स्तन पर दोहे

दुरत कुच बिच कंचुकी, चुपरी सारी सेत।

कवि-आँकनु के अरथ लौं, प्रगटि दिखाई देत॥

नायिका ने श्वेत रंग की साड़ी पहन रखी है। श्वेत साड़ी से उसके सभी अंग आवृत्त हैं। उस श्वेत साड़ी के नीचे वक्षस्थल पर उसने इत्र आदि से सुगंधित मटमैले रंग की कंचुकी धारण कर रखी है। इन दोनों वस्त्रों के बीच आवृत्त होने पर भी नायिका के स्तन सूक्ष्म दृष्टि वाले दर्शकों के लिए छिपे हुए नहीं रहते हैं। भाव यह है कि अंकुरित यौवना नायिका के स्तन श्वेत साड़ी में

छिपाए नहीं छिप रहे हैं। वे उसी प्रकार स्पष्ट हो रहे हैं जिस प्रकार किसी कवि के अक्षरों का अर्थ प्रकट होता रहता है। वास्तव में कवि के अक्षरों में अर्थ भी स्थूलत: आवृत्त किंतु सूक्ष्म दृष्टि के लिए प्रकट रहता है।

बिहारी

गज बर कुंभहिं देखि तनु, कृशित होत मृगराज।

चंद लखत बिकसत कमल, कह जमाल किहि काज॥

हाथी के कुंभस्थल को देखकर, सिंह दुबला क्यों हो रहा है? और चंद्रमा को देखकर कमल क्यों विकासत हो रहा है? इन विपरीत कार्यों का क्या कारण है? अभिप्राय यह है कि नायिका के हाथी के कुंभस्थल समान स्तनों को बढ़ते देखकर सिंह अर्थात् कटि प्रदेश दुबला हो गया है। नायिका के चंद्रमुख को देखकर, नायक के कमल रूपी नेत्र विकसित हो जाते हैं।

जमाल

भई जु छवि तन बसन मिलि, बरनि सकैं सुन बैन।

आँग-ओप आँगी दुरी, आँगी आँग दुरै न॥

नायिका केवल रंग-रूप में सुंदर है अपितु उसके स्तन भी उभार पर हैं। वह चंपकवर्णी पद्मिनी नारी है। उसने अपने रंग के अनुरूप ही हल्के पीले रंग के वस्त्र पहन रखे हैं। परिणामस्वरूप उसके शरीर के रंग में वस्त्रों का रंग ऐसा मिल गया है कि दोनों के बीच कोई अंतर नहीं दिखाई देता है। अर्थात् नायिका के शरीर की शोभा से उसकी अंगिया छिप गई है, किंतु अंगिया के भीतर उरोज नहीं छिप पा रहे हैं। व्यंजना यह है कि नायिका ऐसे वस्त्र पहने हुए है कि उसके स्तनों का सौंदर्य केवल उजागर हो रहा है, अपितु अत्यंत आकर्षक भी प्रतीत हो रहा है।

बिहारी

मतवालो जोबन सदा, तूझ जमाई माय।

पड़िया थण पहली पड़ै, बूढ़ी धण सुहाय॥

हे माता! तुम्हारा दामाद सदा यौवन में मस्त हैं। उन्हें पत्नी का वृद्धत्व नहीं सुहाता। इसलिए पत्नी के स्तन ढीले पड़ने के पहले ही वे अपना देहपात कर डालेंगे। अर्थात्

प्रेम और शौर्य दोनों का एक साथ निर्वाह वीरों का आदर्श रहा है।

सूर्यमल्ल मिश्रण

चलन नापावतु निगम-मगु, जगु उपज्यौ अति त्रासु।

कुच-उतंग गिरिवर गह्यौ, मैना मैनु मवासु॥

नायिका के उन्नत उरोजों को देखकर नायक अपने आप ही यह कहता है कि कामदेव रूपी मैना ने स्तन रूपी उच्च पर्वत को अपना अभेद्य स्थान बना लिया है। परिणामस्वरूप संसार में बड़ा भय उत्पन्न हो गया है। अब वेदविहित मार्ग रूपी वणिक पथ का अनुसरण करना कठिन हो गया है। अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार से पहाड़ में बसने वाले मैना अर्थात् डाकू के भय से व्यापारियों का चलना कठिन हो जाता है, उसी प्रकार नायिका के उन्नत उरोजों में कामदेव के निवास के कारण धर्म के पथ पर चलना कठिन हो गया है। स्पष्ट संकेत है कि बड़े-बड़े धार्मिक प्रवृत्ति वाले व्यक्यिों का मन भी नायिका के उन्नत उरोजों को देखकर चंचल हो गया है।

बिहारी

नैणाँ का लडुवा करूँ, कुच का करूँ अनार।

सीस नाय आगे धरूँ, लेवो चतर जमाल॥

हे नागर, मैं नतमस्तक होकर लड्डू-समान नेत्रों और बंद अनार जैसे दृढ़ कुचों को आपके सम्मुख समर्पण करती हूँ, आप इन्हें स्वीकार करें।

जमाल
  • संबंधित विषय : आँख

कठिन उठाये सीस इन, उरजन जोबन साथ।

हाथ लगाये सबन को, लगे काहू हाथ॥

रसलीन

राते पट बिच कुच-कलस, लसत मनोहर आब।

भरे गुलाब सराब सौं, मनौ मनोज नबाब॥

विक्रम

सेत कंचुकी कुचन पै, लसत मिही चित चोर।

सोहत सुरसरि धार जनु, गिरि सुमेर जुग और॥

विक्रम

कुच-गिरि चढ़ि अति थकित है, चली डीठि मुँह-चाड़।

फिरि टरी, परियै रही, गिरी चिबुक की गाड़॥

नायिका की चिबुक अर्थात् ठोढ़ी के सौंदर्य पर आसक्त नायक स्वगत कह रहा है कि मेरी दृष्टि नायिका के स्तन-पर्वतों पर चढ़कर उसकी शोभा पर मुग्ध होकर उसकी मुख-छवि को देखने के लिए जैसे ही मुख की ओर बढ़ी, वैसे ही वह वहाँ अर्थात् मुख-सौंदर्य का पान करने के लिए, पहुँचने से पूर्व ही चिबुक के गर्त में गिर गई। भाव यह है कि नायिका की मुख छवि देखने से पूर्व ही नायक नायिका के चिबुक-सौंदर्य पर रीझ गया।

बिहारी

मोरि-मोरि मुख लेत है, नहिं हेरत इहि ओर।

कुच कठोर उर पर बसत, तातै हियो कठोर॥

विक्रम

झीनें अंबर झलमलति, उरजनि-छबि छितराइ।

रजत-रजनि जुग चंद-दुति, अंबर तें छिति छाइ॥

दुलारेलाल भार्गव

ज्यौं-ज्यौं जोबन-जेठ दिन, कुच मिति अति अधिकाति।

त्यौं-त्यौं छिन-छिन कटि-छपा, छीन परति नित जाति॥

जैसे-जैसे यौवन रूपी ज्येष्ठ मास में स्तनरूपी दिन की पुष्टता बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे कटिरूपी रात्रि क्षण-प्रतिक्षण क्षीण होती जाती है। बिहारी यह कहना चाह रहे हैं कि नायिका की कटि पतली होती जा रही है और उसके उरोज पुष्ट होते जा रहे हैं।

बिहारी

लाल, अलौकिक लरिकई, लखि-लखि सखी सिहाँति।

आज-काल्हि में देखियतु, उर उकसौंही भाँति॥

कोई सखी कह रही है कि हे लाल, उसके अल्हड़ बालपन को मैं यौवन में परिणत होते देख रही हूँ। उसे देख-देखकर केवल मैं, बल्कि सखियाँ भी प्रसन्नता और आनंद का अनुभव कर रही हैं। तुम देख लेना आजकल में ही उसका वक्षस्थल थोड़े और उभार पर आकर दिखलाई पड़ने लगेगा, अर्थात् सबको आकर्षित करने लगेगा।

बिहारी

नयन रँगीले कुच कठिन, मधुर बयण पिक लाल।

कामण चली गयंद गति, सब बिधि वणी, जमाल॥

हे प्रिय, उस नायिका के प्रेम भरे नेत्र अनुराग के कारण लाल हैं। उन्नत स्तन, कोयल-सी मधुर वाणी वाली सब प्रकार से सजी हुई गजगामिनी कामिनी चली जा रही है।

जमाल

गोरे उरजन स्यामता, दृगन लगत यह रूप।

मानो कंचन घट धरे, मरकत कलस अनूप॥

रसलीन

अगर चँदण की सिर घड़ी, बिच बींटली गुलाल।

एक दरसण हम कियो, तीरथ जात जमाल॥

सामान्य अर्थ : अगर और चंदन के दो घड़े, जिन के मध्य में गुलाल रंग की बींटली थी, तीर्थ यात्रा को जाते हुए ऐसे दृश्य के दर्शन हुए॥

गूढ़ार्थ : कवि ने किसी स्त्री के अगर तथा चंदन से चर्चित कुचों को देखा जिनकी घुंडी लाल रंग से रँगी थी। स्वेत, श्याम और लाल रँग से, सौंदर्य-प्रेमी कवि को त्रिवेणी (गंगा, यमुना और सरस्वती) के दर्शन हो गए, तब भला वह तीर्थ जाने की यात्रा का क्यों कष्ट झेलता?

जमाल

कटाछ नोक चुभी कियों, गडे उरोज कठोर।

कें कटि छोटी में हितू, रुची नंदकिशोर॥

हे सखी! प्रिय के कहीं मेरे कटाक्षों की नोक तो नहीं चुभ गई है? कहीं मेरे कठोर उरोज तो उनके नहीं गड़ गए हैं? अथवा मेरी कटि ही छोटी है जिसके कारण मैं नंदकिशोर को पसंद नहीं आई, बात क्या है?

दयाराम

जेती संपति कृपन कैं, तेती सूमति जोर।

बढ़त जात ज्यौं-ज्यौं उरज, त्यौं-त्यौं होत कठोर॥

कृपण व्यक्ति के पास जैसे-जैसे संपत्ति बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे उसकी कृपणता और अधिक बढ़ती जाती है। यह स्थिति वैसे ही है जैसे कि जैसे-जैसे उरोज बढ़ते जाते है, वैसे-वैसे और कठोर होते जाते हैं।

बिहारी

निरखि निरखि वा कुचन गति, चकित होत को नाहिं।

नारी उर तें निकरि कै, पैठत नर उर माहिं॥

रसलीन

है अलि सुंदरि उरज युग, रहे तव उरजु प्रकाश।

नवल नेह के फंद द्वै, अतिपिय सुख की रासि॥

बाल अली

लस्यो श्याम तव तन कस्यो, कंचुकि बसन बनाय।

राखे हैं मनो प्राण पति, हिये लगाय दुराय॥

बाल अली

सुबरन तकि सुबरन लखै, पंकज लखि निज नैन।

पेखि कुंभ निरखति कुचनि, पिक-धुनि सुनि मुख-बैन॥

मोहन

ल्याई लाल निहारिए, यह सुकुमारि विभाति।

उचके कुच कच-भार तें, लचकि-लचकि कटि जाति॥

रामसहाय दास

गसे परसपर कुच घने, लसे वसे हिय माहिं।

कसे कंचुकी मैं फँसे, मुनि मन निकसे नाहिं॥

विक्रम

विधु बरनी तुव कुचन की, पाय कनक सी जोति।

रंगी सुरंगी कंचुकी, नारंगी सी होति॥

रसलीन

अगर चँदण की सिर घड़ी, बिच बींटली गुलाल।

एक दरसण हम कियो, तीरथ जात जमाल॥

अगर और चंदन के दो घड़े, जिन के मध्य में गुलाल (लाल रंग) की बीटली (गाँठ) थी, तीर्थ यात्रा को जाते हुए ऐसे दृश्य के दर्शन हुए। गूढ़ार्थ यह है कि कवि ने किसी स्त्री के अगर तथा चंदन से चर्चित कुचों को देखा, जिनकी घुंडी लाल रंग से रँगी थीं। स्वेत, श्याम, और लाल रंग से सौंदर्य प्रेमी कवि को त्रिवेणी (गंगा, यमुना और सरस्वती) के दर्शन हो गए, तब भला वह तीर्थ जाने की यात्रा का क्यों कष्ट झेलता?

जमाल

ऊँचे ह्वै सुर बस किये, सम ह्वै नर बस कीन।

अब पताल बस करन को, ढरकि पयानो कीन॥

प्रवीणराय

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