दोहा संग्रह
चार चरणों का अर्द्धसम
मात्रिक छंद। विषम चरणों में 13-13 और सम चरणों में 11-11 मात्राएँ। चरण के अंत में गुरु-लघु (ऽ।) अनिवार्य।
मेरा मुझ में कुछ नहीं, जो कुछ है सो तेरा।
तेरा तुझकौं सौंपता, क्या लागै है मेरा॥
मेरे पास अपना कुछ भी नहीं है। मेरा यश, मेरी धन-संपत्ति, मेरी शारीरिक-मानसिक शक्ति, सब कुछ तुम्हारी ही है। जब मेरा कुछ भी नहीं है तो उसके प्रति ममता कैसी? तेरी दी हुई वस्तुओं को तुम्हें समर्पित करते हुए मेरी क्या हानि है? इसमें मेरा अपना लगता ही क्या है?
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टैग : भक्ति
कहत, नटत, रीझत, खिझत, मिलत, खिलत, लजियात।
भरे भौन मैं करत हैं, नैननु ही सब बात॥
सखी कह रही है कि नायक अपनी आँखों के इशारे से कुछ कहता है अर्थात् रति की प्रार्थना करता है, किंतु नायिका उसके रति विषयक निवेदन को अस्वीकार कर देती है। वस्तुतः उसका अस्वीकार स्वीकार का ही वाचक है तभी तो नायक नायिका के निषेध पर भी रीझ जाता है। जब नायिका देखती है कि नायक इतना कामासक्त या प्रेमासक्त है कि उसके निषेध पर भी रीझ रहा है तो उसे खीझ उत्पन्न होती है। ध्यान रहे, नायिका की यह खीझ भी बनावटी है। यदि ऐसी न होती तो पुनः दोनों के नेत्र परस्पर कैसे मिलते? दोनों के नेत्रों का मिलना परस्पर रति भाव को बढ़ाता है। फलतः दोनों ही प्रसन्नता से खिल उठते हैं, किंतु लज्जित भी होते हैं। उनके लज्जित होने का कारण यही है कि वे यह सब अर्थात् प्रेम-विषयक विविध चेष्टाएँ भरे भवन में अनेक सामाजिकों की भीड़ में करते हैं।
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टैग : प्रेम
जिस मरनै थै जग डरै, सो मेरे आनंद।
कब मरिहूँ कब देखिहूँ, पूरन परमानंद॥
जिस मरण से संसार डरता है, वह मेरे लिए आनंद है। कब मरूँगा और कब पूर्ण परमानंद स्वरूप ईश्वर का दर्शन करूँगा। देह त्याग के बाद ही ईश्वर का साक्षात्कार होगा। घट का अंतराल हट जाएगा तो अंशी में अंश मिल जाएगा।
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टैग्ज़ : मृत्युऔर 1 अन्य
ख़ुसरो रैन सुहाग की, जागी पी के संग।
तन मेरो मन पीउ को, दोउ भए एक रंग॥
ख़ुसरो कहते हैं कि उसके सौभाग्य की रात्रि बहुत अच्छी तरह से बीत गई, उसमें परमात्मा प्रियतम के साथ जीवात्मा की पूर्ण आनंद की स्थिति रही। वह आनंद की अद्वैतमयी स्थिति ऐसी थी कि तन तो जीवात्मा का था और मन प्रियतम का था, परंतु सौभाग्य की रात्रि में दोनों मिलकर एक हो गए, अर्थात दोनों में कोई भेद नहीं रहा और द्वैत की स्थिति नहीं रही।
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टैग्ज़ : प्रेमऔर 1 अन्य
रहिमन पानी राखिये, बिनु पानी सब सून।
पानी गए न ऊबरै, मोती, मानुष, चून॥
रहीम ने पानी को तीन अर्थों में प्रयुक्त किया है। पानी का पहला अर्थ मनुष्य के संदर्भ में 'विनम्रता' से है। मनुष्य में हमेशा विनम्रता (पानी) होना चाहिए। पानी का दूसरा अर्थ आभा, तेज या चमक से है जिसके बिना मोती का कोई मूल्य नहीं। तीसरा अर्थ जल से है जिसे आटे (चून) से जोड़कर दर्शाया गया है। रहीम का कहना है कि जिस तरह आटे के बिना संसार का अस्तित्व नहीं हो सकता, मोती का मूल्य उसकी आभा के बिना नहीं हो सकता है उसी तरह विनम्रता के बिना व्यक्ति का कोई मूल्य नहीं हो सकता। मनुष्य को अपने व्यवहार में हमेशा विनम्रता रखनी चाहिए।
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टैग्ज़ : एनसीईआरटी कक्षा-6 (NCERT CLASS-6)और 3 अन्य
रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो छिटकाय।
टूटे से फिर न मिले, मिले गाँठ परिजाय॥
रहीम कहते हैं कि प्रेम का रिश्ता बहुत नाज़ुक होता है। इसे झटका देकर तोड़ना यानी ख़त्म करना उचित नहीं होता। यदि यह प्रेम का धागा (बंधन) एक बार टूट जाता है तो फिर इसे जोड़ना कठिन होता है और यदि जुड़ भी जाए तो टूटे हुए धागों (संबंधों) के बीच में गाँठ पड़ जाती है।
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टैग्ज़ : एनसीईआरटी कक्षा-6 (NCERT CLASS-6)और 5 अन्य
प्रेम दिवाने जो भये, मन भयो चकना चूर।
छके रहे घूमत रहैं, सहजो देखि हज़ूर॥
सहजोबाई कहती हैं कि जो व्यक्ति ईश्वरीय-प्रेम के दीवाने हो जाते हैं, उनके मन की सांसारिक वासनाएँ-कामनाएँ एकदम चूर-चूर हो जाती हैं। ऐसे लोग सदा आनंद से तृप्त रहते हैं तथा संसार में घूमते हुए परमात्मा का साक्षात्कार कर लेते हैं।
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टैग्ज़ : प्रेमऔर 1 अन्य
गोरी सोवै सेज पर, मुख पर डारे केस।
चल ख़ुसरो घर आपने, रैन भई चहुँ देस॥
ख़ुसरो कहते हैं कि आत्मा रूपी गोरी सेज पर सो रही है, उसने अपने मुख पर केश डाल लिए हैं, अर्थात वह दिखाई नहीं दे रही है। तब ख़ुसरो ने मन में निश्चय किया कि अब चारों ओर अँधेरा हो गया है, रात्रि की व्याप्ति दिखाई दे रही है। अतः उसे भी अपने घर अर्थात परमात्मा के घर चलना चाहिए।
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टैग्ज़ : गुरुऔर 1 अन्य
सात समंद की मसि करौं, लेखनि सब बनराइ।
धरती सब कागद करौं, तऊ हरि गुण लिख्या न जाइ॥
यदि मैं सातों समुद्रों के जल की स्याही बना लूँ तथा समस्त वन समूहों की लेखनी कर लूँ, तथा सारी पृथ्वी को काग़ज़ कर लूँ, तब भी परमात्मा के गुण को लिखा नहीं जा सकता। क्योंकि वह परमात्मा अनंत गुणों से युक्त है।
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टैग : ईश्वर
हेरत हेरत हे सखी, रह्या कबीर हिराई।
बूँद समानी समुंद मैं, सो कत हेरी जाइ॥
साधना की चरमावस्था में जीवात्मा का अहंभाव नष्ट हो जाता है। अद्वैत की अनुभूति जाग जाने के कारण आत्मा का पृथक्ता बोध समाप्त हो जाता है। अंश आत्मा अंशी परमात्मा में लीन होकर अपना अस्तित्व मिटा देती है।
यदि कोई आत्मा के पृथक् अस्तित्व को खोजना चाहे तो उसके लिए यह असाध्य कार्य होगा।
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टैग : समुद्र
कलि का बामण मसखरा, ताहि न दीजै दान।
सौ कुटुंब नरकै चला, साथि लिए जजमान॥
कलियुग का ब्राह्मण दिल्लगी-बाज़ है (हँसी मज़ाक करने वाला) उसे दान मत दो। वह अपने यजमान और सैकड़ों कुटुंबियों के साथ नरक जाता है।
रहिमन निज मन की बिथा, मन ही राखो गोय।
सुनि अठिलैहैं लोग सब, बाँटि न लैहैं कोय॥
रहीम कहते हैं कि अपने मन के दुःख को मन के भीतर छिपा कर ही रखना चाहिए। दूसरे का दुःख सुनकर लोग इठला भले ही लें, उसे बाँट कर कम करने वाला कोई नहीं होता।
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टैग्ज़ : एनसीईआरटी कक्षा-9 (NCERT CLASS-9)और 2 अन्य
नैनाँ अंतरि आव तूँ, ज्यूँ हौं नैन झँपेऊँ।
नाँ हौं देखौं और कूँ, नाँ तुझ देखन देऊँ॥
आत्मारूपी प्रियतमा कह रही है कि हे प्रियतम! तुम मेरे नेत्रों के भीतर आ जाओ। तुम्हारा नेत्रों में आगमन हाते ही, मैं अपने नेत्रों को बंद कर लूँगी या तुम्हें नेत्रों में बंद कर लूँगी। जिससे मैं न तो किसी को देख सकूँ और न तुम्हें किसी को देखने दूँ।
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टैग्ज़ : आँखऔर 1 अन्य
नहिं परागु नहिं मधुर मधु, नहिं बिकासु इहिं काल।
अली कली ही सौं बंध्यौ, आगैं कौन हवाल॥
नायिका में आसक्त नायक को शिक्षा देते हुए कवि कहता है कि न तो अभी इस कली में पराग ही आया है, न मधुर मकरंद ही तथा न अभी इसके विकास का क्षण ही आया है। अरे भौरे! अभी तो यह एक कली मात्र है। तुम अभी से इसके मोह में अंधे बन रहे हो। जब यह कली फूल बनकर पराग तथा मकरंद से युक्त होगी, उस समय तुम्हारी क्या दशा होगी? अर्थात् जब नायिका यौवन संपन्न सरसता से प्रफुल्लित हो जाएगी, तब नायक की क्या दशा होगी?
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टैग्ज़ : नीतिऔर 1 अन्य
माई एहड़ा पूत जण, जेहड़ा राण प्रताप।
अकबर सूतो ओझकै, जाण सिराणै साँप॥
हे माता ऐसे पुत्रों को जन्म दे, जैसा राणा प्रताप है। जिसको अकबर सिरहाने का साँप समझ कर सोता हुआ चौंक पडता है।
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टैग्ज़ : अकबरऔर 1 अन्य
या अनुरागी चित्त की गति समुझै नहिं कोई।
ज्यौं ज्यौं बूड़ै स्याम रँग, त्यौं त्यौं उज्जलु होई॥
मनुष्य के अनुरागी हृदय की वास्तविक गति और स्थिति को कोई भी नहीं समझ सकता है। जैसे-जैसे मन कृष्ण-भक्ति के रंग में डूबता जाता है, वैसे-वैसे वह अधिक उज्ज्वल से उज्ज्वलतर होता जाता है। यानी जैसे-जैसे व्यक्ति भक्ति के रंग में डूबता है वैसे-वैसे वह अपने समस्त दुर्गुणों से दूर होता जाता है।
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टैग्ज़ : कृष्णऔर 1 अन्य
जाका गुर भी अंधला, चेला खरा निरंध।
अंधा−अंधा ठेलिया, दून्यूँ कूप पड़ंत॥
जिसका गुरु अँधा अर्थात् ज्ञान−हीन है, जिसकी अपनी कोई चिंतन दृष्टि नहीं है और परंपरागत मान्यताओं तथा विचारों की सार्थकता को जाँचने−परखने की क्षमता नहीं है; ऐसे गुरु का अनुयायी तो निपट दृष्टिहीन होता है। उसमें अच्छे-बुरे, हित-अहित को समझने की शक्ति नहीं होती, जबकि हित-अहित की पहचान पशु-पक्षी भी कर लेते हैं। इस तरह अँधे गुरु के द्वारा ठेला जाता हुआ शिष्य आगे नहीं बढ़ पाता। वे दोनों एक-दूसरे को ठेलते हुए कुएँ मे गिर जाते हैं अर्थात् अज्ञान के गर्त में गिर कर नष्ट हो जाते हैं।
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टैग : गुरु
तंत्री नाद, कबित्त रस, सरस राग, रति-रंग।
अनबूड़े बूड़े, तरे जे बूड़े सब अंग॥
वीणा आदि वाद्यों के स्वर, काव्य आदि ललित कलाओं की रसानुभूति तथा प्रेम के रस में जो व्यक्ति सर्वांग डूब गए हैं, वे ही इस संसार-सागर को पार कर सकते हैं। जो इनमें डूब नहीं सके हैं, वे इस भव-सिंधु में ही फँसकर रह जाते हैं अर्थात् संसार-का संतरण नहीं कर पाते हैं। कवि का तात्पर्य यह है कि तंत्री-नाद इत्यादि ऐसे पदार्थ हैं जिनमें बिना पूरण रीति से प्रविष्ट हुए कोई भी आनंद नहीं मिल पाता है। यदि इनमें पड़ना हो तो पूर्णतया पड़ो। यदि पूरी तरह नहीं पड़ सकते हो तो इनसे सर्वथा दूर रहना ही उचित व श्रेयस्कर है।
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टैग्ज़ : यौवनऔर 1 अन्य
पावस देखि रहीम मन, कोइल साधे मौन।
अब दादुर बक्ता भए, हमको पूछत कौन॥
वर्षा ऋतु को देखकर कोयल और रहीम के मन ने मौन साध लिया है। अब तो मेंढक ही बोलने वाले हैं। हमारी तो कोई बात ही नहीं पूछता। अभिप्राय यह है कि कुछ अवसर ऐसे आते हैं जब गुणवान को चुप रह जाना पड़ता है, उनका कोई आदर नहीं करता और गुणहीन वाचाल व्यक्तियों का ही बोलबाला हो जाता है।
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टैग : वर्षा
हरि रस पीया जाँणिये, जे कबहूँ न जाइ खुमार।
मैमंता घूँमत रहै, नाँहीं तन की सार॥
राम के प्रेम का रस पान करने का नशा नहीं उतरता। यही राम-रस पीने वाले की पहचान भी है। प्रेम-रस से मस्त होकर भक्त मतवाले की तरह इधर-उधर घूमने लगता है। उसे अपने शरीर की सुधि भी नहीं रहती। भक्ति-भाव में डूबा हुआ व्यक्ति, सांसारिक व्यवहार की परवाह नहीं करता और उसकी दृष्टि में देह-धर्म नगण्य हो जाता है।
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टैग्ज़ : ईश्वरऔर 1 अन्य
जहाँ गाँठ तहँ रस नहीं, यह रहीम जग जोय।
मँड़ए तर की गाँठ में, गाँठ गाँठ रस होय॥
रहीम कहते हैं कि निजी संबंधों में जहाँ गाँठ होती है, वहाँ प्रेम या मिठास नहीं होती है लेकिन शादी के मंडप में बाँधी गई गाँठ के पोर-पोर में प्रेम-रस भरा होता है।
रहिमन वे नर मर चुके, जे कहुँ माँगन जाहिं।
उनते पहिले वे मुए, जिन मुख निकसत नाहिं॥
भीख माँगना मरने से बदतर है। इसी संदर्भ में रहीम कहते हैं कि जो मनुष्य भीख माँगने की स्थिति में आ गया अर्थात् जो कहीं माँगने जाता है, वह मरे हुए के समान है। वह मर ही गया है लेकिन जो व्यक्ति माँगने वाले को किसी वस्तु के लिए ना करता है अर्थात उत्तर देता है, वह माँगने वाले से पहले ही मरे हुए के समान है।
छिमा बड़न को चाहिए, छोटेन को उतपात।
का रहिमन हरि को घट्यो, जो भृगु मारी लात॥
रहीम कहते हैं कि क्षमा बड़प्पन का स्वभाव है और उत्पात छोटे और ओछे लोगों की प्रवृति। भृगु ऋषि ने भगवान विष्णु को लात मारी, विष्णु ने इस कृत्य पर भृगु को क्षमा कर दिया। इससे विष्णु का क्या बिगड़ा! क्षमा बड़प्पन की निशानी है।
कागद पर लिखत न बनत, कहत सँदेसु लजात।
कहि है सबु तेरौ हियौ मेरे हिय की बात॥
नायिका अपने प्रेयस को पत्र लिखने बैठती है तभी या तो उसके हाथ काँपने लगते हैं या वह भावावेश में आकर इतनी भाव-विभोर हो जाती है कि कंपन स्नेह अश्रु जैसे सात्विक भाव काग़ज़ पर अक्षरों का आकार नहीं बनने देते। इसके विपरीत यदि वह किसी व्यक्ति के माध्यम से नायक के पास संदेश भेजे तो यह समस्या उठ खड़ी होती है कि किसी दूसरे व्यक्ति से अपने मन की गुप्त बातें कैसे कहे? स्पष्ट शब्दों में संदेश कहने में उसे लज्जा का अनुभव होता है। विकट परिस्थिति है कि नायिका न तो पत्र भेज सकती है और न संदेश ही प्रेषित कर सकती है। इस विषमता से ग्रस्त अंततः वह हताश होकर ख़ाली काग़ज़ का टुकड़ा बिना कुछ लिखे ही नायक के पास भेज देती है। इस काग़ज़ के टुकड़े को भेजने के साथ वह यह अनुमान लगा लेती है कि यदि नायक के मन में भी मेरे प्रति मेरे जैसा ही गहन प्रेम होगा तो वह इस ख़ाली काग़ज़ को देखकर भी मेरे मनोगत एवं प्रेमपूरित भावों को स्वयं ही पढ़ लेगा।
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टैग : प्रेम
टूटे सुजन मनाइए, जौ टूटे सौ बार।
रहिमन फिरि फिरि पोहिए, टूटे मुक्ताहार॥
स्वजन (सज्जन) कितनी ही बार रूठ जाएँ, उन्हें बार-बार मनाना चाहिए। जैसे मोती की माला अगर टूट जाए तो उन मोतियों को फेंक नहीं देते, बल्कि उन्हें वापस माला में पिरो लेते हैं। क्योंकि सज्जन लोग मोतियों के समान होते हैं।
सतगुर की महिमा अनंत, अनंत किया उपकार।
लोचन अनंत उघाड़िया, अनंत दिखावण हार॥
ज्ञान के आलोक से संपन्न सद्गुरु की महिमा असीमित है। उन्होंने मेरा जो उपकार किया है वह भी असीम है। उसने मेरे अपार शक्ति संपन्न ज्ञान-चक्षु का उद्घाटन कर दिया जिससे मैं परम तत्त्व का साक्षात्कार कर सका। ईश्वरीय आलोक को दृश्य बनाने का श्रेय महान गुरु को ही है।
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टैग्ज़ : गुरुऔर 1 अन्य
रहिमन अब वे बिरछ कहँ, जिनकी छाँह गँभीर।
बागन बिच बिच देखिअत, सेंहुड़, कुँज, करीर॥
रहीम कहते हैं कि वे पेड़ आज कहाँ, जिनकी घनी छाया होती थी! अब तो इस संसार रूपी बाग़ में काँटेदार सेंहुड़, कटीली झाड़ियाँ और करील देखने में आते हैं। कहने का भाव यह है कि सज्जन और परोपकारी लोग अब नहीं रहे, जो अपने सद्कर्मों से इस जगत को सुखी रखने का जतन करते थे। अब तो ओछे लोग ही अधिक मिलते हैं जो सुख नहीं, दु:ख ही देते हैं।
कदली, सीप, भुजंग-मुख, स्वाति एक गुन तीन।
जैसी संगति बैठिए, तैसोई फल दीन॥
रहीम कहते हैं कि स्वाति-नक्षत्र की वर्षा की बूँद तो एक ही हैं, पर उसका गुण संगति के अनुसार बदलता है। कदली में पड़ने से उस बूँद की कपूर बन जाती है, अगर वह सीप में पड़ी तो मोती बन जाती है तथा साँप के मुँह में गिरने से उसी बूँद का विष बन जाता है। इंसान भी जैसी संगति में रहेगा, उसका परिणाम भी उस वस्तु के अनुसार ही होगा।
कहु रहीम कैसे निभै, बेर केर को संग।
वे डोलत रस आपने, उनके फाटत अंग॥
रहीम कहते हैं कि दो विपरीत प्रवृत्ति के लोग एक साथ नहीं रह सकते। यानी दुर्जन-सज्जन एक साथ नहीं रह सकते। यदि साथ रहें तो हानि सज्जन की होती है, दुर्जन का कुछ नहीं बिगड़ता। कवि ने इस बात की पुष्टि करते हुए कहा है कि बेर और केले के पेड़ आसपास उगे हों तो उनकी संगत कैसे निभ सकती है? दोनों का अलग-अलग स्वभाव है। बेर के पेड़ में काँटे होते हैं तो केले का पेड़ नरम होता है। हवा के झोंकों से बेर की डालियाँ मस्ती में हिलती-डुलती हैं तो केले के पेड़ का अंग-अंग छिल जाता है।
अपने अँग के जानि कै जोबन-नृपति प्रवीन।
स्तन, मन, नैन, नितंब कौ बड़ौ इजाफा कीन॥
यौवन रूपी प्रवीण राजा ने नायिका के चार अंगों पर अपना अधिकार कर लिया है। उन अंगों को अपना मानते हुए अपनी सेना के चार अंग स्वीकार कर उनकी वृद्धि कर दी है। ऐसा उसने इसलिए किया है कि वे सभी अंग उसके वश में रहे। ये चार अंग यौवन रूपी राजा की चतुरंगिणी सेना के प्रतीक हैं। ये अंग हैं−स्तन, मन, नेत्र और नितंब। स्वाभाविक बात यह है कि जब यौवनागम होता है तब स्वाभाविक रूप से शरीर के इन अंगों में वृद्धि होती है। जिस प्रकार कोई राजा अपने सहायकों को अपना मानकर उनकी पदोन्नति कर देता है, उसी प्रकार यौवनरूपी राजा ने स्तन, मन, नेत्र और नितंब को अपना मान लिया है या अपना पक्षधर या अपने ही अंग मानते हुए इनमें स्वाभाविक वृद्धि कर दी है।
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टैग्ज़ : आँखऔर 2 अन्य
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere