बिहारी के दोहे
कहत, नटत, रीझत, खिझत, मिलत, खिलत, लजियात।
भरे भौन मैं करत हैं, नैननु ही सब बात॥
सखी कह रही है कि नायक अपनी आँखों के इशारे से कुछ कहता है अर्थात् रति की प्रार्थना करता है, किंतु नायिका उसके रति विषयक निवेदन को अस्वीकार कर देती है। वस्तुतः उसका अस्वीकार स्वीकार का ही वाचक है तभी तो नायक नायिका के निषेध पर भी रीझ जाता है। जब नायिका देखती है कि नायक इतना कामासक्त या प्रेमासक्त है कि उसके निषेध पर भी रीझ रहा है तो उसे खीझ उत्पन्न होती है। ध्यान रहे, नायिका की यह खीझ भी बनावटी है। यदि ऐसी न होती तो पुनः दोनों के नेत्र परस्पर कैसे मिलते? दोनों के नेत्रों का मिलना परस्पर रति भाव को बढ़ाता है। फलतः दोनों ही प्रसन्नता से खिल उठते हैं, किंतु लज्जित भी होते हैं। उनके लज्जित होने का कारण यही है कि वे यह सब अर्थात् प्रेम-विषयक विविध चेष्टाएँ भरे भवन में अनेक सामाजिकों की भीड़ में करते हैं।
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दुरत न कुच बिच कंचुकी, चुपरी सारी सेत।
कवि-आँकनु के अरथ लौं, प्रगटि दिखाई देत॥
नायिका ने श्वेत रंग की साड़ी पहन रखी है। श्वेत साड़ी से उसके सभी अंग आवृत्त हैं। उस श्वेत साड़ी के नीचे वक्षस्थल पर उसने इत्र आदि से सुगंधित मटमैले रंग की कंचुकी धारण कर रखी है। इन दोनों वस्त्रों के बीच आवृत्त होने पर भी नायिका के स्तन सूक्ष्म दृष्टि वाले दर्शकों के लिए छिपे हुए नहीं रहते हैं। भाव यह है कि अंकुरित यौवना नायिका के स्तन श्वेत साड़ी में
छिपाए नहीं छिप रहे हैं। वे उसी प्रकार स्पष्ट हो रहे हैं जिस प्रकार किसी कवि के अक्षरों का अर्थ प्रकट होता रहता है। वास्तव में कवि के अक्षरों में अर्थ भी स्थूलत: आवृत्त किंतु सूक्ष्म दृष्टि के लिए प्रकट रहता है।
तो पर वारौं उरबसी, सुनि, राधिके सुजान।
तू मोहन कैं उर बसी, है उरबसी-समान॥
हे सुजान राधिके, तुम यह समझ लो कि मैं तुम्हारे रूप-सौंदर्य पर उर्वशी जैसी नारी को भी न्यौछावर कर सकता हूँ। कारण यह है कि तुम तो मेरे हृदय में उसी प्रकार निवास करती हो, जिस प्रकार उर्वशी नामक आभूषण हृदय में निवास करता है।
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भई जु छवि तन बसन मिलि, बरनि सकैं सुन बैन।
आँग-ओप आँगी दुरी, आँगी आँग दुरै न॥
नायिका न केवल रंग-रूप में सुंदर है अपितु उसके स्तन भी उभार पर हैं। वह चंपकवर्णी पद्मिनी नारी है। उसने अपने रंग के अनुरूप ही हल्के पीले रंग के वस्त्र पहन रखे हैं। परिणामस्वरूप उसके शरीर के रंग में वस्त्रों का रंग ऐसा मिल गया है कि दोनों के बीच कोई अंतर नहीं दिखाई देता है। अर्थात् नायिका के शरीर की शोभा से उसकी अंगिया छिप गई है, किंतु अंगिया के भीतर उरोज नहीं छिप पा रहे हैं। व्यंजना यह है कि नायिका ऐसे वस्त्र पहने हुए है कि उसके स्तनों का सौंदर्य न केवल उजागर हो रहा है, अपितु अत्यंत आकर्षक भी प्रतीत हो रहा है।
मेरी भव-बाधा हरौ, राधा नागरि सोइ।
जा तन की झाँई परैं, स्यामु हरित-दुति होइ॥
इस दोहे के तीन अलग-अलग अर्थ बताए गए हैं।
चमक, तमक, हाँसी, ससक, मसक, झपट, लपटानि।
एजिहिं रति, सो रति मुकति, और मुकति अति हानि॥
जिस काम-क्रीड़ा में अंगों की चंचलता, उत्तेजना की अधिकता, हँसी, सीत्कार, मर्दन और छीन-झपटी जैसे भाव न हों, वह व्यर्थ है। हाँ, जिसमें ये भाव हों, वह काम-क्रीड़ा मुक्ति के समान है। इसके अतिरिक्त यदि कोई और मुक्ति है तो वह व्यर्थ है अर्थात् हानिकारक है।
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कोऊ कोटिक संग्रहौ, कोऊ लाख हजार।
मो संपति जदुपति सदा, बिपति-बिदारनहार॥
कोई चाहे करोड़ों की संपत्ति एकत्र कर ले, चाहे कोई लाख हजार अर्थात् दस करोड़ की संपदा प्राप्त कर ले। मुझे उससे और उसकी संपदा से कुछ भी लेना-देना नहीं है। कारण यह है कि मेरी असली संपत्ति तो यदुवंशी कृष्ण हैं, जो सदा ही विपत्तियों को विदीर्ण करने वाले हैं।
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अर तैं टरत न वर-परे, दई मरक मु मैन।
होड़ा-होड़ी बढ़ि चले चित, चतुराई नैन॥
एक सखी दूसरी सखी से कह रही है कि ऐसा प्रतीत होता है कि कामदेव रूपी नायक की प्रेरणा से ‘चित-चातुरी’ और ‘नयन-विस्तार’ रूपी दूती और दूत में इस बात की स्पर्धा जगी हुई है कि नायिका के शरीर को कौन कितनी शीघ्रता से काम के प्रभाव से प्रभावित कर पाता है। वास्तविकता यह है कि नायिका के शरीर में यौवनोन्मेष के साथ-साथ उसके चित्त की चपलता और नेत्रों का विस्तार बढ़ता जा रहा है। इन दोनों अंगों में कौन अधिक बढ़ा है या गतिमय हुआ है, यह निर्णय करना कठिन हो गया है। यही कारण है कि बिहारी ने मनोगत चंचलता की वृद्धि और नेत्रों के विस्तार की गति में होड़ की कल्पना की है।
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जटित नीलमनि जगमगति, सींक सुहाई नाँक।
मनौ अली चंपक-कली, बसि रसु लेतु निसाँक॥
नायिका की नाक पर नीलम जड़ी हुई लोंग को देखकर नायक कहता है कि नायिका की सुहावनी नाक पर नीलम जटित सुंदर लोंग जगमगाती हुई इस प्रकार शोभायमान हो रही है मानों चंपा की कली पर बैठा हुआ भौंरा निःशंक होकर रसपान कर रहा हो।
पति रति की बतियाँ कहीं, सखी लखी मुसकाइ।
कै कै सबै टलाटलीं, अलीं चलीं सुखु पाइ।।
बिहारी कह रहे हैं कि प्रियतम ने नायिका से रति की बातें कहना प्रारंभ कर दिया । नायिका भी चतुर थी अत: वह अपनी सखियों की ओर देखकर मुस्करा दी। सखियाँ भी नायिका की ही भाँति चतुर थीं अत: वे भी रति-रहस्य के संकेत को समझ गईं और बड़ी प्रसन्नता से धीरे-धीरे कोई-न-कोई बहाना लगाती हुई वहाँ से उठकर चल दी।
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सायक-सम मायक नयन, रँगे त्रिबिध रंग गात।
झखौ बिलखि दुरि जात जल, लखि जलजात लजात॥
कवि कह रहा है कि नायिका की आँखें ऐसी हैं कि मछलियाँ भी उन्हें देखकर पानी में छिप जाती हैं, कमल लजा जाते हैं। नायिका के मादक और जादुई नेत्रों के प्रभाव से कमल और मछलियाँ लज्जित हो जाती हैं। कारण, नायिका के नेत्र संध्या के समान हैं और तीन रंगों—श्वेत, श्याम और रतनार से रँगे हुए हैं। यही कारण है कि उन्हें देखकर मछली दु:खी होकर पानी में छिप जाती है और कमल लज्जित होकर अपनी पंखुड़ियों को समेट लेता है। सांध्यवेला में श्वेत, श्याम और लाल तीनों रंग होते हैं और नायिका के नेत्रों में भी ये तीनों ही रंग हैं। निराशा के कारण वे श्याम हैं, प्रतीक्षा के कारण पीले या श्वेत हैं और मिलनातुरता के कारण लाल या अनुरागयुक्त हो रहे हैं।
पाइ महावरु दैंन कौं नाइनि बैठी आइ।
फिरि फिरि, जानि महावरी, एड़ी मीड़ति जाइ॥
नाइन नायिका के महावर लगाने के लिए आई हुई है। वह पैरों में महावर लगाने के लिए आती है और नायिका के समक्ष बैठ जाती है। नाइन महावरी अर्थात् लाल रंग से सराबोर कपड़ा कहीं रखकर भूल जाती है और भ्रम से नायिका की एड़ी को ही महावरी समझ बैठती है, क्योंकि नायिका की एड़ी इतनी कोमल और लाल है कि नाइन को भ्रम हो जाता है और परिणाम स्वरूप वह बार-बार नायिका की एड़ियों को मींड़ती जाती है।
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मरनु भलौ बरु बिरह तैं, यह निहचय करि जोइ।
मरन मिटै दुखु एक कौ, बिरह दुहूँ दुखु होइ॥
एक सखी नायिका से कह रही है कि किसी पड़ौसिन ने मृत्यु को विरह से श्रेष्ठ समझकर मरने का निश्चय कर लिया है। वास्तव में उसने ठीक ही किया है, क्योंकि विरह के ताप में धीरे-धीरे जलते हुए मरने से एक साथ मरना कहीं अधिक श्रेयस्कर है। कारण यह भी है कि मरने से केवल प्रिय को दुख होगा, किंतु प्रिया विरह के दुख से सदैव के लिए मुक्त हो जाएगी। विरह में तो प्रेमी और प्रिय दोनों को दुख होता है, किंतु मृत्यु में केवल प्रेमी को दुख होगा।
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कब कौ टेरतु दीन रट, होत न स्याम सहाइ।
तुमहूँ लागी जगत-गुरु, जग-नाइक, जग-बाइ॥
हे भगवान, मैं आपको कब से कातर स्वर में पुकार रहा हूँ, किंतु आप मेरे सहायक नहीं हो रहे हैं। हे संसार के गुरु, हे संसार के नायक, क्या मैं यह समझ लूँ कि आपको भी इस संसार की हवा लग गई है?
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जपमाला छापैं तिलक, सरै न एकौ कामु।
मन-काँचे नाचै वृथा, साँचै राँचै रामु॥
माला लेकर किसी मंत्र-विशेष का जाप करने से तथा मस्तक एवं शरीर के अन्य अंगों पर तिलक-छापा लगाने से तो एक भी काम पूरा नहीं हो सकता, क्योंकि ये सब तो आडंबर मात्र हैं। कच्चे मन वाला तो व्यर्थ ही में नाचता रहता है, उससे राम प्रसन्न नहीं होते। राम तो सच्चे मन से भक्ति करने वाले व्यक्ति पर ही प्रसन्न होते हैं।
हा हा! बदनु उघारि, दृग सफल करैं सबु कोइ।
रोज सरोजनु कैं परै, हँसी ससी की होइ॥
सखी कहती है कि हे प्रिय सखी! हमारे नेत्र कितनी देर से व्याकुल हैं। मैं हा-हा खा रही हूँ कि तू अपने मुख से घूँघट हटा ले ताकि हमारी व्याकुलता शांत हो और तेरे सुंदर मुख के दर्शन हों। जब तू अपने मुख को अनावृत्त कर लेगी, तो अपनी पराजय में कमल साश्रु हो जाएँगे और मुख के ढके रहने पर इठलाने वाला यह चंद्रमा पूर्णतः उपहास का पात्र बन जाएगा।
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नहिं परागु नहिं मधुर मधु, नहिं बिकासु इहिं काल।
अली कली ही सौं बंध्यौ, आगैं कौन हवाल॥
नायिका में आसक्त नायक को शिक्षा देते हुए कवि कहता है कि न तो अभी इस कली में पराग ही आया है, न मधुर मकरंद ही तथा न अभी इसके विकास का क्षण ही आया है। अरे भौरे! अभी तो यह एक कली मात्र है। तुम अभी से इसके मोह में अंधे बन रहे हो। जब यह कली फूल बनकर पराग तथा मकरंद से युक्त होगी, उस समय तुम्हारी क्या दशा होगी? अर्थात् जब नायिका यौवन संपन्न सरसता से प्रफुल्लित हो जाएगी, तब नायक की क्या दशा होगी?
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चलन नापावतु निगम-मगु, जगु उपज्यौ अति त्रासु।
कुच-उतंग गिरिवर गह्यौ, मैना मैनु मवासु॥
नायिका के उन्नत उरोजों को देखकर नायक अपने आप ही यह कहता है कि कामदेव रूपी मैना ने स्तन रूपी उच्च पर्वत को अपना अभेद्य स्थान बना लिया है। परिणामस्वरूप संसार में बड़ा भय उत्पन्न हो गया है। अब वेदविहित मार्ग रूपी वणिक पथ का अनुसरण करना कठिन हो गया है। अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार से पहाड़ में बसने वाले मैना अर्थात् डाकू के भय से व्यापारियों का चलना कठिन हो जाता है, उसी प्रकार नायिका के उन्नत उरोजों में कामदेव के निवास के कारण धर्म के पथ पर चलना कठिन हो गया है। स्पष्ट संकेत है कि बड़े-बड़े धार्मिक प्रवृत्ति वाले व्यक्यिों का मन भी नायिका के उन्नत उरोजों को देखकर चंचल हो गया है।
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तरिवन-कनकु कपोल-दुति, बिच बीच हीं बिकान।
लाल लाल चमकति चुनीं, चौका-चिह्न-समान॥
एक सखी नायिका से कह रही है कि तेरे तरौने अर्थात् कर्णाभूषण का सोना तो तेरे कपोलों की कांति में विलीन हो गया है, किंतु उसमें लगी हुई लाल-लाल चुन्नियाँ अर्थात् माणिक्य दाँतों के चिह्न के समान चमक रही है। वास्तव में नायिका के कपोलों का वर्ण सुनहरा है। अतः सोने का बना हुआ ताटंक गालों की सुनहली कांति में खो जाता है। हाँ, ताटंक में लगी हुई लाल-लाल चुन्नियाँ अवश्य दिखाई पड़ती हैं। वे ऐसी लगती हैं, मानो नायिका के कपोलों में नायक द्वारा लगाए गए दाँतों के चिह्न हों।
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या अनुरागी चित्त की, गति समुझै नहिं कोइ।
ज्यौं-ज्यौं बूड़ै स्याम रँग, त्यौं-त्यौं उज्जलु होई॥
मनुष्य के अनुरागी हृदय की वास्तविक गति और स्थिति को कोई भी नहीं समझ सकता है। जैसे-जैसे मन कृष्ण-भक्ति के रंग में डूबता जाता है, वैसे-वैसे वह अधिक उज्ज्वल से उज्ज्वलतर होता जाता है।
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सहज सचिक्कन, स्याम रुचि, सुचि, सुगंध, सुकुमार।
गनतु न मनु पथु अपथु, लखि बिथुरे सुथरे बार॥
नायक जिस नायिका पर अनुरक्त है, वह उसके लिए धर्म-दृष्टि से ग्राह्य नहीं है, किंतु, नायक नायिका के श्याम और सहज रूप से दिखने वाले बालों पर ही रीझ गया है। नायक कह रहा है कि उस नायिका के सहज स्निग्ध श्याम वर्ण के पावन और स्वच्छ सुगंधित बाल मुझे आकर्षित करते रहते हैं। उसके बालों की शोभा देखकर मेरा मन परवश और चंचल हो जाता है। अत: वह यह नहीं निर्णय कर पाता है कि उस सुंदर सहज ढंग से सँवारे हुए बालों वाली नायिका से प्रेम करना उचित है अथवा अनुचित है।
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पिय−बिछुरन कौ दुसहु दुखु, हुरषु जात प्यौसार।
दुरजोधन लौं देखयति तजत प्रान इहि बार॥
एक नायिका अपनी ससुराल से अपने पीहर जा रही है। अतः एक ओर तो उसे अपने पिता के घर जाने के सुख है तो दूसरी ओर अपने प्रियतम के बिछोह का दुःख भी है। कवि बिहारी ने नायिका की इस सुख-दुःखमय मनोस्थिति की समानता दुर्योधन के अंतकाल से प्रकट की है। बिहारी कह रहे हैं कि पीहर जाती हुई नायिका को पीहर जाने का तो हर्ष है और अपने प्रियतम से बिछुड़ने का दुःख हो रहा है। इस प्रकार इस बार जाते समय उस नायिका की वही स्थिति है जो दुर्योधन की प्राणांत होते समय की थी।
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संपति केस, सुदेस नर नवत, दुहुति इक बानि।
विभव सतर कुच, नीच नर, नरम विभव की हानि॥
केश और श्रेष्ठ पद वाले व्यक्ति संपत्ति के कारण नम्र हो जाते हैं या झुकने लगते हैं, किंतु उरोज और नीच नर वैभवहीन होने पर ही झुकते हैं। कवि कह रहा है कि केश-वृद्धि प्राप्त करके झुकने लगते हैं। यही स्थिति अच्छे पद पर स्थित सत्पुरुषों की होती है। सत्पुरुष भी अच्छा पद प्राप्त करके या समृद्धि प्राप्त करके झुकने लगते हैं। नीच लोगों की स्थिति इसके विपरीत होती है। कुच और नीच मनुष्य वैभवहीन होकर ही झुकते हैं। उरोज यौवन का वैभव पाकर कठोर हो जाते हैं, किंतु वैभवहीन होते ही अर्थात् यौवन समाप्त होते होती ही वे शिथिल हो जाते हैं। यही स्थिति नीच मनुष्यों की होती है। वे ऐश्वर्य पाकर तो कठोर होते हैं, किंतु ऐश्वर्यहीन होकर विनम्रता धारण कर लेते हैं।
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या अनुरागी चित्त की गति समुझै नहिं कोई।
ज्यौं ज्यौं बूड़ै स्याम रँग, त्यौं त्यौं उज्जलु होई॥
मनुष्य के अनुरागी हृदय की वास्तविक गति और स्थिति को कोई भी नहीं समझ सकता है। जैसे-जैसे मन कृष्ण-भक्ति के रंग में डूबता जाता है, वैसे-वैसे वह अधिक उज्ज्वल से उज्ज्वलतर होता जाता है। यानी जैसे-जैसे व्यक्ति भक्ति के रंग में डूबता है वैसे-वैसे वह अपने समस्त दुर्गुणों से दूर होता जाता है।
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जुवति जोन्ह मैं मिलि गई, नैंक न होति लखाइ।
सौंधे कैं डोरैं लगी अली, चली सँग जाइ॥
अभिसार के लिए एक नायिका अपनी सखी के साथ चाँदनी रात में जा रही है। आसमान से चाँदनी की वर्षा हो रही है और धरती पर नायिका के शरीर का रंग भी चाँदनी की तरह उज्ज्वल और गोरा है। ऐसी स्थिति में नायिका का शरीर चाँदनी में लीन हो गया है। सखी विस्मय में पड़ गई है कि नायिका कहाँ है? ऐसी स्थिति में वह केवल नायिका के शरीर की गंध के सहारे आगे बढ़ती जा रही है। इसी स्थिति का वर्णन करते हुए बिहारी कह रहे हैं कि नायिका अपने गौर और स्वच्छ वर्ण के कारण चाँदनी में विलीन हो गई है। उसका स्वतंत्र और पृथक् अस्तित्व दिखलाई नहीं दे रहा है। यही कारण है कि उसके साथ चलने वाली सखी नायिका के शरीर से आने वाली पद्म गंध का सहारा लेकर साथ-साथ चली जा रही है।
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खरी पातरी कान की, कौन बहाऊ बानि।
आक-कलीन रली करै अली, अली, जिय जानि॥
हे सखी, तू कान की बड़ी पतली अर्थात् कच्ची है। पता नहीं, तुझमें कौन-सी बुरी आदत है कि तू बिना सम्यक् विचार किए सबकी बातों पर यों ही विश्वास कर लेती है। मैं तुझे समझाते हुए यह कहना चाहती हूँ कि तू मेरी बात को निश्चित रूप से सत्य मान ले कि भ्रमर किसी स्थिति में आक की कली से विहार नहीं कर सकता है। अर्थात् तुम्हारा प्रेयस किसी अन्य स्त्री का संसर्ग कभी नहीं करेगा।
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पत्रा ही तिथि पाइयै, वा घर के चहुँ पास।
नित प्रति पून्यौईं रहै, आनन-ओप-उजास॥
उस नायिका के घर के चारों ओर इतना प्रकाश रहता है कि केवल पंचांग की सहायता से ही तिथि का पता लग सकता है। कहने का तात्पर्य यह है कि नायिका का मुख पूर्णिमा के चंद्रमा के समान सुंदर है। इसलिए नायिका के घर के चारों ओर हमेशा पूर्णिमा ही बनी रहती है, परिणामस्वरूप तिथि की जानकारी ही नहीं हो पाती है। यदि कोई तिथि जानना चाहता है तो उसके लिए उसे पंचांग से ही सहायता लेनी पड़ती है।
तंत्री नाद, कबित्त रस, सरस राग, रति-रंग।
अनबूड़े बूड़े, तरे जे बूड़े सब अंग॥
वीणा आदि वाद्यों के स्वर, काव्य आदि ललित कलाओं की रसानुभूति तथा प्रेम के रस में जो व्यक्ति सर्वांग डूब गए हैं, वे ही इस संसार-सागर को पार कर सकते हैं। जो इनमें डूब नहीं सके हैं, वे इस भव-सिंधु में ही फँसकर रह जाते हैं अर्थात् संसार-का संतरण नहीं कर पाते हैं। कवि का तात्पर्य यह है कि तंत्री-नाद इत्यादि ऐसे पदार्थ हैं जिनमें बिना पूरण रीति से प्रविष्ट हुए कोई भी आनंद नहीं मिल पाता है। यदि इनमें पड़ना हो तो पूर्णतया पड़ो। यदि पूरी तरह नहीं पड़ सकते हो तो इनसे सर्वथा दूर रहना ही उचित व श्रेयस्कर है।
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कागद पर लिखत न बनत, कहत सँदेसु लजात।
कहि है सबु तेरौ हियौ मेरे हिय की बात॥
नायिका अपने प्रेयस को पत्र लिखने बैठती है तभी या तो उसके हाथ काँपने लगते हैं या वह भावावेश में आकर इतनी भाव-विभोर हो जाती है कि कंपन स्नेह अश्रु जैसे सात्विक भाव काग़ज़ पर अक्षरों का आकार नहीं बनने देते। इसके विपरीत यदि वह किसी व्यक्ति के माध्यम से नायक के पास संदेश भेजे तो यह समस्या उठ खड़ी होती है कि किसी दूसरे व्यक्ति से अपने मन की गुप्त बातें कैसे कहे? स्पष्ट शब्दों में संदेश कहने में उसे लज्जा का अनुभव होता है। विकट परिस्थिति है कि नायिका न तो पत्र भेज सकती है और न संदेश ही प्रेषित कर सकती है। इस विषमता से ग्रस्त अंततः वह हताश होकर ख़ाली काग़ज़ का टुकड़ा बिना कुछ लिखे ही नायक के पास भेज देती है। इस काग़ज़ के टुकड़े को भेजने के साथ वह यह अनुमान लगा लेती है कि यदि नायक के मन में भी मेरे प्रति मेरे जैसा ही गहन प्रेम होगा तो वह इस ख़ाली काग़ज़ को देखकर भी मेरे मनोगत एवं प्रेमपूरित भावों को स्वयं ही पढ़ लेगा।
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तो पर वारौं उरबसी, सुनि, राधिके सुजान।
तू मोहन कैं उर बसी ह्वै उरबसी-समान॥
कृष्ण कहते हैं कि हे सुजान राधिके, तुम यह समझ लो कि मैं तुम्हारे रूप-सौंदर्य पर उर्वशी जैसी नारी को भी न्यौछावर कर सकता हूँ। कारण यह है कि तुम तो मेरे हृदय में उसी प्रकार निवास करती हो, जिस प्रकार उर्वशी नामक आभूषण हृदय में निवास करता है।
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कुच-गिरि चढ़ि अति थकित है, चली डीठि मुँह-चाड़।
फिरि न टरी, परियै रही, गिरी चिबुक की गाड़॥
नायिका की चिबुक अर्थात् ठोढ़ी के सौंदर्य पर आसक्त नायक स्वगत कह रहा है कि मेरी दृष्टि नायिका के स्तन-पर्वतों पर चढ़कर उसकी शोभा पर मुग्ध होकर उसकी मुख-छवि को देखने के लिए जैसे ही मुख की ओर बढ़ी, वैसे ही वह वहाँ अर्थात् मुख-सौंदर्य का पान करने के लिए, पहुँचने से पूर्व ही चिबुक के गर्त में गिर गई। भाव यह है कि नायिका की मुख छवि देखने से पूर्व ही नायक नायिका के चिबुक-सौंदर्य पर रीझ गया।
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पलकु पीक, अंजनु अधर, धरे महावरु भाल।
आजु मिले, सु भली करी; भले बने हौ लाल॥
नायक के परस्त्रीरमण करने पर नायिका व्यंग्य का सहारा लेकर अपने क्रोध को व्यक्त करती है। वह कहती है कि हे प्रिंयतम, आपके पलकों में पीक, अधरों पर अंजन और मस्तक पर महावर शोभायमान है। आज बड़ा शुभ दिन है कि आपने दर्शन दे दिए। व्यंग्यार्थ यह है आज आप रंगे हाथों पकड़े गए हो। परस्त्रीरमण के सभी चिह्न स्पष्ट रूप से दिखलाई दे रहे हैं। पलकों में पर स्त्री के मुँह की पीक लगी हुई है, अधरों पर अंजन लगा है और मस्तक पर महावर है। ये सभी चिह्न यह प्रामाणित कर रहे हैं कि तुम किसी परकीया से रमण करके आए हो। स्पष्ट संकेत मिल रहा है कि उस परकीया ने पहले तो कामावेश में आकर तुम्हारे मुख का दंत लिया होगा, परिणामस्वरूप उसके मुख की पान की पीक तुम्हारे पलकों पर लग गई। जब प्रतिदान देना चाहा तो वह नायिका मानिनी हो गई। जब तुमने उसके अधरों का दंत लेना चाहा तो वह अपने को बचाने लगी। परिणामस्वरूप उसके नेत्रों से तुम्हारे अधर टकरा गए और उसकी आँखों का काजल तुम्हारे अधरों पर लग गया। अंत में उसे मनाने के लिए तुमने अपना मस्तक उसके चरणों पर रख दिया, इससे उसके पैरों का महावर आपके मस्तक पर लग गया है। इतने पर भी जब वह नहीं मानी तब आप वहाँ से चले आए और आपको मेरा याद आई। चलो,अच्छा हुआ इस बहाने ही सही, आपके दर्शन तो हो गए।
कौन भाँति रहिहै बिरदु, अब देखिवी, मुरारि।
बीधे मोसौं आइ कै, गीधे गीधहिं तारि॥
हे मुरारि, तुम जटायु का उद्धार करके बहुत गीध गए हो अर्थात् अहंकार से युक्त हो गए हो। व्यंजना यह है कि तुमने यह मान लिया है कि जटायु का उद्धार कोई नहीं कर सकता था और वह केवल तुमने किया है। अब देखना यह है कि तुम मुझ जैसे महापापी का उद्धार कैसे करते हो? अब तुम्हारा मुझसे पाला पड़ा है। मुझ जैसे महापापी का उद्धार तुम कर नहीं पाओगे और जब मेरा उद्धार नहीं कर पाओगे तो तुम्हारे उद्धारक रूप की ख्याति किस प्रकार सुरक्षित रहेगी?
जिन दिन देखे वे कुसुम, गई सु बीति बहार।
अब अलि रही गुलाब में, अपत कँटीली डार॥
हे भ्रमर! जिन दिनों तूने वे सुंदर तथा सुगंधित पुष्प देखे थे, वह बहार बीत गई। अब (तो) गुलाब में बिन पत्ते की कंटकित डाल रह गई है (अब इससे दुःख छोड़ सुख की सम्भावना नहीं है)।
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औरै भाँति भएऽब, ए चौसरु, चंदनु, चंदु।
पति-बिनु अति पारतु बिपति, मारतु मारुतु मंदु॥
प्रस्तुत दोहे में एक विरह-निपीड़ता नायिका के संताप की शांति के लिए उसकी सखी पुष्पों की माला आदि शीतल पदार्थ जुटाती है। विरह का ताप इतना अधिक है कि नायिका को इस प्रकार के पदार्थ भी अच्छे नहीं लगते हैं। वह इन पदार्थों को देखकर और अपनी मन:स्थिति के अनुसार अपनी सखी से कहती है कि हे सखी, ध्यान से सुन कि अब तो पुष्पों की यह माला, चंदन और चंद्रमा आदि सभी शीतल पदार्थ मेरे लिए कुछ और प्रकार के हो गए हैं। भाव यह है कि ये सभी वस्तुएँ शीतल हैं, किंतु मेरी वर्तमान स्थिति में ये सभी मुझे दुःखद प्रतीत हो रही हैं। इतना ही नहीं, प्रिय के बिना शीतल मन्द पवन भी मुझे दाहक प्रतीत हो रहा है। संकेत यह है कि संयोग के सुखद क्षणों में जो वस्तुएँ शीतल और आनंददायक प्रतीत होती हैं, वे सभी अब प्रिय के अभाव में कष्टदायक प्रतीत हो रही हैं।
विरह-दग्ध नायिका अपनी सहेली से कहती है कि कि अब तो पुष्पों की यह माला, चंदन और चंद्रमा आदि सभी शीतल पदार्थ मेरे लिए कुछ और प्रकार के हो गए हैं। भाव यह है कि ये सभी वस्तुएँ शीतल हैं, किंतु मेरी वर्तमान स्थिति में ये सभी मुझे दुःखद प्रतीत हो रही हैं। इतना ही नहीं, प्रिय के बिना शीतल मंद पवन भी मुझे दाहक प्रतीत हो रहा है। संकेत यह है कि संयोग के सुखद क्षणों में जो वस्तुएँ शीतल और आनंददायक प्रतीत होती हैं, वे सभी अब प्रिय के अभाव में कष्टदायक प्रतीत हो रही हैं।
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जपमाला, छापैं, तिलक सरै न एकौ कामु।
मन-काँचे नाचै वृथा, साँचै राँचै रामु॥
माला लेकर किसी मंत्र-विशेष का जाप करने से तथा मस्तक एवं शरीर के अन्य अंगों पर तिलक-छापा लगाने से तो एक भी काम पूरा नहीं हो सकता, क्योंकि ये सब तो आडंबर मात्र हैं। कच्चे मन वाला तो व्यर्थ में ही नाचता रहता है, उससे राम प्रसन्न नहीं होते। राम तो सच्चे मन से भक्ति करने वाले व्यक्ति पर ही प्रसन्न होते हैं।
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अपने अँग के जानि कै जोबन-नृपति प्रवीन।
स्तन, मन, नैन, नितंब कौ बड़ौ इजाफा कीन॥
यौवन रूपी प्रवीण राजा ने नायिका के चार अंगों पर अपना अधिकार कर लिया है। उन अंगों को अपना मानते हुए अपनी सेना के चार अंग स्वीकार कर उनकी वृद्धि कर दी है। ऐसा उसने इसलिए किया है कि वे सभी अंग उसके वश में रहे। ये चार अंग यौवन रूपी राजा की चतुरंगिणी सेना के प्रतीक हैं। ये अंग हैं−स्तन, मन, नेत्र और नितंब। स्वाभाविक बात यह है कि जब यौवनागम होता है तब स्वाभाविक रूप से शरीर के इन अंगों में वृद्धि होती है। जिस प्रकार कोई राजा अपने सहायकों को अपना मानकर उनकी पदोन्नति कर देता है, उसी प्रकार यौवनरूपी राजा ने स्तन, मन, नेत्र और नितंब को अपना मान लिया है या अपना पक्षधर या अपने ही अंग मानते हुए इनमें स्वाभाविक वृद्धि कर दी है।
अंग-अंग-नग जगमगत दीप-सिखा सी देह।
दिया बढाऐं हूँ रहै बड़ौ उज्यारौ गेह॥
दूती नायक से कह रही है कि देखो, नायिका की देह आभूषणों में जड़े हुए नगों से दीप-शिखा के समान दीपित हो रही है। घर में यदि दीपक बुझा दिया जाता है तब भी उस नायिका के रूप के प्रभाव से चारों ओर प्रकाश बना रहता है। दूती ने यहाँ नायिका के वर्ण-सौंदर्य के साथ-साथ उसके व्यक्तित्व में उदित होने वाली शोभा, दीप्ति और कांति आदि की अतिशयता को भी व्यक्त कर दिया है।
पर्यौ जौरु बिपरीत रति, रुपी सुरत-रन-धीर।
करति कुलाहलु किंकिनी, गहौ मौनु मंजीर॥
विपरीत रति में जुटे हुए नायक-नायिका का वर्णन करती हुई एक सखी दूसरी से कह रही है कि हे सखी, विपरीत रति में जोड़ पड़ गया है अर्थात् नायक नीचे आ गया है। दोनों परस्पर गुंथे हुए हैं और सुरति रूपी रण में धैर्यवान नायिका भली प्रकार डट गई है अर्थात् रम गई है, जिसके फलस्वरूप करधनी ने तो शोर करना आरंभ कर दिया है और मंजीर ने मौन धारण कर लिया है।
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सोनजुही सी जगमगति, अँग-अँग जोबन-जोति।
सु-रंग, कसूँभी कंचुकी, दुरँग देह-दुति होति॥
नायिका के अंग-अंग में यौवन की झलक पीली जुही के समान जगमगा रही है। वास्तव में यौवन की ज्योति सोनजुही ही है। अत: कुसुंभ के रंग से रँगी हुई उसकी लाल चुनरी उसके शरीर की पीत आभा से दुरंगी हो जाती है। भाव यह है कि लाल और पीत मिश्रित आभा ही दिखाई दे रही है।
हौं रीझी, लखि रीझिहौ, छबिहिं छबीले लाल।
सोनजूही सी ह्वोति दुति, मिलत मालती माल॥
सखी नायक से कहती है कि हे नायक, मैं नायिका के अनिर्वचनीय सौंदर्य को देखकर मुग्ध हो गई हूँ। हे छैल छबीले रसिया ! उस नायिका का वर्ण इतना लावण्यमय और चंपक पुष्प के समान स्वर्णिम है कि उसके गले में पड़ी हुई मालती पुष्पों की सफेद माला सोनजुही के पुष्पों वाली पीतवर्णा लगने लगी है। अभिप्राय यह है कि नायिका चंपक वर्णी पद्मिनी है, उसके गले में मालती की माला है, उसका पीताभ वर्ण ऐसी स्वर्णिम आभा लिए हुए है कि श्वेत मालती पुष्पों की माला भी सोनजुही जैसे सुनहरे फूलों की माला के रूप में आभासित हो रही है।
ज्यौं-ज्यौं जोबन-जेठ दिन, कुच मिति अति अधिकाति।
त्यौं-त्यौं छिन-छिन कटि-छपा, छीन परति नित जाति॥
जैसे-जैसे यौवन रूपी ज्येष्ठ मास में स्तनरूपी दिन की पुष्टता बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे कटिरूपी रात्रि क्षण-प्रतिक्षण क्षीण होती जाती है। बिहारी यह कहना चाह रहे हैं कि नायिका की कटि पतली होती जा रही है और उसके उरोज पुष्ट होते जा रहे हैं।
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कागद पर लिखत न बनत, कहत सँदेसु लजात।
कहि है सबु तेरौ हियौ, मेरे हिय की बात॥
प्रेमी के मन में अनेक प्रकार के भाव उठते और गिरते रहते हैं। कागज पर पत्र लिखना उसके लिए इसलिए असंभव हो गया है कि जब भी वह पत्र लिखने बैठती है तभी या तो उसके हाथ काँपने लगते हैं या वह भावावेश में आकर इतनी भावविभोर हो जाती है कि कंपन-स्नेह-अश्रु जैसे भाव क़ाग़ज़ पर अक्षरों का आकार नहीं बनने देते। यदि वह किसी व्यक्ति के माध्यम से नायक के पास संदेश भेजे तो यह समस्या है कि किसी दूसरे व्यक्ति से अपने मन की गुप्त बातें कैसे कहे? इसलिए वह हताश होकर खाली क़ाग़ज़ का टुकड़ा बिना कुछ लिखे भेज देती है। इस क़ाग़ज़ के टुकड़े को भेजने के साथ वह यह अनुमान लगा लेती है कि यदि नायक के मन में भी मेरे प्रति मेरे जैसा ही गहन प्रेम होगा तो वह इस खाली क़ाग़ज़ को देखकर भी मेरे मनोगत एवं प्रेमपूरित भावों को स्वयं ही पढ़ लेगा।
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सरस सुमिल चित-तुरंग की, करि-करि अमित उठान।
गोइ निबाहैं जीतियै, खेलि प्रेम-चौगान॥
एक सखी नायिका को प्रेम-निर्वाह का मर्म सिखा रही है। वह कह रही है कि चित्त रूपी सरस और सुमिल घोड़े के अनेक धावे कर-करके गुप्त प्रेम-निर्वाह करते हुए प्रेम रूपी चौगान खेल जीता जाता है। भाव यह है कि यदि तूने प्रेम-खेल ठीक तरह से नहीं खेला तो सफलता प्राप्त नहीं हो सकेगी। स्पष्ट शब्दों में यह भी कह सकते हैं कि जिस प्रकार चौगान के खेल में सधे हुए पुष्ट और मिलकर चलने वाले अनेक प्रकार की छलांगें भरने वाले घोड़े गेंद को निश्चित सीमा तक खेलकर विजयी होते हैं, उसी प्रकार प्रेम के खेल में प्रेमिका को अपने सरस और मिले हुए हृदय से अनेक प्रकार की उमंगों से युक्त होकर छिप-छिपकर प्रेम-क्रीड़ा का निर्वाह करना चाहिए।
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जम-करि-मुँह तरहरि परयौ, इहिं धरहरि चित लाउ।
विषय तृषा परिहरि अजौं, नरहरि के गुन गाउ॥
तू यमराज रूपी हाथी के मुख के नीचे पड़ा हुआ है जहाँ से बच पाना दुष्कर है। अत: तू इस निश्चय को अपने ध्यान में ला और अब भी विषय-वासना की तृष्णा को त्यागकर भगवान का गुण-गान प्रारंभ कर दे।
वाही की चित चटपटी, धरत अटपटे पाइ।
लपट बुझावत बिरह की, कपट-भरेऊ आइ॥
हे प्रियतम, तुम अपनी प्रेयसी के प्रेम-रंग में ऐसे रंग गए हो कि तुम्हारा इस प्रकार का आचरण तुम्हारे कपट भाव को ही व्यक्त कर रहा है। इतने पर भी मैं तुम्हारे कपट भावजनित मिलन को भी अपना सौभाग्य मानती हूँ। मेरे सौभाग्य का कारण यह है कि तुम कम-से-कम मेरे पास आकर दर्शन देते हुए मेरी विरह-ज्वाला को शांत तो कर रहे हो।
लालन, लहि पाऐं दुरै, चोरी सौंह करैं न।
सीस-चढ़ै पनिहा प्रगट, कहैं पुकारैं नैन॥
नायक परकीया के पास रात बिताकर घर लौटा है। नायिका कहती है कि हे लाल, जान लेने पर अब शपथ खाने से तुम्हारी चोरी छिप नहीं सकती है।अब तुम भले ही कितनी ही शपथ खाओ, तुम्हारी चोरी स्पष्ट हो गई है। वह छिप नहीं सकती है। तुम्हारे सिर चढ़े हुए नेत्र रूपी गुप्तचर तुम्हारी चोरी को पुकार-पुकार कर स्पष्ट कर रहे हैं।
गदराने तन गोरटी, ऐपन-आड़ लिलार।
हूठ्यौ दै, इठलाइ दृग करै गँवारि सुवार॥
ग्रामीण नायिका की अदा पर रीझकर नायक कह रहा है कि यह गदराए हुए शरीर वाली गोरी ग्रामीणा अपने ललाट पर ऐपन का आड़ा तिलक लगाए हुए, कमर पर हाथ रखे हुए इठला-इठला कर अपनी आँखों से घायल किए दे रही है। अभिप्राय यह है कि नायिका यद्यपि ग्रामीण है, फिर भी वह अपने कटाक्षों और हाव-भाव आदि के द्वारा नायक को आकृष्ट कर रही है।
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नीकी दई अनाकनी, फीकी परि गुहारि।
तज्यौ मनौ तारन-बिरदु, बारक बारनु तारि॥
हे नाथ, आपने तो मेरे प्रति पूर्ण उपेक्षा भाव अपना रखा है। इसका प्रमाण यह है कि मैं अपने उद्धार के लिए आपसे अनेक बार प्रार्थना कर चुका हूँ, किंतु मेरी प्रार्थना आपके कानों तक पहुँचती ही नहीं है। बिहारी यह उत्प्रेक्षा करते हैं कि भगवान ने एक बार हाथी का उद्धार किया, उसकी आर्त पुकार पर दौड़े चले गए। उसका उद्धार करने में वे इतना थक गए हैं कि अब उद्धारकर्ता कहलाने की प्रकृति को ही उन्होंने त्याग दिया है।
तजि तीरथ, हरि-राधिका, तन-दुति करि अनुरागु।
जिहिं ब्रज-केलि-निकुंज-मग, पग-पग होत प्रयागु॥
कवि कह रहा है कि तू तीर्थ छोड़कर श्रीकृष्ण एवं राधिका की शारीरिक कांति के प्रति अपना अनुराग बढ़ा ले जिससे कि ब्रज के विहार निकुंजों के पथ में प्रत्येक पथ पर तीर्थराज प्रयाग बन जाता है। भाव यह है कि श्रीकृष्ण एवं राधा के प्रति भक्ति बढ़ाने से करोड़ों तीर्थराज जाने का फल प्राप्त होता है।
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere