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गजानन माधव मुक्तिबोध

1917 - 1964 | श्योपुर, मध्य प्रदेश

आधुनिक हिंदी कविता के अग्रणी कवियों में से एक। अपनी कहानियों और डायरी के लिए भी प्रसिद्ध।

आधुनिक हिंदी कविता के अग्रणी कवियों में से एक। अपनी कहानियों और डायरी के लिए भी प्रसिद्ध।

गजानन माधव मुक्तिबोध के उद्धरण

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दुनिया में नाम कमाने के लिए कभी कोई फूल नहीं खिलता है।

हमारे आलस्य में भी एक छिपी हुई, जानी-पहचानी योजना रहती है।

आज का प्रत्येक संवेदनशील व्यक्ति प्रेम का भूखा है।

फ़ुरसत निकालना भी एक कला है। गधे हैं जो फ़ुरसत नहीं निकाल पाते। फ़ुरसत के बिना साहित्य चिंतन नहीं हो सकता, फ़ुरसत के बिना दिन में सपने नहीं देखे जा सकते। फ़ुरसत के बिना अच्छी-अच्छी, बारीक-बारीक, महान बातें नहीं सूझतीं।

आलोचक का धर्म साहित्यिक नेतागिरी करना नहीं है, वरन् जीवन का मर्मज्ञ बनना और उसी विशेषता की सहायता से कला-समीक्षा करना भी है।

भारतीय साहित्य में उन लोगों की वाणी को ही प्रधानता मिली है, जिन्होंने आध्यात्मिक असंतोषों और अतृप्तियों को दूर करने की दिशा में, विवेक-वेदना-स्थिति से ग्रस्त होकर काम किया है।

मेरा स्वभाव या सिद्धांत या प्रवृत्ति कुछ ऐसी है (मेरे ख़याल से जो शायद सही भी है) कि जो व्यक्ति साहित्यिक दुनिया से जितना दूर रहेगा, उसमें अच्छा साहित्यिक बनने की संभावना उतनी ही ज़्यादा बढ़ जाएगी। साहित्य के लिए साहित्य से निर्वासन आवश्यक है।

अपने स्वयं के शिल्प का विकास केवल वही कवि कर सकता है, जिसके पास अपने निज का कोई ऐसा मौलिक-विशेष हो, जो यह चाहता हो कि उसकी अभिव्यक्ति उसी के मनस्तत्वों के आकार की, उन्हीं मनस्तत्वों के रंग की, उन्हीं के स्पर्श और गंध की ही हो।

लेखक अपनी अर्थहीन रचनाओं द्वारा और प्रकाशक अपनी अर्थ-लोलुप प्रवृत्ति द्वारा; तथा पाठक अपने पिछड़ेपन के द्वारा भी, साहित्य-सृजन के लिए प्रतिकूल परिस्थिति उत्पन्न कर देते हैं।

ऐतिहासिक अनुभूति के द्वारा मनुष्य के अपने आयाम असीम हो जाते हैं—उसका दिक् और काल उन्नत हो जाता है।

रचना-प्रक्रिया के भीतर केवल भावना, कल्पना, बुद्धि और संवेदनात्मक उद्देश्य होते हैं; वरन वह जीवनानुभव होता है जो लेखक के अंतर्जगत का अंग है, वह व्यक्तित्व होता है जो लेखक का अंतर्व्यक्तित्व है, वह इतिहास होता है जो लेखक का अपना संवेदनात्मक इतिहास है और केवल यही नहीं होता।

आलोचक के लिए सर्व-प्रथम आवश्यक है—अनुभवात्मक जीवन-ज्ञान, जो निरंतर आत्म-विस्तार से अर्जित होता है।

कहना होगा कि शिल्प की दृष्टि से शमशेर हिंदी के एक अद्वितीय कवि है।

शमशेर की आत्मा ने अपनी अभिव्यक्ति का एक प्रभावशाली भवन अपने हाथों तैयार किया है, उस भवन में जाने से डर लगता है—उसकी गंभीर प्रयत्नसाध्य पवित्रता के कारण।

अब अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे उठाने ही होंगे। तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब।

‘स्व’ से ऊपर उठना, ख़ुद की घेरेबंदी तोड़कर कल्पना-सज्जित सहानुभूति के द्वारा अन्य के मर्म में प्रवेश करना—मनुष्यता का सबसे बड़ा लक्षण है।

यदि लेखक के पास संवेदनात्मक महत्व-बोध नहीं है, या क्षीण है, तो विशिष्ट अनुभवों की अभिव्यक्ति क्षीण होगी।

आत्मा की सब अनुभूतियाँ ऐस्थेटिक नहीं होतीं, इसलिए वे काव्य-रूप में व्यक्त नहीं होतीं।

जो कमज़ोरी सब मनुष्यों में हो सकती है, वह कमज़ोरी नहीं—बल्कि मनुष्य की प्रकृति का गुण-धर्म है।

ज्ञात से अज्ञात की ओर जाने से ही ज्ञान की विशेषताएँ टूटती रहेगी; उसकी सरहदें टूटती रहेंगी, लेकिन जिस दिन से आप केवल ज्ञात से ज्ञात की ओर जाएँगे, उस दिन आप केवल अपनी ही कील पर अपने ही आसपास घूमते रहेंगे।

पाप के समय भी मनुष्य का ध्यान इज़्ज़त की तरफ़ रहता है।

साहित्यकारों के वर्ग में भी वास्तविक प्रतिभावान साहित्यिक बहुत थोड़े होते हैं।

आत्म-साक्षात्कार बहुत आसान है, स्वयं का चरित्र-साक्षात्कार अत्यंत कठिन है।

वह आलोचना, जो रचना-प्रकिया को देखे बिना की जाती है—आलोचक के अहंकार से निष्पन्न होती है। भले ही वह अहंकार आध्यात्मिक शब्दावली में प्रकट हो, चाहे कलावादी शब्दावली में, चाहे प्रगतिवादी शब्दावली में।

रवींद्रनाथ जिस सतह से बोलते हैं, जिस व्यापक जीवन के सर्वोच्च बिंदु पर खड़े होकर देश-देशांतर के जन-समुदाय के सामने वे अपने को प्रकट करते हैं, उस स्थान के अन्य अनुगामी कलाकार नहीं बोल पाते। उतना ही उनमें बौनापन है, जितनी कि रवींद्र में ऊँचाई।

आज की दुनिया में जिस हद तक शोषण बढ़ा हुआ है; जिस हद तक भूख और प्यास बढ़ी हुई है, उसी हद तक मुक्ति-संघर्ष भी बढ़ा हुआ है और उसी हद तक बुद्धि तथा हृदय की भूख-प्यास भी बढ़ी हुई है। आज के युग में साहित्य का यह कार्य है कि वह जनता के बुद्धि तथा हृदय की इस भूख-प्यास का चित्रण करे और उसे मुक्तिपथ पर अग्रसर करने के लिए ऐसी कला का विकास करे, जिससे जनता प्रेरणा प्राप्त कर सके और जो स्वयं जनता से प्रेरणा ले सके।

शमशेर की मूल मनोवृत्ति एक इंप्रेशनिस्टिक चित्रकार की है।

जो लोग 'जनता का साहित्य' से यह मतलब लेते हैं कि वह साहित्य जनता के तुरंत समझ में आए, जनता उसका मर्म पा सके, यही उसकी पहली कसौटी है—वे लोग यह भूल जाते हैं कि जनता को पहले सुशिक्षित और सुसंस्कृत करना है।

‘जनता का साहित्य’ का अर्थ, जनता को तुरंत ही समझ में आनेवाले साहित्य से हरगिज़ नहीं है।

व्यक्ति का विकास बाह्य-समाज में तो होता ही है, वह परिवार में भी होता है। परिवार व्यक्ति के अंतःकरण के संस्कार में तथा प्रवृत्ति-विकास में पर्याप्त योग देता है।

अभिव्यक्ति का अभ्यास कलाकार का एक मुख्य कर्त्तव्य है।

पुराने लेखक आग्रह-रूपी शास्त्रों से, नयों का वध करने का प्रयत्न करते ही रहते हैं।

कविता में कहाँ कितना फ़्रॉड होता है, यह मैं जानता हूँ। फ़्रॉड को आप कौशल भी कह सकते हैं।

ध्यान रखना चाहिए कि कवि किस सतह से बोल रहा है, यह हमेशा महत्वपूर्ण होता है और यही उसके निवेदनों या चित्रणों को द्योतित करता है।

सक्षम सुंदर अभिव्यक्ति तो अविरत साधना और श्रम के फलस्वरूप उत्पन्न होती है।

किसी भी व्यक्ति पर एकात्म श्रद्धा ग़लत है।

कवि का आभ्यंतर वास्तव-बाह्म का आभ्यंतरीकृत रूप ही है, इसीलिए कवि को अपने वास्तविक जीवन में रचना-बाह्म काव्यानुभव जीना पड़ता है।

प्रगतिशील जीवन-मूल्य, निम्न-मध्यवर्गीय श्रेणी के भावना-चित्रों में अधिक पाए जाते हैं।

अपने से ऊपर उठकर सोचने-समझने की शक्ति, भावना तथा मन की संवेदना—ये दो छोर हैं स्रष्टा मन के।

सच्चा लेखक जितनी बड़ी ज़िम्मेदारी अपने सिर पर ले लेता है, स्वयं को उतना अधिक तुच्छ अनुभव करता है।

मन के तत्त्व जीवन-जगत् के दिए हुए तत्त्व हैं।

पं. रामचंद्र शुक्ल जो निर्गुण मत को कोसते हैं, वह यों ही नहीं, इसके पीछे उनकी सारी पुराण-मतवादी चेतना बोलती है।

ऐतिहासिक-अनुभूति वह कीमिया है, जो मनुष्य का संबंध सूर्य के विस्फोटकारी केंद्र से स्थापित कर देती है।

अल्प-समृद्ध, दरिद्र जो आलोचक है, वह अपने को चाहे जितना बड़ा समझे; साहित्य-क्षेत्र का अनुशासक समझे—वह वस्तुतः साहित्य-विश्लेषण के अयोग्य है, कला-प्रक्रिया के कार्य में अक्षम है—भले ही वह साहित्य का 'शिखर' बनने का स्वांग रचे, मसीहा बने।

कवि को पंडित, आचार्य या संपादक होने की आवश्यकता नहीं है, उसके काव्य का सौंदर्य; उसके पांडित्य और आचार्यत्व पर निर्भर होकर, उसकी भाव-समृद्धि और अभिव्यक्ति-क्षमता पर निर्भर है।

निर्गुण मतवाद के जनोन्मुख रूप और उसकी क्रांतिकारी जातिवाद-विरोधी भूमिका के विरुद्ध, तुलसीदासजी ने पुराण-मतवादी स्वरूप प्रस्तुत किया।

साहित्य जीवन का प्रतिबिंब है, इसीलिए हमें सबसे पहले जीवन की चिंता होनी चाहिए।

प्रारंभिक श्रेणी के लिए उपयुक्त साहित्य तो साहित्य है और सर्वोच्च श्रेणी के लिए उपयुक्त साहित्य, जनता का साहित्य नहीं है—यह कहना जनता से गद्दारी करना है।

लेखक के साथ आप तब रह सकेंगे; जब आप में इतनी मानव-श्रद्धा हो कि लेखक-वर्ग में हृदय-समृद्धि, प्रतिभा-शक्ति और विकास तथा उन्नति की संभावनाएँ हैं—यह मानकर चलें। इसका अर्थ यह है कि आप लेखक की विरोधी और युक्तियुक्त आलोचना करें। इसका अर्थ यह है कि आप उस मनोवैज्ञानिक स्थिति-परिस्थिति को, उस साइकोलॉजिकल सिच्युएशन को समझें कि जो लेखक के साहित्य-सृजन का प्रारंभ-बिंदु बनती है।

सच बात तो यह है कि आत्मपरक रूप से विश्वपरक, जगतपरक होने की लंबी प्रक्रिया की अभिव्यक्ति ही कला है—अभिव्यक्ति-कौशल के क्षेत्र में और अनुभूति अर्थात् अनुभूत वस्तु-तत्व के क्षेत्र में।

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