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गजानन माधव मुक्तिबोध

1917 - 1964 | श्योपुर, मध्य प्रदेश

आधुनिक हिंदी कविता के अग्रणी कवियों में से एक। अपनी कहानियों और डायरी के लिए भी प्रसिद्ध।

आधुनिक हिंदी कविता के अग्रणी कवियों में से एक। अपनी कहानियों और डायरी के लिए भी प्रसिद्ध।

गजानन माधव मुक्तिबोध के उद्धरण

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दुनिया में नाम कमाने के लिए कभी कोई फूल नहीं खिलता है।

हमारे आलस्य में भी एक छिपी हुई, जानी-पहचानी योजना रहती है।

आज का प्रत्येक संवेदनशील व्यक्ति प्रेम का भूखा है।

अब अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे उठाने ही होंगे। तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब।

पाप के समय भी मनुष्य का ध्यान इज़्ज़त की तरफ़ रहता है।

सच्चा लेखक जितनी बड़ी ज़िम्मेदारी अपने सिर पर ले लेता है, स्वयं को उतना अधिक तुच्छ अनुभव करता है।

फिर वही यात्रा सुदूर की, फिर वही भटकती हुई खोज भरपूर की, कि वही आत्मचेतस् अंतःसंभावना, …जाने किन ख़तरों में जूझे ज़िंदगी!

मुक्ति अकेले में अकेले की नहीं हो सकती। मुक्ति अकेले में अकेले को नहीं मिलती।

सौंदर्यानुभूति, मनुष्य की अपने से परे जाने की, व्यक्ति-सत्ता का परिहार कर लेने की, आत्मबद्ध दशा से मुक्त होने की, मूल प्रवृत्ति से संबद्ध है।

जड़ीभूत सौंदर्याभिरुचि एक विशेष शैली को दूसरी शैली के विरुद्ध स्थापित करती है।

सच्चा लेखक जितनी बड़ी ज़िम्मेदारी अपने सिर पर ले लेता है, स्वयं को उतना अधिक तुच्छ अनुभव करता है।

संस्कृति का नेतृत्व करना जिस वर्ग के हाथ में होता है, वह समाज और संस्कृति के क्षेत्र में अपनी भाव-धारा और अपनी जीवन-दृष्टि का इतना अधिक प्रचार करता है, कि उसकी एक परंपरा बन जाती है। यह परंपरा भी इतनी पुष्ट, इतनी भावोन्मेषपूर्ण और विश्व-दृष्टि-समन्वित होती है, कि समाज का प्रत्येक वर्ग आच्छन्न हो जाता है।

कला का पहला क्षण है जीवन का उत्कट तीव्र अनुभव-क्षण। दूसरा क्षण है इस अनुभव का अपने कसकते दुखते हुए मूलों से पृथक हो जाना और एक ऐसी फैंटेसी का रूप धारण कर लेना, मानो वह फैंटेसी अपनी आँखों के सामने ही खड़ी हो। तीसरा और अंतिम क्षण है, इस फैंटेसी के शब्दबद्ध होने की प्रक्रिया का आरंभ और उस प्रक्रिया की परिपूर्णावस्था तक की गतिमानता।

जहाँ मेरा हृदय है, वहीं मेरा भाग्य है!

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अब तक क्या किया, जीवन क्या जिया!

अपनी मुक्ति के रास्ते अकेले में नहीं मिलते।

नहीं होती, कहीं भी ख़त्म कविता नहीं होती कि वह आवेग त्वरित काल-यात्री है।

जो व्यक्ति ज्ञान की उपलब्धि का सौभाग्य प्राप्त करके भी यदि अपने जीवन में असफल रहा आया, अर्थात् कीर्ति, प्रतिष्ठा और ऊँचा पद प्राप्त कर सका, तो उस व्यक्ति को सिरफिरा दिमाग़ी फ़ितूरवाला नहीं तो और क्या कहा जाएगा! अधिक से अधिक वह तिरस्करणीय, और कम से कम वह दयनीय है—उपेक्षणीय भले ही हो।

बड़ी और बहुत बड़ी ज़िंदगी जीना तभी हो सकता है, जब हम मानव की केंद्रीय प्रक्रियाओं के अविभाज्य और अनिवार्य अंग बनकर जिएँ।

जन संग ऊष्मा के बिना, व्यक्तित्व के स्तर जुड़ नहीं सकते।

जिज्ञासावाला व्यक्ति एक बर्बर असभ्य मनुष्य होता है। वह आदिम असभ्य मानव की भाँति हरेक जड़ी और वनस्पति चखकर देखना चाहता है। ज़हरीली वस्तु चखने का ख़तरा वह मोल ले लेता है। वह अपना ही दुश्मन होता है। वह अजीब, विचित्र, गंभीर और हास्यास्पद परिस्थिति में फँस जाता है।

आहतों का भी अपना एक अहंकार होता है।

किसी साहित्य का वास्तविक विश्लेषण हम तब तक नहीं कर सकते; जब तक कि हम उन गतिमान सामाजिक शक्तियों को नहीं समझते, जिन्होंने मनोवैज्ञानिक-सांस्कृतिक धरातल पर आत्मप्रकटीकरण किया है।

अच्छाई का पेड़ छाया प्रदान नहीं कर सकता, आश्रय प्रदान नहीं कर सकता।

जब तक मेरा दिया तुम किसी और को दोगे, तब तक तुम्हारी मुक्ति नहीं।

जहाँ-जहाँ जीवन के प्रति सच्चाई प्रकट की गई है, वहाँ-वहाँ कला अपने संपूर्ण सौंदर्य के साथ प्रकट हुई है। किंतु जहाँ किसी 'वाद' या बौद्धिक विश्वास से जीवन को देखा गया है, वहाँ जीवन की ताज़गी और उसका प्रवाह-संगीत लुप्त हो गया है।

रचना-प्रक्रिया से अभिभूत कवि जब भावों की प्रवहमान संगति संस्थापित करता चलता है, तब उस संगति की संस्थापना में उसे भावों का संपादन यानी एडीटिंग करना पड़ता है। यदि वह इस प्रकार भावों की काट-छाँट करे, तो मूल प्रकृति उसे संपूर्ण रूप से अपनी बाढ़ में बहा देगी और उसकी कृति विकृति में परिणत हो जाएगी।

जब भावना-प्रधान प्राणी बाह्य वास्तविकता की ओर मुड़ता है और अपनी सहज ईमानदारी के वशीभूत होकर उसके प्रति अपने को ज़िम्मेवार ठहराता है, तभी से उस साहित्य की उत्पत्ति होती है, जिसे हम आदर्शवादी साहित्य कह सकते हैं क्योंकि वह जीवन पर सोचने लगता है। जीवन की ट्रेजेडीज, उसके विरोध और विसंगतियाँ, उसके मन में बैठ जाती हैं।

अनुभवी कवि आभ्यंतर भाव-संपादन का महत्व जानता है।

गेय काव्य (लिरिकल पोएट्री) की रचना-प्रक्रिया; उस कविता की रचना-प्रक्रिया से बिल्कुल भिन्न है, जो मन की किसी प्रतिक्रिया-मात्र का रेखांकन करती है।

भावना की तीव्र आर्द्रता और सारे दुःखों और कष्टों के परिहार के लिए ईश्वर की पुकार के पीछे जनता की भयानक दुःस्थिति छिपी हुई थी।

कंडीशंड साहित्यिक रिफ्लेक्सेज, यंत्रवत कविताएँ तैयार करवाते हैं।

अस्ल में साहित्य एक बहुत धोखे की चीज़ हो सकती है।

झूठ से सच्चाई और गहरी हो जाती है—अधिक महत्त्वपूर्ण और प्राणवान।

  • संबंधित विषय : सच

कवि-जीवन की प्रथम-स्तरीय उपलब्धि, उस अंतःप्रकृति से साक्षात्कार है जो अपना कुछ विशेष कहना चाहती है, जिसके पास कुछ विशेष कहने के लिए है। इस आत्म-चेतना के प्रत्यक्ष संवेदनात्मक ज्ञान के बिना कोई कवि मौलिक नहीं हो सकता।

जल विप्लव है।

आदर्शवादी उपन्यासों की कमज़ोरी का प्रधान कारण है बौद्धिक या कभी-कभी (जैसे मेरी कॉरेली में) धार्मिक या नैतिक आदर्शों का, कला के साथ विषम संतुलन।

भक्ति-आंदोलन का आविर्भाव, एक ऐतिहासिक-सामाजिक शक्ति के रूप में जनता के दु:खों और कष्टों से हुआ, यह निर्विवाद है।

काव्य की रचना-प्रक्रिया के अंतर्गत तत्व-बुद्धि, भावना, कल्पना, इत्यादि एक होते हुए भी, प्रभाव-संगठक आंतरिक उद्देश्यों की भिन्नता के साथ ही रचना-प्रक्रिया भी वस्तुतः बदल जाती है।

सुधारवादियों की तथा आज की भी एक पीढ़ी को तुलसीदासजी के वैचारिक प्रभाव से संघर्ष करना पड़ा, यह भी एक बड़ा सत्य है।

जिस तरह सामाजिक व्यथा से जाग्रत मानवी-आत्मा यथार्थवादी हो जाती है, उसी तरह अपनी संपन्न परिस्थिति में; अपनी भावनाओं के मनोहर कोष से चेतन मानव-आत्मा, भावना-प्रधान और कल्पना-प्रधान—जिसे रोमैंटिक कहते हैं, हो जाती है।

केवल ग्रामीण स्थिति देख-भर लेने से या गाँवों के वातावरण में लेखक के रहने से सच्चे यथार्थवादी साहित्य का जन्म नहीं हो सकता, जब तक लेखक की आत्मा ग्रामीणता में स्वयं नहीं पनपती और वहाँ की क्रिया-प्रतिक्रिया से प्रवहनशील होकर साहित्य में नहीं उतरती।

भक्ति-भावना के राजनीतिक गर्भितार्थ थे। ये राजनीतिक गर्भितार्थ तत्कालीन सामंती शोषक वर्गों और उनकी विचारधार के समर्थकों के विरुद्ध थे।

भक्तिकालीन संतों के बिना महाराष्ट्रीय भावना की कल्पना नहीं की जा सकती, सिख गुरुओं के बिना सिख जाति की।

स्वयं के भाव-स्वभाव से घनिष्ठ परिचय के अभाव में, व्यक्तिगत अभिव्यक्ति-शैली का विकास नहीं हो सकता।

जीवन किसी भी दायरे में बंध नहीं सकता।

सच्ची आर्थिक-सामाजिक समानता तब तक प्राप्त नहीं हो सकती, जब तक कि समाज आर्थिक-सामाजिक आधार पर वर्गहीन हो जाए।

वास्तव में देखा जाए तो रोमांस और यथार्थवाद में केवल परिस्थिति का भेद है।

शृंगार-भक्ति का रूप उसी वर्ग में सर्वाधिक प्रचलित हुआ, जहाँ ऐसी शृंगार-भावना के परिपोष के लिए पर्याप्त अवकाश और समय था—फुर्सत का समय।

आहतों का भी अपना एक अहंकार होता है।

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