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विनायक दामोदर सावरकर

1883 - 1966 | नासिक, महाराष्ट्र

विनायक दामोदर सावरकर के उद्धरण

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हमारी पीढ़ी ऐसे समय में और ऐसे देश में पैदा हुई है जब कि प्रत्येक उदार एवं सच्चे हृदय के लिए यह बात आवश्यक हो गई है कि वह अपने लिए उस मार्ग को चुने, जो आहों, सिसकियों और जुदाई के बीच में गुज़रता है। यही मार्ग कर्म का मार्ग है।

मंगल पांडे ने सत्तावन के इस क्रांतियुद्ध के लिए अपना उष्ण रक्त प्रदान किया था। किंतु इसके साथ ही साथ उसने अपना नाम भी अमिट रहने वाले अक्षरों में कर दिया। स्वधर्म और स्वराज्य हेतु लड़े गए 1857 के स्वातंत्र्य-समर में भाग लेने वाले सभी क्रांतिकारियों को भी इस क्रांति के शत्रुओं ने 'पांडे' नाम से संबोधित किया। प्रत्येक माता का यह पावन दायित्व है कि अपने बालक को इस पवित्र नाम का स्वाभिमान सहित उच्चारण करना सिखला दे।

जो जातियाँ कठिन परीक्षा काल में भी नैतिकता तथा चारित्र्य का संबल नहीं छोड़तीं और अपनी योग्यता के बल पर सफलता अर्जित करती हैं, वस्तुतः उन्हें ही संसार में जीवित रहने का अधिकार है।

कष्ट ही तो वह चालक शक्ति है जो मनुष्य को कसौटी पर परखती है और आगे बढ़ाती है।

श्रुति, स्मृति, पुराण आदि पुरातन ग्रंथों को हम अत्यंत कृतज्ञतायुक्त आदर से और आत्मीयता से सम्मान करते हैं किंतु ऐतिहासिक ग्रंथों के रूप में अनुल्लंघनीय धर्म-ग्रंथों के रूप में नहीं। उसमें दिया हुआ सारा ज्ञान-विज्ञान आज के विज्ञान की कसौटी पर कसेंगे और तत्पश्चात् आज राष्ट्र-धारणा के लिए जितना आवश्यक प्रतीत होगा उतना ही हम निर्भय होकर आचरण में लाएँगे।

यदि क्रांति सफल हो पाए तो इतिहासकार उसे 'विप्लव' और 'विद्रोह' के संबोधन प्रदान कर देता है। वस्तुतः सफल विद्रोह ही क्रांति कहलाता है।

नाम की गरिमा ही ऐसी है कि वह भावना विशेष का ही प्रतीक बन जाता है और वह भावना ही दिवंगत मानवों की कई संततियों के पश्चात् भी जीवित रहती है।

अपने वेद, स्मृति इत्यादि ग्रंथों की श्रेष्ठता इतनी महान है कि वे अपौरुषेय या त्रिकालाबाधित एवं सर्वज्ञानमय हैं। उन ग्रंथों की श्रेष्ठता को टिकाए रखने के लिए अर्थवादात्मक या व्यर्थवादात्मक आडंबर रचना ऐसा है जैसे कि हिमालय डिग जाए, इसलिए उसे बाँस के डंडो का सहारा देना। यह अनावश्यक ही नहीं, अनिष्ट और हास्यास्पद भी है।

तू इतना भर कह दे कि 'मैं छूऊँगा' कि अस्पृश्यता मर जाएगी। इतना महँगा कर्तव्य कभी इतना सस्ता नहीं हुआ।

इस जाति-बहिष्कार के खड्ग ने एकात्म—एकजीव—अखंड राष्ट्रशरीर के टुकड़े-टुकड़े करके उसे हज़ारों खंडों में विभक्त कर दिया है।

मित्रता उन्हीं में हो सकती है जिनमें शक्ति की भी समानता है।

मनुष्यता ही ऊँची देशभक्ति है।

मनुष्य रचित परिवर्तनीय और कभी-कभी परस्पर विरोधी ग्रंथों में क्या लिखा है, उसी के आधार पर कोई सुधार या परिवर्तन करना उचित है अथवा अनुचित है—इसका निर्णय करते हुए वह विशिष्ट सुधार विशिष्ट परिस्थिति में राष्ट्र-धारणा के लिए हितकर है या नहीं, इस प्रत्यक्ष प्रमाण को विचारार्थ लिया जाना चाहिए और परिस्थिति के अनुसार निर्बंधों-नियमों को भी बदलते रहना चाहिए।

मनुष्यता सब प्रकार की देशभक्ति और देशाभिमान के भावों से ऊँची चीज़ है।

वंश चाहे अखंड हो चाहे हो, पर मातृभूमि! हमारे उद्देश्य पूरित हों। प्रज्वलित अग्नि में, माता के बंधन तोड़ने सूस के लिए अपना सर्वस्व जलाकर हम कृतार्थं हो गए हैं।

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हिन्दवी उत्सव, 27 जुलाई 2025, सीरी फ़ोर्ट ऑडिटोरियम, नई दिल्ली

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