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दोहा संग्रह

चार चरणों का अर्द्धसम

मात्रिक छंद। विषम चरणों में 13-13 और सम चरणों में 11-11 मात्राएँ। चरण के अंत में गुरु-लघु (ऽ।) अनिवार्य।

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अंग-अंग-नग जगमगत दीप-सिखा सी देह।

दिया बढाऐं हूँ रहै बड़ौ उज्यारौ गेह॥

दूती नायक से कह रही है कि देखो, नायिका की देह आभूषणों में जड़े हुए नगों से दीप-शिखा के समान दीपित हो रही है। घर में यदि दीपक बुझा दिया जाता है तब भी उस नायिका के रूप के प्रभाव से चारों ओर प्रकाश बना रहता है। दूती ने यहाँ नायिका के वर्ण-सौंदर्य के साथ-साथ उसके व्यक्तित्व में उदित होने वाली शोभा, दीप्ति और कांति आदि की अतिशयता को भी व्यक्त कर दिया है।

बिहारी

अपने अँग के जानि कै जोबन-नृपति प्रवीन।

स्तन, मन, नैन, नितंब कौ बड़ौ इजाफा कीन॥

यौवन रूपी प्रवीण राजा ने नायिका के चार अंगों पर अपना अधिकार कर लिया है। उन अंगों को अपना मानते हुए अपनी सेना के चार अंग स्वीकार कर उनकी वृद्धि कर दी है। ऐसा उसने इसलिए किया है कि वे सभी अंग उसके वश में रहे। ये चार अंग यौवन रूपी राजा की चतुरंगिणी सेना के प्रतीक हैं। ये अंग हैं−स्तन, मन, नेत्र और नितंब। स्वाभाविक बात यह है कि जब यौवनागम होता है तब स्वाभाविक रूप से शरीर के इन अंगों में वृद्धि होती है। जिस प्रकार कोई राजा अपने सहायकों को अपना मानकर उनकी पदोन्नति कर देता है, उसी प्रकार यौवनरूपी राजा ने स्तन, मन, नेत्र और नितंब को अपना मान लिया है या अपना पक्षधर या अपने ही अंग मानते हुए इनमें स्वाभाविक वृद्धि कर दी है।

बिहारी

अति ही सरल हूजियै देखौ ज्यों बनराय।

सीधे सीधे छेदियै बांकौ तरु बच जाय।।

भावार्थ: कवि वृंद अनुभव की बात करते हुए कहते हैं कि मनुष्य को सज्जन तो होना चाहिए, लेकिन स्वभाव से अत्यंत सरल नहीं होना चाहिए। क्योंकि जिस प्रकार जंगल में सीधे खड़े हुए वृक्षों को काट लिया जाता है और टेढ़े खड़े वृक्षों को छोड़ दिया जाता है, उसी प्रकार इस संसार में सज्जनों का सहज ही शोषण हो सकता है, टेढ़े अर्थात दुर्जन का नहीं।

वृंद

अति परचै तैं होत है अरुचि अनादर भाय।

मलयागिरि की भीलनी चंदन देत जराय॥

भावार्थ: कवि कहता है कि जिनसे अधिक परिचय या जान−पहचान होती है, उसकी स्वभावतः उपेक्षा भी हो जाती है। इस तरह कई बार अधिक परिचय से अरुचि तथा अनादर भी हो जाता है। जैसे मलय पर्वत पर चंदन के वृक्ष होते हैं लेकिन वहाँ पर रहने वाली भील−स्त्रियाँ चंदन को खाना पकाने के लिए ईंधन के रूप में जलाती हैं। अर्थात् वे चंदन का महत्व नहीं आंकती है और उसे साधारण लकड़ी की तरह प्रयुक्त करती हैं। यह चंदन का अनादर ही है।

वृंद

भल्ला हुआ जु मारिआ बहिणि महारा कंतु।

लज्जेज्जंतु वयंसिअहु जइ भग्गा धर एंतु॥

हे बहिन, भला हुआ मेरा कंत मारा गया। यदि भागा हुआ घर आता तो मैं सखियों में लजाती।

हेमचंद्र

बिरह जिलानी मैं जलौं, जलती जलहर जाऊँ।

मो देख्याँ जलहर जलै, संतौ कहा बुझाऊँ॥

विरहिणी कहती है कि विरह में जलती हुई मैं सरोवर (या जल-स्थान)

के पास गई। वहाँ मैंने देखा कि मेरे विरह की आग से जलाशय भी जल रहा है। हे संतो! बताइए मैं अपनी विरह की आग को कहाँ बुझाऊँ?

कबीर

बिरह सतावै रैन दिन, तऊ रटै तव नाम।

चातकि ज्यों स्वाती चहै, पाती चहै सुबाम॥

कृपाराम

चाली सकल सिंगार सजि, मिल्यौ तहाँ सुखकंद।

हसत चल्यौ मुखचंद कौं, लग्यौ हसन मुख चंद॥

दौलत कवि

चाकी चलती देखि कै, दिया कबीरा रोइ।

दोइ पट भीतर आइकै, सालिम बचा कोई॥

काल की चक्की चलते देख कर कबीर को रुलाई जाती है। आकाश और धरती के दो पाटों के बीच कोई भी सुरक्षित नहीं बचा है।

कबीर

चरण धरत चिंता करत, नींद भावत शोर।

सुबरण को सोधत फिरत, कवि व्यभिचारी चोर॥

केशवदास

छिमा बड़न को चाहिए, छोटेन को उतपात।

का रहिमन हरि को घट्यो, जो भृगु मारी लात॥

रहीम कहते हैं कि क्षमा बड़प्पन का स्वभाव है और उत्पात छोटे और ओछे लोगों की प्रवृति। भृगु ऋषि ने भगवान विष्णु को लात मारी, विष्णु ने इस कृत्य पर भृगु को क्षमा कर दिया। इससे विष्णु का क्या बिगड़ा! क्षमा बड़प्पन की निशानी है।

रहीम

छुटी सिसुता की झलक, झलक्यौ जोबनु अंग।

दीपति देह दुहून मिलि दिपति ताफता-रंग॥

नायिका के शरीर से अभी बचपन की झलक समाप्त भी नहीं हुई है किंतु उसके शरीर में यौवन झलकने लगा है। एक प्रकार से नायिका की स्थिति शैशव और यौवन के बीच की हो गई है। इन दोनों अवस्थाओं के मेल से नायिका के शरीर की झलक धूप-छाँही रंग के कपड़े जैसी है अर्थात् जिस प्रकार से धूप-छाँह नामक वस्त्र के ताने और बाने के रंग अलग-अलग चमकते हैं, उसी प्रकार नायिका के शरीर में लड़कपन अर्थात् भोलापन और युवावस्था दोनों ही साथ-साथ लक्षित होती है।

बिहारी

दादू दीवा है भला, दीवा करौ सब कोइ।

घर में धर्या पाइये, जे कर दीवा होइ॥

ज्ञान-दीप जलाना उत्तम है। सभी को यत्न करना चाहिए कि गुरु के ज्ञान-दीप से अपना आत्म-ज्ञान दीप जलाएँ। जब तक गुरु द्वारा प्रदत्त ज्ञान उसे प्रज्वलित नहीं करता, तब तक मात्र शास्त्र-ज्ञान से यह दीपक नहीं जलता।

दादू दयाल

दादू इसक अलह की जाति है, इसक अलह का अंग।

इसक अलह औजूद है, इसक अलह का रंग॥

ईश्वर की जाति, रंग और शरीर प्रेम है। प्रेम ईश्वर का अस्तित्व है। प्रेम करो तो ईश्वर के साथ ही करो।

दादू दयाल

दरिया दिल दरपन करो, परसत ऐन अनूप।

ऐन ऐना में दीसे, देखि बिमल एक रूप॥

दरिया (बिहार वाले)

देह जरै दुख होत है, ऊपर लागै लौंन।

ताहू तें दु:ख दुष्ट कौ, सुंदर मानै कौंन॥

सुंदरदास

देह सुरंगी तब लगें, जब लगि प्राण समीप।

जीव जाति जाती रही, सुंदर बिदरंग दीप॥

सुंदरदास

रहिमन पानी राखिये, बिनु पानी सब सून।

पानी गए ऊबरै, मोती, मानुष, चून॥

रहीम ने पानी को तीन अर्थों में प्रयुक्त किया है। पानी का पहला अर्थ मनुष्य के संदर्भ में 'विनम्रता' से है। मनुष्य में हमेशा विनम्रता (पानी) होना चाहिए। पानी का दूसरा अर्थ आभा, तेज या चमक से है जिसके बिना मोती का कोई मूल्य नहीं। तीसरा अर्थ जल से है जिसे आटे (चून) से जोड़कर दर्शाया गया है। रहीम का कहना है कि जिस तरह आटे के बिना संसार का अस्तित्व नहीं हो सकता, मोती का मूल्य उसकी आभा के बिना नहीं हो सकता है उसी तरह विनम्रता के बिना व्यक्ति का कोई मूल्य नहीं हो सकता। मनुष्य को अपने व्यवहार में हमेशा विनम्रता रखनी चाहिए।

रहीम

रहिमन निज मन की बिथा, मन ही राखो गोय।

सुनि अठिलैहैं लोग सब, बाँटि लैहैं कोय॥

रहीम कहते हैं कि अपने मन के दुःख को मन के भीतर छिपा कर ही रखना चाहिए। दूसरे का दुःख सुनकर लोग इठला भले ही लें, उसे बाँट कर कम करने वाला कोई नहीं होता।

रहीम

एक ब्रह्ममय सब जगत, ऐसे कहत जु बेद।

कौन देत को लेत सखि, रति सुख समुझि अभेद॥

कृपाराम

गदराने तन गोरटी, ऐपन-आड़ लिलार।

हूठ्यौ दै, इठलाइ दृग करै गँवारि सुवार॥

ग्रामीण नायिका की अदा पर रीझकर नायक कह रहा है कि यह गदराए हुए शरीर वाली गोरी ग्रामीणा अपने ललाट पर ऐपन का आड़ा तिलक लगाए हुए, कमर पर हाथ रखे हुए इठला-इठला कर अपनी आँखों से घायल किए दे रही है। अभिप्राय यह है कि नायिका यद्यपि ग्रामीण है, फिर भी वह अपने कटाक्षों और हाव-भाव आदि के द्वारा नायक को आकृष्ट कर रही है।

बिहारी

गोरी सोवै सेज पर, मुख पर डारे केस।

चल ख़ुसरो घर आपने, रैन भई चहुँ देस॥

ख़ुसरो कहते हैं कि आत्मा रूपी गोरी सेज पर सो रही है, उसने अपने मुख पर केश डाल लिए हैं, अर्थात वह दिखाई नहीं दे रही है। तब ख़ुसरो ने मन में निश्चय किया कि अब चारों ओर अँधेरा हो गया है, रात्रि की व्याप्ति दिखाई दे रही है। अतः उसे भी अपने घर अर्थात परमात्मा के घर चलना चाहिए।

अमीर ख़ुसरो

हरि रस पीया जाँणिये, जे कबहूँ जाइ खुमार।

मैमंता घूँमत रहै, नाँहीं तन की सार॥

राम के प्रेम का रस पान करने का नशा नहीं उतरता। यही राम-रस पीने वाले की पहचान भी है। प्रेम-रस से मस्त होकर भक्त मतवाले की तरह इधर-उधर घूमने लगता है। उसे अपने शरीर की सुधि भी नहीं रहती। भक्ति-भाव में डूबा हुआ व्यक्ति, सांसारिक व्यवहार की परवाह नहीं करता और उसकी दृष्टि में देह-धर्म नगण्य हो जाता है।

कबीर

हेरत हेरत हे सखी, रह्या कबीर हिराई।

बूँद समानी समुंद मैं, सो कत हेरी जाइ॥

साधना की चरमावस्था में जीवात्मा का अहंभाव नष्ट हो जाता है। अद्वैत की अनुभूति जाग जाने के कारण आत्मा का पृथक्ता बोध समाप्त हो जाता है। अंश आत्मा अंशी परमात्मा में लीन होकर अपना अस्तित्व मिटा देती है।

यदि कोई आत्मा के पृथक् अस्तित्व को खोजना चाहे तो उसके लिए यह असाध्य कार्य होगा।

कबीर

जहाँ गाँठ तहँ रस नहीं, यह रहीम जग जोय।

मँड़ए तर की गाँठ में, गाँठ गाँठ रस होय॥

रहीम कहते हैं कि निजी संबंधों में जहाँ गाँठ होती है, वहाँ प्रेम या मिठास नहीं होती है लेकिन शादी के मंडप में बाँधी गई गाँठ के पोर-पोर में प्रेम-रस भरा होता है।

रहीम

जाका गुर भी अंधला, चेला खरा निरंध।

अंधा−अंधा ठेलिया, दून्यूँ कूप पड़ंत॥

जिसका गुरु अँधा अर्थात् ज्ञान−हीन है, जिसकी अपनी कोई चिंतन दृष्टि नहीं है और परंपरागत मान्यताओं तथा विचारों की सार्थकता को जाँचने−परखने की क्षमता नहीं है; ऐसे गुरु का अनुयायी तो निपट दृष्टिहीन होता है। उसमें अच्छे-बुरे, हित-अहित को समझने की शक्ति नहीं होती, जबकि हित-अहित की पहचान पशु-पक्षी भी कर लेते हैं। इस तरह अँधे गुरु के द्वारा ठेला जाता हुआ शिष्य आगे नहीं बढ़ पाता। वे दोनों एक-दूसरे को ठेलते हुए कुएँ मे गिर जाते हैं अर्थात् अज्ञान के गर्त में गिर कर नष्ट हो जाते हैं।

कबीर

जमला ऐसी प्रीत कर, जैसी हिंदू जोय।

पूत पराये कारणे, जलबल कोयला होय॥

प्रीति तो ऐसी करनी जैसी कि एक हिन्दू स्त्री करती है। वह परजाए पुरुष (अपने पति) के लिये समय पड़ने पर स्वयं को राख बना देती है।

जमाल

जमला जोबन फूल है, फूलत ही कुमलाय।

जाण बटाऊ पंथसरि, वैसे ही उठ जाय॥

यौवन एक फूल है जो कि फूलने के बाद शीघ्र ही कुम्हला जाता है। वह तो पथिक-सा है जो मार्ग में तनिक-सा विश्राम लेकर अपनी राह लेता है।

जमाल

जपमाला, छापैं, तिलक सरै एकौ कामु।

मन-काँचे नाचै वृथा, साँचै राँचै रामु॥

माला लेकर किसी मंत्र-विशेष का जाप करने से तथा मस्तक एवं शरीर के अन्य अंगों पर तिलक-छापा लगाने से तो एक भी काम पूरा नहीं हो सकता, क्योंकि ये सब तो आडंबर मात्र हैं। कच्चे मन वाला तो व्यर्थ में ही नाचता रहता है, उससे राम प्रसन्न नहीं होते। राम तो सच्चे मन से भक्ति करने वाले व्यक्ति पर ही प्रसन्न होते हैं।

बिहारी

जिस मरनै थै जग डरै, सो मेरे आनंद।

कब मरिहूँ कब देखिहूँ, पूरन परमानंद॥

जिस मरण से संसार डरता है, वह मेरे लिए आनंद है। कब मरूँगा और कब पूर्ण परमानंद स्वरूप ईश्वर का दर्शन करूँगा। देह त्याग के बाद ही ईश्वर का साक्षात्कार होगा। घट का अंतराल हट जाएगा तो अंशी में अंश मिल जाएगा।

कबीर

जो तेरे घट प्रेम है, तो कहि-कहि सुनाव।

अंतरजामी जानि है, अंतरगत का भाव॥

मलूकदास

कबीर कुत्ता राम का, मुतिया मेरा नाऊँ।

गलै राम की जेवड़ी, जित खैंचे तित जाऊँ॥

कबीर कहते हैं कि मैं तो राम का कुत्ता हूँ, और नाम मेरा मुतिया है। मेरे गले में राम की ज़ंजीर पड़ी हुई है, मैं उधर ही चला जाता हूँ जिधर वह ले जाता है। प्रेम के ऐसे बंधन में मौज-ही-मौज है।

कबीर

कबीर माया पापणीं, हरि सूँ करे हराम।

मुखि कड़ियाली कुमति की, कहण देई राम॥

यह माया बड़ी पापिन है। यह प्राणियों को परमात्मा से विमुख कर देती है तथा

उनके मुख पर दुर्बुद्धि की कुंडी लगा देती है और राम-नाम का जप नहीं करने देती।

कबीर

कदली, सीप, भुजंग-मुख, स्वाति एक गुन तीन।

जैसी संगति बैठिए, तैसोई फल दीन॥

रहीम कहते हैं कि स्वाति-नक्षत्र की वर्षा की बूँद तो एक ही हैं, पर उसका गुण संगति के अनुसार बदलता है। कदली में पड़ने से उस बूँद की कपूर बन जाती है, अगर वह सीप में पड़ी तो मोती बन जाती है तथा साँप के मुँह में गिरने से उसी बूँद का विष बन जाता है। इंसान भी जैसी संगति में रहेगा, उसका परिणाम भी उस वस्तु के अनुसार ही होगा।

रहीम

कागद पर लिखत बनत, कहत सँदेसु लजात।

कहि है सबु तेरौ हियौ मेरे हिय की बात॥

नायिका अपने प्रेयस को पत्र लिखने बैठती है तभी या तो उसके हाथ काँपने लगते हैं या वह भावावेश में आकर इतनी भाव-विभोर हो जाती है कि कंपन स्नेह अश्रु जैसे सात्विक भाव काग़ज़ पर अक्षरों का आकार नहीं बनने देते। इसके विपरीत यदि वह किसी व्यक्ति के माध्यम से नायक के पास संदेश भेजे तो यह समस्या उठ खड़ी होती है कि किसी दूसरे व्यक्ति से अपने मन की गुप्त बातें कैसे कहे? स्पष्ट शब्दों में संदेश कहने में उसे लज्जा का अनुभव होता है। विकट परिस्थिति है कि नायिका तो पत्र भेज सकती है और संदेश ही प्रेषित कर सकती है। इस विषमता से ग्रस्त अंततः वह हताश होकर ख़ाली काग़ज़ का टुकड़ा बिना कुछ लिखे ही नायक के पास भेज देती है। इस काग़ज़ के टुकड़े को भेजने के साथ वह यह अनुमान लगा लेती है कि यदि नायक के मन में भी मेरे प्रति मेरे जैसा ही गहन प्रेम होगा तो वह इस ख़ाली काग़ज़ को देखकर भी मेरे मनोगत एवं प्रेमपूरित भावों को स्वयं ही पढ़ लेगा।

बिहारी

कहत, नटत, रीझत, खिझत, मिलत, खिलत, लजियात।

भरे भौन मैं करत हैं, नैननु ही सब बात॥

सखी कह रही है कि नायक अपनी आँखों के इशारे से कुछ कहता है अर्थात् रति की प्रार्थना करता है, किंतु नायिका उसके रति विषयक निवेदन को अस्वीकार कर देती है। वस्तुतः उसका अस्वीकार स्वीकार का ही वाचक है तभी तो नायक नायिका के निषेध पर भी रीझ जाता है। जब नायिका देखती है कि नायक इतना कामासक्त या प्रेमासक्त है कि उसके निषेध पर भी रीझ रहा है तो उसे खीझ उत्पन्न होती है। ध्यान रहे, नायिका की यह खीझ भी बनावटी है। यदि ऐसी होती तो पुनः दोनों के नेत्र परस्पर कैसे मिलते? दोनों के नेत्रों का मिलना परस्पर रति भाव को बढ़ाता है। फलतः दोनों ही प्रसन्नता से खिल उठते हैं, किंतु लज्जित भी होते हैं। उनके लज्जित होने का कारण यही है कि वे यह सब अर्थात् प्रेम-विषयक विविध चेष्टाएँ भरे भवन में अनेक सामाजिकों की भीड़ में करते हैं।

बिहारी

कहु रहीम कैसे निभै, बेर केर को संग।

वे डोलत रस आपने, उनके फाटत अंग॥

रहीम कहते हैं कि दो विपरीत प्रवृत्ति के लोग एक साथ नहीं रह सकते। यानी दुर्जन-सज्जन एक साथ नहीं रह सकते। यदि साथ रहें तो हानि सज्जन की होती है, दुर्जन का कुछ नहीं बिगड़ता। कवि ने इस बात की पुष्टि करते हुए कहा है कि बेर और केले के पेड़ आसपास उगे हों तो उनकी संगत कैसे निभ सकती है? दोनों का अलग-अलग स्वभाव है। बेर के पेड़ में काँटे होते हैं तो केले का पेड़ नरम होता है। हवा के झोंकों से बेर की डालियाँ मस्ती में हिलती-डुलती हैं तो केले के पेड़ का अंग-अंग छिल जाता है।

रहीम

कलि का बामण मसखरा, ताहि दीजै दान।

सौ कुटुंब नरकै चला, साथि लिए जजमान॥

कलियुग का ब्राह्मण दिल्लगी-बाज़ है (हँसी मज़ाक करने वाला) उसे दान मत दो। वह अपने यजमान और सैकड़ों कुटुंबियों के साथ नरक जाता है।

कबीर

कनकु कनक तैं सौगुनौ मादकता अधिकाइ।

उहिं खाऐं बौराइ जग इहिं पाऐं हीं बौराइ॥

स्वर्ण और धतूरे दोनों में मादकता होती है। सोने में धतूरे से सौगुनी अधिक मादकता पाई जाती है। स्पष्ट शब्दों में सोना धातु होकर भी मनुष्य को उन्मत्त और पागल बना देता है तभी तो संसार में यह देखा जाता है कि लोग धतूरे को खाकर पागल होते हैं और सोने को प्राप्त करके ही उन्मत्त हो जाते हैं। जिस वस्तु की प्राप्ति-मात्र से उन्मत्तता बढ़ जाए वह निश्चय ही उस वस्तु की तुलना में अधिक मादक है जो खाने के पश्चात् मनुष्य की बुद्धि और विवेकशीलता को समाप्त कर देती है।

बिहारी

केस पक्या द्रस्टि गई, झर्या दंत और धुन्न।

सैना मिरतू पुगी, करले सुमरन पुन्न॥

सैन कहते हैं कि जब केश पक गए, दृष्टि चली गई, दाँत झड़ गए और ध्वनि मंद पड़ गई, तो जान लो-मृत्यु निकट है। स्मरण का पुण्य कर लो।

सैन भगत

खैर, ख़ून, खाँसी, खुसी, बैर, प्रीति, मदपान।

रहिमन दाबे ना दबैं, जानत सकल जहान॥

रहीम कहते हैं कि सारी दुनिया जानती है कि खैर (कत्थे का दाग़), ख़ून, खाँसी, ख़ुशी, दुश्मनी, प्रेम और शराब का नशा; ये चीज़ें ना तो दबाने से दबती हैं और ना छिपाने से छिपती हैं।

रहीम

खीर रूप हरि नाँव है, नीर आन व्यौहार।

हंस रूप कोइ साध है, तत का जाणहार॥

स्वयं भगवान क्षीर रूप हैं, जगत के अन्य व्यवहार जल की तरह हैं। कोई विरला साधु हंस रूप है जो तत्त्व का जानने वाला है। जल को छोड़कर क्षीर (दूध) की ओर उन्मुख भक्त जन ही होते हैं, क्योंकि नीर-क्षीर विवेक उन्हीं में होता है।

कबीर

ख़ुसरो रैन सुहाग की, जागी पी के संग।

तन मेरो मन पीउ को, दोउ भए एक रंग॥

ख़ुसरो कहते हैं कि उसके सौभाग्य की रात्रि बहुत अच्छी तरह से बीत गई, उसमें परमात्मा प्रियतम के साथ जीवात्मा की पूर्ण आनंद की स्थिति रही। वह आनंद की अद्वैतमयी स्थिति ऐसी थी कि तन तो जीवात्मा का था और मन प्रियतम का था, परंतु सौभाग्य की रात्रि में दोनों मिलकर एक हो गए, अर्थात दोनों में कोई भेद नहीं रहा और द्वैत की स्थिति नहीं रही।

अमीर ख़ुसरो

कृपण जतन धन रौ करै, कायर जीव जतन्न।

सूर जतन उण रौ करै, जिण रौ खाधौ अन्न॥

कंजूस अपने धन की रक्षा का यत्न करता है और कायर अपने प्राण की रक्षा का। लेकिन शूरवीर उसकी रक्षा का यत्न करता है जिसका अन्न उसने खाया है।

कविराजा बाँकीदास

माई एहड़ा पूत जण, जेहड़ा राण प्रताप।

अकबर सूतो ओझकै, जाण सिराणै साँप॥

हे माता ऐसे पुत्रों को जन्म दे, जैसा राणा प्रताप है। जिसको अकबर सिरहाने का साँप समझ कर सोता हुआ चौंक पडता है।

पृथ्वीराज राठौड़

मैं समुइयौ निरधार, यह जग काँचो काँच सौ।

एकै रूपु अपार प्रतिबिंबित लखियतु जहाँ॥

मैंने तो इस संसार को काँच के समान कच्चा और नश्वर समझा था लेकिन इस सृष्टि के विविध रूप में एक ही के तत्व के अनेक रूप झलकते हैं। ब्रह्म ज्ञानी और अद्वैतवादी कहता है कि मैंने तो यह समझा था कि वह संसार कच्चे काँच के समान है जिसमें एक ही ईश्वर का रूप अनंत रूपों में प्रतिबिंबित होता है अर्थात् सृष्टि के समस्त पदार्थ एक ही ईश्वर के अनंत रूप हैं।

बिहारी

माली आवत देखि के, कलियाँ करैं पुकार।

फूली-फूली चुनि गई, कालि हमारी बार॥

मृत्यु रूपी माली को आता देखकर अल्पवय जीव कहता है कि जो पुष्पित थे अर्थात् पूर्ण विकसित हो चुके थे, उन्हें काल चुन ले गया। कल हमारी भी बारी जाएगी। अन्य पुष्पों की तरह मुझे भी काल कवलित होना पड़ेगा।

कबीर

मन मथुरा दिल द्वारिका, काया कासी जाणि।

दसवाँ द्वारा देहुरा, तामै जोति पिछांणि॥

मन को मथुरा (कृष्ण का जन्म स्थान) दिल को द्वारिका (कृष्ण का राज्य स्थान) और देह को ही काशी समझो। दशवाँ द्वार ब्रह्म रंध्र ही देवालय है, उसी में परम ज्योति की पहचान करो।

कबीर

मारग जोवै बिरहनी, चितवै पिय की वोर।

सुंदर जियरै जक नहीं, कल परत निस भौर॥

सुंदरदास

माया मुई मन मुवा, मरि-मरि गया सरीर।

आसा त्रिष्णाँ नाँ मुई, यौं कहै दास कबीर॥

कबीर कहते हैं कि प्राणी की माया मरती है, मन मरता है, यह शरीर ही बार-बार मरता है। अर्थात् अनेक योनियों में भटकने के बावजूद प्राणी की आशा और तृष्णा नहीं मरती वह हमेशा बनी ही रहती है।

कबीर

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere