चक्रवर्ती राजगोपालाचारी के उद्धरण


समाज धर्म के कारण से संगठित रहते हैं चाहे लोग उसका (धर्म का प्रदर्शन करें या उसे अपने हृदय में रखें। जब धर्म समाप्त हो जाता है तब पारस्परिक विश्वास भी नष्ट हो जाता है, लोगों का आचरण भ्रष्ट हो जाता है और उसका फल राष्ट्र को भुगतना पड़ता है। धर्म सुलाने वाला नहीं है अपितु शक्ति का आधार-स्तंभ है।


आत्म-संयम अर्थात् आत्मानुशासन ही कलात्मक सौंदर्य को सुंदर एवं व्यवस्था को सुव्यवस्थित और आनंददायक बनाता है।
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मनुष्य भोजन, जल और शुद्ध हवा से जितना छुटकारा पा सकता है, उससे अधिक छुटकारा ईश्वर से नहीं पा सकता।

भारत में जो ईश्वर को मानव-मन से निकालने का उपदेश देता है, वह सामाजिक विघटन का उपदेश देता है।
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कोई भाषा कभी नहीं मरती। मरती है तो व्यक्ति की उस भाषा को सीखने और काम में लाने की क्षमता, स्वयं भाषा नहीं।
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