भवभूति के उद्धरण

जो वेदों का अध्ययन तथा उपनिषद्, साँख्य और योगों का ज्ञान है, उनके कथन से क्या फल है? क्योंकि उनसे नाटक में कुछ भी गुण नहीं आता है। यदि नाटक के वाक्यों की प्रौढ़ता और उदारता तथा अर्थ-गौरव है, तो वही पांडित्य और विदग्धता की सूचक है।
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पत्थर भी रोने लगता है और वज्र का हृदय भी टुकड़े-टुकड़े हो जाता है।

प्राण देकर भलाई करें, द्रोह तथा छल का कभी नाम न लें, अपनी तरह प्रिय करें, यही मैत्रीधर्म है।
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लोक में अतिशय नवीन चंद्रकला आदि पदार्थ जयशील हैं। स्वभाव से सुंदर और भी पदार्थ हैं जो मन को प्रसन्न करते हैं परंतु जो यह नेत्र चंद्रिका लोक में मेरी दृष्टि में आई हैं, जन्म में एक वही महोत्सव रूप है।
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मनुष्यलोक से तुम्हारा प्रस्थान होने पर शरीर तो भार जैसा, जीवन वज्रमय कील के सदृश, दिशायें शून्य, इंद्रियाँ निष्फल, समय दुःखद और मनुष्यलोक सर्वत्र प्रकाश रहित प्रतीत हो रहा है।

जो कोई इस कृति के प्रति अवज्ञा दिखाते हैं वे जानते हैं कि उनके लिए मेरी कृति नहीं है। अवश्य ही मेरा कोई समानधर्मा पुरुष उत्पन्न होगा, क्योंकि काल तो अनंत है और पृथ्वी विशाल है।
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प्रेम से आर्द्र, उत्कृष्ट प्रेम के आश्रयभूत, परिचय के कारण प्रगाढ़ अनुराग से संपन्न एवं स्वभाव से सुंदर उस की कटाक्ष आदि चेष्टाएँ मेरे प्रति हों। इस प्रकार की आशा से परिकल्पित होने पर भी तत्काल ही नेत्र आदि बाह्य इंद्रियों के दर्शन आदि क्रियाओं को रोकने वाला और अत्यंत आनंद से प्रगाढ़ चित्त का लय (तन्मयता) हो जाता है।
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तुम संसार का चूडामणित्व करने के पश्चात् ही मृत्यु की अधीनता को प्राप्त हो गए।
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सबको पीड़ित करने वाली भगवती भवितव्यता ही प्रायः प्राणी के शुभ और अशुभ का विधान करती है।
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दृढ़ व्याकुलता से युक्त हृदय विदीर्ण होता है, लेकिन दो टुकड़ों में विभक्त नहीं होता। शोक से व्याकुल शरीर मोह को धारण करता है, लेकिन चैतन्य को नहीं छोड़ता। अंतःकरण का संताप शरीर को जलाता है, लेकिन भस्म नहीं करता, उसी तरह हृदय आदि मर्मस्थल का छेदन करने वाला भाग्य का प्रहार करता है, लेकिन जीवन को नष्ट नहीं करता है।
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वह प्रिया हमारे चित्त में लीन की तरह, प्रतिबिंबित की तरह, लिखी गई की तरह, शिला आदि में उत्कीर्ण रूपवाली की तरह, विरह से द्रवीभूत मेरे मन में कामदेव रूप सुवर्णकार द्वारा रचि की तरह, वज्रलेप से जुड़ी हुई की तरह, अंतःकरण में खोदी हुई की तरह, कामदेव के पाँच वाणों से विद्ध की तरह और धारावाही चिंतारूपी सूत्र समूह से निबिडतापूर्वक सिली गई की तरह संबद्ध है।
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जो जिसका प्रिय व्यक्ति है, वह उसका कोई विलक्षण धन है। प्रिय व्यक्ति कुछ न करता हुआ भी सामीप्यादि दुःखों को दूर कर देता है।
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लोकोत्तर पुरुषों के चित्त वज्र से भी कठोर तथा पुष्प से भी कोमल होते हैं, उन्हें कौन जान सकता है?
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जो तुम मेरे शरीर के अवयवों में चंदन रस, नेत्रों में शरत्काल के चंद्र और हृदय में आनंद रूप थे।
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सब लोकों का कल्याण हो। प्राणि-समूह दूसरों के हित में तत्पर हों। दोष शांति को प्राप्त हों और लोग सर्वत्र सुखी हों।
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पदार्थों का कोई आंतरिक हेतु ही मिलाता है। प्रेम बाहरी उपाधियों पर आश्रित नहीं होता।
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सुगंधित पुष्प की नैसर्गिक स्थिति यह है कि वह मस्तक पर धारण किया जाए, चरणों से अवताड़ित न किया जाए।
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जो अनुराग बिना किसी निमित्त के होता है, उसकी कोई प्रतिक्रिया नहीं हो सकती, वह स्नेहात्मक तंतु प्राणियों के हृदयों को सी देता है।
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