राहुल सांकृत्यायन के उद्धरण

तीस बरस से भारत से गए हुए एक मित्र जब पहली बार मुझे रूस में मिले, तो गद्गद् होकर कहने लगे—आपके शरीर से मुझे मातृभूमि की सुगंध आ रही है। हर एक घुमक्कड़ अपने देश की गंध ले जाता है।

आप अपना गाँव छोड़िए, हज़ारों गाँव स्वागत के लिए तत्पर मिलेंगे। एक मित्र और बंधु की जगह हज़ारों बंधुबांधव आपके आने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। आप एकाकी नहीं हैं।

घर के पैसे के बल पर प्रथम या दूसरी श्रेणी का घुमक्कड़ नहीं बना जा सकता। घुमक्कड़ को जेब पर नहीं, अपनी बुद्धि, बाहु और साहस का भरोसा रखना चाहिए।
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हमारे घुमक्कड़ असंस्कृत देश में संस्कृति का संदेश लेकर गए, किंतु इसलिए नहीं कि जाकर उस देश को प्रताड़ित करें। वह उसे भी अपने जैसा संस्कृत बनाने के लिए गए। कोई देश अपने को हीन न समझे, इसी का ध्यान रखते हुए उन्होंने अपने ज्ञान-विज्ञान को उसकी भाषा की पोशाक पहनाई, अपनी कला को उसके वातावरण का रूप दिया।
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घुमक्कड़ असंग और निर्लेप रहता है, यद्यपि मानव के प्रति उसके हृदय में अपार स्नेह है।
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यदि जीवन में कोई अप्रिय वस्तु है तो वह वस्तुतः मृत्यु नहीं है, मृत्यु का भय है।
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वस्तुतः घुमक्कड़ी को साधारण बात नहीं समझना चाहिए, वह सत्य की खोज के लिए कला के निर्माण के लिए, सद्भावनाओं के प्रसार के लिए महान दिग्विजय है।
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भारत जैसी मातृभूमि पाकर कौन अभिमान नहीं करेगा? यहाँ हज़ारों चीज़ें हैं जिन पर अभिमान होना ही चाहिए।
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मातृभूमि का अभिमान पाप नहीं है, यदि वह दुरभिमान नहीं हो।
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असली घुमक्कड़ मृत्यु से नहीं डरता, मृत्यु की छाया से वह खेलता है लेकिन हमेशा उसका लक्ष्य रहता है, मृत्यु को परास्त करना—वह अपनी मृत्यु द्वारा उस मृत्यु को परास्त करता है।
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