड़ि गाड़ैं परी, उपट्यौ हारु हियैं न।

आन्यौ मोरि मतंगु मनु, मारि गुरेरनु मैन॥

नायिका परस्त्रीगामी नायक से कह रही है कि तुम्हारे हृदय पर जो चिह्न दिखलाई पड़ रहे हैं, वे किसी के हार के उभरे हुए चिह्न नहीं हैं। मुझे तो ऐसा लगता है मानों कामदेव रूपी शिकारी के द्वारा हाथी के सदृश तुम्हारे हृदय में गुलेल से मारी हुई गोलियों के चिह्न हैं। व्यंग्यार्थ यह है कि नायिका यह व्यंजित कर रही है कि तुमने रात भर तो परकीया से रमण किया है, दिन में तुम लोक-लाज के कारण उसके घर रह नहीं सकते थे, अत: तुम्हारा कामोन्माद तुम्हें घर ले आया है। अब तुम दिन भर मेरे साथ रति-क्रीड़ा करोगे। मैं जानती हूँ कि अगर मैं इतनी सुंदर और यौवन-संपन्न होती तो तुम यहाँ आते ही नहीं। वास्तव में हे प्रिय, तुम बड़े भ्रष्ट हो।

बिहारी

गोप अथाइनु तैं उठे, गोरज छाई गैल।

चलि, बलि, अलि अभिसार की, भली संझौखैं सैल॥

एक सखी दूसरी सखी से कहती है कि देख तो सही, गोप अपने-अपने चौपालों से उठ गए हैं। गाँव की गलियों में गायों के चलने से या घरों की ओर लौटने से धूल छा गई है। अभिसार के लिए सांध्यकालीन यही बेला सर्वथा उपयुक्त है। हे सखी, मैं तुझ पर बलिहारी जाती हूँ और कहती हूँ कि तू मेरे साथ चल।

बिहारी

लपटि बेलि सी जाति अँग, निघुटि नटी लौ जाइ।

कोटि नवोढ़ा बारिये, वाकी बोलनि पाइ॥

भूपति

समय समुझि सुख-मिलन कौ, लहि मुख-चंद-उजास।

मंद-मंद मंदिर चली, लाज-सुखी पिय-पास॥

दुलारेलाल भार्गव

निसि जागति दिन में सुवति, बोई पेड़ बबूर।

काटो कदली कंज सो, कह जमाल तकि दूर॥

सामान्य अर्थ : वह रात्रि भर जागती है और दिन में सोती है, इस प्रकार वह प्रकृति विरुद्ध कर्म कर सुखदाई फल क्यों पा रही है? यह तो ऐसा जान पड़ता है मानों बबूल का पेड़ बो कर केले का फल प्राप्त करना।

गूढ़ार्थ : वह रात्रि को जागकर अपने प्रिय के संग रहती है, तो वह रात्रि जागरण हेतु दिन में क्यों सोवे।

जमाल

लटपटाति पग धरति क्यों, बिछुरे यह किमि केश।

चकित सुनत भइ चातुरी, कहहु जमाल बिसेस॥

सामान्य अर्थ : जब सखि ने पूछा कि 'तुम्हारे केश बिखरे हुए क्यों हैं और पैर लड़खड़ाते क्यों धर रही हो' तब वह चतुर स्त्री यह सुनकर अचकचा क्यों गई?

गूढ़ार्थ : अभिसारिका अपने रात्रि विहार के पश्चात् लौटी है।

जमाल

दंपति रति विपरित में, करत किंकिनी सोर।

मनौ मदन महिपाल की, नौबत होत टंकोर॥

विक्रम

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