शूद्रक के उद्धरण

घोर अंधकार में जिस प्रकार दीपक का प्रकाश सुशोभित होता है उसी प्रकार दुःख का अनुभव कर लेने पर सुख का आगमन आनंदप्रद होता है किंतु जो मनुष्य सुख भोग लेने के पश्चात् निर्धन होता है वह शरीर धारण करते हुए भी मृतक के समान जीवित रहता है।






यह पुत्र-स्नेह धनी तथा निर्धन के लिए समान रूप से सर्वस्व धन है। यह चंदन तथा ख़श से भिन्न हृदय का शीतल लेप है।

निर्धनता मनुष्य में चिंता उत्पन्न करती है, दूसरों से अपमान कराती है, शत्रुता उत्पन्न करती है, मित्रों में घृणा का पात्र बनाती है और आत्मीय जनों से विरोध कराती है। निर्धन व्यक्ति की घर छोड़कर वन चले जाने की इच्छा होती है, उसे स्त्री से भी अपमान सहना पड़ता है। ह्रदयस्थित शोकाग्नि एक बार ही जला नहीं डालती अपितु संतप्त करती रहती है।

जुए से ही मैंने धन और जुए के ही प्रभाव से स्त्री तथा मित्र उपलब्ध किए हैं। इसी प्रकार जुए से ही किसी को कुछ दिया है तथा उपभोग भी किया है और जुए से ही मैंने अपना सर्वनाश भी कर डाला है।
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दैववश मनुष्य के भाग्य की जब होनावस्था (दरिद्रता) आ जाती है तब उसके मित्र भी शत्रु हो जाते हैं, यहाँ तक कि चिरकाल से अनुरक्त जन भी विरक्त हो जाता है।



गुण और धन दोनों का मेल दुर्लभ है। जिस जलाशय का पानी पिया नहीं जाता उसमें अतिशय जल भरा रहता है।
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मनुष्य उस चोरी को अधम भले ही कहें जो मनुष्यों के सो जाने पर होती है तथा जिसमें विश्वस्त जनों का द्रव्य-अपहरण रूप अपमान होता है और निश्चय ही वह पराक्रम नहीं है। चोरी रूप धूर्तता स्वतंत्र होने के कारण उत्तम है, इस कार्य में किसी का दास बनकर हाथ जोड़ना नहीं पड़ता। और यह कार्य बहुत प्राचीन काल से चला आ रहा है। द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा ने युधिष्ठिर के सोते हुए पुत्रों को (धोखे से) मार डालने में इस मार्ग का आश्रय लिया था, अत: इसमें दोष नहीं है।
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यह जुआ अनादर को तुच्छ समझता है। प्रत्येक दिन धन उपार्जित करता है और देता भी है।
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जो पुत्रहीन है उसका घर सूना प्रतीत होता है। जिसका हार्दिक मित्र नहीं है उसका घर सदा से सूना है। मूर्खों के लिए दसों दिशाएँ सूनी हैं। निर्धन के लिए तो सब कुछ सूना है।
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गायें अधिक दूध देने वाली हों। पृथ्वी सब प्रकार के अन्न से सम्पन्न हो। मेघ ठीक समय पर वर्षा करने वाले हों। सब जनों को आनंदित करने वाली वायु चले। सभी प्राणी प्रसन्न रहें। ब्राह्मण सतत सम्मानित हों और श्रेष्ठ आचरणशील हों। शत्रुओं को नष्ट करने वाले, सम्पन्न और धार्मिक राजा पृथ्वी का पालन करें।
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निर्धनता से लज्जा होती है, लज्जित मनुष्य तेज़हीन हो जाता है, निस्तेज लोक से तिरस्कृत होता है, तिरस्कार से ग्लानि को प्राप्त होता है, ग्लानि होने पर शोक उत्पन्न होता है। शोकातुर होने से बुद्धि क्षीण हो जाती है और बुद्धिरहित होने से मनुष्य नाश को प्राप्त होता है। अहो! निर्धनता सभी विपत्तियों की जड़ है।
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