उर्दू में हिंदू-धर्म का प्रचार-प्रसार : कुछ उदाहरण
दीपक रूहानी
02 मई 2025

ये लेख मूलतः एक किताब पर आधारित है। उस किताब में दी गई जानकारियों को यहाँ संक्षेप में प्रस्तुत किया जा रहा है। ऐसा दो-तीन कारणों से किया जा रहा है। एक तो ये कि वो किताब उर्दू में है, इसलिए हिंदी-पाठकों तक उस सामग्री को पहुँचाना उद्देश्य है जो उस किताब में है। दूसरा कारण ये है कि उस किताब में बहुत विस्तारपूर्वक विषय-वस्तु को प्रस्तुत किया गया है, इसलिए उन सबका सार-संक्षेप ही आज के द्रुत-पाठवाले समय में उपयुक्त होगा। तीसरा और अंतिम कारण ये है कि मौजूदा भाषाई राजनीति के युग में इस तरह की किताबों, इस तरह के प्रयासों और इस प्रकार के शोधकार्यों का उल्लेख हमें तथ्यगत रूप से सटीक बनाता है। किसी भी भाषा के बोलने और पढ़नेवालों के विकास के लिए आवश्यक है कि वे अन्यान्य भाषाओं के संदर्भ में कम-से-कम तथ्यगत स्तरों पर न सिर्फ़ समृद्ध हों, बल्कि सत्य के आधार पर टिके हों।
जिस किताब से संदर्भ लिए गए हैं उसके लेखक हैं—मु. उज़ैर और किताब का नाम है—‘इस्लाम के अलावा मज़ाहिब की तरवीज में उर्दू का हिस्सा’। यहाँ ‘मज़ाहिब’ ‘मज़हब’ शब्द का बहुवचन है और ‘तरवीज’ का अर्थ– ‘रिवाज में लाना, प्रचलित करना, प्रचार करना’। मेरे पास इसकी जो प्रति है वो सन् 1989 ई. में प्रकाशित द्वितीय संस्करण है। इसे अंजुमन तरक़्क़ी उर्दू (हिंद), उर्दू घर, राउज एवेन्यू, नई दिल्ली-110002 से प्रकाशित किया गया है।
इस किताब में हिंदुओं ने अपने हिंदू-धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए या इस्लामेतर लोगों ने अपने-अपने धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए जो कार्य उर्दू में किए, केवल उन्हीं का उल्लेख इस किताब में है। लेखक मु. उज़ैर ने ऐसा करने का कोई स्पष्ट कारण नहीं बताया है, लेकिन कुछ अनुमान तो लगाए ही जा सकते हैं।
यदि कोई इस्लाम-अनुयायी इस्लाम से इतर धर्मों के बारे में उर्दू में कुछ लिखता है तो माना जा सकता है कि वो इस्लाम-अनुयायियों या उर्दू-पाठकों के ज्ञान और उनकी सूचना में वृद्धि करने के लिए ऐसा कर रहा है। ये समझने की गुंजाइश कम ही रहेगी कि वो इस्लाम से इतर किसी धर्म का प्रचार-प्रसार इस्लाम-अनुयायियों के मध्य कर रहा है। इसके बरअक्स यदि ग़ैर इस्लामी (हिंदू या अन्य) किसी भी धर्म का व्यक्ति उर्दू में अपने धर्म, पंथ अथवा संप्रदाय से संबंधित कुछ भी लिखता है तो इस एक बिंदु की गुंजाइश सदैव बनी रहेगी कि वो अपने धर्म का प्रचार-प्रसार उर्दू-पाठकों के बीच कर रहा है। यहाँ ये प्रश्न उठ सकता है कि वो उर्दू में ही अपने धर्म का प्रचार क्यूँ कर रहा है? क्या वो अपनी बातें उर्दू-पाठकों तक पहुँचाना चाहता है, भले ही धर्म-प्रचार के रूप में नहीं, बल्कि उनके ‘सामान्य ज्ञान’ में वृद्धि के लिए ही सही। इसके आगे भी कुछ प्रश्न हैं; एक तो यही कि क्या उसके पास उर्दू के अलावा किसी अन्य भाषा का ज्ञान या विकल्प है? क्या वो जिन लोगों में अपने धर्म का प्रचार करना चाह रहा है वे सब उर्दू जानते हैं? और इस स्तर की जानते हैं कि धर्म, दर्शन, अध्यात्म तथा अन्यान्य गूढ़ विषयों को समझ सकें?
ये सब ऐसे प्रश्न हैं जिनमें कुछ के उत्तर-संकेत इस आलेख में मिल जाएँगे, जबकि कुछ के लिए अलग लेख की ज़रूरत होगी। ये सब अपनी समग्रता में ऐसे पक्ष हैं जो भारतवर्ष में धर्म के प्रचार-प्रसार से ही नहीं, बल्कि हिंदी-उर्दू भाषाई विकास-क्रम से भी जुड़े हैं, साथ ही इन प्रश्नों के भाषाई राजनीति वाले पक्ष भी हैं। फ़िलहाल हमारे सामने अभी मूल प्रश्न यही है कि उर्दू में समय-समय पर किन धर्मों, पंथों या संप्रदायों की ‘प्रचार-सामग्री’ तैयार की गई।
किताब की भूमिका में मु. उज़ैर ने स्पष्ट किया है कि उन्होंने कहाँ-कहाँ से किताबों का विवरण इकट्ठा किया। कौन-सी किताब किस लाइब्रेरी में उपलब्ध हुई, इसका भी विवरण अपनी किताब के अंत में दिया है। यहाँ मु. उज़ैर द्वारा प्रस्तुत विवरणों में से कुछ अत्यंत संक्षेप में उल्लिखित किए जा रहे हैं, साथ ही कुछ टिप्पणियाँ यथास्थान अपनी तरफ़ से भी दी गई हैं।
किताबों का विवरण
1. हिंदू मज़हब के उसूल : लेखक—पं. मनोहर लाल ‘जुत्शी’; इस किताब में हिंदू-धर्म पर विस्तार से चर्चा की गई है। हिंदू-धर्म के मूल सिद्धांतों का बिंदुवार ज़िक्र करते समय जुत्शी जी ने निम्नलिखित आधारभूत बिंदुओं पर विचार-विमर्श किया है :
(क) वेद-वेदांत और उपनिषदों का विस्तार से परिचय।
(ख) वर्ण-व्यवस्था, यानी जाति-पाँति का उल्लेख हिंदू-धर्म की मौलिक विशेषता के रूप में नहीं किया गया है, बल्कि इसे एक समस्या के रूप में व्याख्यायित किया गया है।
(ग) वर्णाश्रम धर्म या वर्णाश्रम व्यवस्था– ब्रह्मचर्य (विद्यार्थी-जीवन में), गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास का उल्लेख है।
(घ) अहिंसा का मार्ग; इस एक महत्त्वपूर्ण सिद्धांत का उल्लेख करने से पूर्व जुत्शी जी ने अपनी तरफ़ से ये टिप्पणी जोड़ दी है कि यद्यपि इस पर सभी हिंदू एक मत नहीं हैं।
(च) ‘रवादारी’ और ‘टॉलरेशन’ (सहिष्णुता) शब्द का एक साथ प्रयोग करते हुए इसे हिंदू-धर्म की बुनियादी विशेषता बताया गया है।
(छ) ‘आवागमन’ पर यक़ीन करना भी इन्होंने हिंदू-धर्म की महत्त्वपूर्ण विशेषता मानी है।
(ज) इनके अतिरिक्त भक्ति, कर्मकांड तथा योग आदि पर भी विस्तृत चर्चा हुई है।
इस किताब में दी गई सामग्री की अत्यंत संक्षिप्त विषय-सूची का उल्लेख हो पाया है। स्थानाभाव और विस्तृत विवरणों को देने के कारण कहीं ये लेख बोझिल न हो जाए, इस भय से अब आगे किताबों का अत्यंत संक्षिप्त विवरण ही दिया जाएगा। वैसे भी हिंदी-पाठकों को आगे आने वाली किताबों के विषयों की समस्त सामग्री हिंदी में विधिवत उपलब्ध ही है।
2. कबीर साहब : लेखक—पं. मनोहर लाल ‘जुत्शी’; प्रकाशक- हिंदुस्तानी एकेडमी, इलाहाबाद, वर्ष : 1930 ई.
3. वेद से संबंधित किताबें
(क) अलख प्रकाश : इस किताब के मुखपृष्ठ पर लिखा है—“ख़ुलासा चारों वेद, यानी ‘रिखबेद’, ‘जजुरबेद और सामबेद और ‘अथरबन बेद’ का उर्दू ज़बान मय तर्जुमा पचास उपनिखदों का ‘सिर्रे-अकबर’ से नाम सहीफ़ा शरीफ़ा ‘अलख प्रकाश’।” किताब का नाम—अलख प्रकाश, संकलन एवं संपादन—अलखधारी उर्फ़ मुंशी कन्हैयालाल, प्रकाशक : ज्ञान प्रेस, आगरा, पहली मर्तबा जून 1861 ई. में पान सौ (पाँच सौ) कॉपी। कुल पृष्ठ : 446
वस्तुतः वेदों और उपनिषदों के मंत्रों का जो अनुवाद दारा शुकोह ने संस्कृत से फ़ारसी में किया था, ये किताब उसी का उर्दू-अनुवाद है।
4. उपनिषद से संबंधित किताबें
(क) मज्मूआ-ए-उपनिषद : संकलन एवं संपादन : बाबू प्यारेलाल, प्रकाशक एवं मुद्रक : विद्या सागर प्रेस, अलीगढ़, वर्ष : 1900 ई., कुल पृष्ठ : 239
(ख) मुंशी सूरज नरायन ‘मेहर’ देहलवी ने चार खंडों में उपनिषदों की व्याख्या की है। इसके अलग-अलग खंड सन् 1914 से 1917 तक साधू प्रेस, देहली से प्रकाशित हुए। पहला खंड : 336 पृष्ठ, दूसरा खंड : 428 पृष्ठ, तीसरा खंड : 168 पृष्ठ तथा चौथा खंड : 352
इसका पहला खंड बतौर भूमिका है, जिसमें उपनिषद का अर्थ बताया गया है। आगे के खंडों में विभिन्न उपनिषदों के मंत्रों (श्लोकों) की टीका की गई है।
(ग) पयामे-राहत : इसे ही ‘अमर कथा’ भी कहते हैं। इस किताब में ‘ईशावास्योपनिषद’ के पहले आठ मंत्रों की व्याख्या है। व्याख्याकार : भागमल साइनी, मुद्रक : इलेक्ट्रिक प्रेस, जालंधर, पृष्ठ : 368 (छोटे साइज़), वर्ष : 1939 ई.। सर्वविदित है कि भगवान शिव ने पार्वती को जो कथा सुनाई थी उसे ही ‘अमर-कथा’ कहा जाता है और ऐसी मान्यता है कि इस कथा को सुनने वाला अमर हो जाता है, इसलिए इसे ‘अमर-कथा’ कहते हैं। जिस गुफा में शिव ने ये कथा सुनायी थी उसे ही ‘अमरनाथ गुफा’ कहते हैं।
5. वेदांत से संबंधित किताबें
(अ) वेदांत फिलॉसफी : लेखक : बाबू शिवब्रत लाल, मुद्रक : रिफ़ाहे-आम स्टीम प्रेस, लाहौर, कुल पृष्ठ : 36
इस किताब में वेदांत क्या है, वेदांत से क्या आशय है, उसके प्रकार, उसके मर्म आदि पर सामग्री दी गई है।
(आ) भगती और वेदांत : लेखक—स्वामी विवेकानंद जी, अनुवाद : शांति नारायन, मुद्रक : मुफ़ादे-आम प्रेस, लाहौर, कुल पृष्ठ : 1200
(इ) विवेक चूड़ामनी : लेखक एवं अनुवादक : मुंशी सूरज नरायन ‘मेहर’ देहलवी, मुद्रक : साधू प्रेस (या साधो प्रेस), देहली, वर्ष : 1916 ई., कुल पृष्ठ : 256
ये किताब आदिगुरु शंकराचार्य के अद्वैतवाद या अद्वैत दर्शन पर आधारित है।
मुंशी सूरज नरायन ‘मेहर’ उर्दू का एक मज़हबी रिसाला (धार्मिक पत्रिका) ‘साधू’ नाम से देहली (दिल्ली) से निकालते थे। इसमें लेख-आलेख के साथ-साथ संस्कृत के महत्त्वपूर्ण धर्मग्रंथों आदि के अंशों का उर्दू में अनुवाद भी प्रकाशित किया जाता था। वेदांत पर प्रकाशित विभिन्न प्रकार की सामग्री को, जो ‘साधू’ के नौ अंकों में अलग-अलग समय में प्रकाशित हुई थी, संकलित करके ‘वेदांत के रतन’ (या ‘वेदांत के रत्न’) शीर्षक से एक संग्रह प्रकाशित किया गया था।
(ई) उर्दू बिचार सागर : ये ‘विचार सागर’ नाम से स्वामी निश्चलदास की सुप्रसिद्ध हिंदी-पुस्तक का उर्दू में अनुवाद है। अनुवादक- मुंशी सूरज नरायन ‘मेहर’ देहलवी, मुद्रक : साधू प्रेस, देहली, वर्ष : सन् 1914, कुल पृष्ठ : 450
यहाँ ये बात विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि संस्कृत धर्मग्रंथों और दर्शन-ग्रंथों के उर्दू-अनुवाद करने के क्रम में एक बहुत बड़ी शब्दावली विकसित हुई। ये एक महत्त्वपूर्ण बिंदु है कि किसी संस्कृत के शब्द को या धर्म और दर्शन के किसी पारिभाषिक शब्द को उर्दू में क्या लिखा गया है। इस अनुवाद-क्रम में ये देखना भी आवश्यक रहा होगा कि जो अवधारणा भारतीय धर्म और दर्शन में है, क्या उसे ठीक-ठीक अरबी-फ़ारसी (उर्दू) में अनूदित किया जा सकता है? या क्या वो अवधारणा इस्लाम धर्म अथवा सूफ़ी आदि दर्शनों-विचारों में मौजूद है? यहाँ ये भी ध्यातव्य है कि शब्दों का शब्दशः अनुवाद ही पर्याप्त नहीं, बल्कि सिद्धान्तों, मान्यताओं और अवधारणाओं के मर्म का अनूदित-उद्घाटित होना भी आवश्यक है। कुछ शब्दों के उदाहरण इस प्रकार हैं– आत्मबोध : इरफ़ाने-ज़ात, स्वात्म-निरूपण : तौज़ीहे-ज़ात, अद्वैत अनुभूति : कश्फ़े-ज़ाते-बेदुई, अपरोक्ष अनुभूति : कश्फ़े-ज़ात। इन सब पर अलग से विचार करना आवश्यक है।
(उ) अमली वेदांत : मुंशी सूरज नरायन ‘मेहर’ ने स्वामी विवेकानंद के व्याख्यानों का उर्दू में अनुवाद किया है। ‘अमली वेदांत’ नाम से इस सिलसिले का पहला हिस्सा 1911 ई. में सेवक स्टीम प्रेस, लाहौर से, 140 पृष्ठ का प्रकाशित हुआ।
(ऊ) अमली वेदांत और लाहौर लेक्चर : इस नाम से एक किताब मुंशी सूरज नरायन ‘मेहर’ ने 1911 ई. में साधू प्रेस, देहली से प्रकाशित किया। इसमें कुल 142 पृष्ठों में स्वामी विवेकानंद के 21 लेक्चर संकलित-अनूदित किये गए थे।
मुंशी सूरज नरायन ‘मेहर’ द्वारा संकलित-सम्पादित-अनूदित किताबों की एक ख़ास बात यह रहती थी कि वह विषय-वस्तु से पहले भूमिका के तौर पर उस किताब की मुख्य-मुख्य बातें बताते थे। इससे पाठक को उस संपूर्ण प्रकरण का पूर्वानुमान हो जाता था जिससे उसका साक्षात्कार अध्ययन के दौरान होने वाला होता था।
(ए) चहल दरवेश : ये मुंशी सूरज नरायन ‘मेहर’ द्वारा ज्ञान-ध्यान पर आधारित कहानियों का संग्रह है। कुल सात अध्यायों में विभिन्न दृष्टांतों के माध्यम से दर्शन और बौद्धिक चिंतन के आयामों को कहानियों के माध्यम से उद्घाटित किया गया है। ये कहानियाँ संस्कृत से उर्दू में अनूदित की गई हैं।
(ऐ) उर्दू पंचदशी : श्री विद्यारण्य स्वामी (जिन्हें माधवाचार्य के नाम से भी जाना जाता है) कृत ‘पंचदशी’ अद्वैत वेदांत दर्शन के केंद्रीय सिद्धांत का परिचय देने वाली पुस्तक है। यह ग्रंथ वेदांत के विद्यार्थियों को उपनिषदों को समझने में मदद करता है। यह 15 अध्यायों में विभक्त ग्रंथ है। इसे मुंशी सूरज नरायन ‘मेहर’ ने उर्दू में अनूदित-प्रकाशित किया। कुल पृष्ठ : 496, मुद्रक : साधू प्रेस, देहली, वर्ष : 1917 ई.
(ओ) जीवन-मुक्ती : यह भी श्री विद्यारण्य स्वामी कृत हिंदी की पुस्तक है, जिसका मूल नाम ‘जीवन-मुक्ति-विवेक’ है। इस पुस्तक का मूल विषय वेदांत-ज्ञान-साधनों का विवेचन है। इसे भी मुंशी सूरज नरायन ‘मेहर’ देहलवी ने उर्दू में अनुवाद करके ‘जीवन-मुक्ती’ नाम से 1915 ई. में साधू प्रेस, देहली से प्रकाशित किया। इसमें कुल 180 पृष्ठ थे।
(औ) वेदांत : लेखक- राम मोहन रिखी केशी (ऋषिकेशी), मुद्रक- मर्कण्टाइल प्रेस, लाहौर, वर्ष : 1924 ई., कुल पृष्ठ 160
इसकी भाषा आमफ़हम नहीं है, बल्कि इसमें संस्कृत शब्दों की भरमार है।
6. ‘योग’ से संबधित किताबें
(क) योगशास्त्र : ये विद्या सागर प्रेस, अलीगढ़ से सन् 1900 ई. में प्रकाशित 100 पृष्ठों की किताब है। इसके मुखपृष्ठ पर लिखा है—“महर्षि पतंजली के योगसूत्र का उर्दू तर्जुमा (अनुवाद) अस्ल-ओ-नोट-ओ-ज़मीमा। इसमें योग के उसूल-ओ-तराकीब मुफ़स्सिल समझाए गए हैं और इसकी मुख़्तलिफ़ अक़्साम का भी बयान है। बाबू प्यारेलाल ज़मींदार बरोठा ने हर-भगतों के वास्ते तैयार कराया।” (‘अस्ल-ओ-नोट-ओ-ज़मीमा’ इसका आशय है कि मूल श्लोक अर्थ सहित, ‘उसूल-ओ-तराकीब मुफ़स्सिल समझाए गए हैं’ का आशय है ‘सिद्धांत और विधियों को विस्तार से समझाया गया है’, ‘मुख़्तलिफ़ अक़्साम’ मतलब ‘विभिन्न प्रकारों’)
यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि उस समय इस किताब को जिन ‘हर-भगतों’ (हरि-भक्तों) में वितरित किया जाना था वे सभी उर्दू का पर्याप्त ज्ञान रखते थे। भाषा और धर्म वस्तुनिष्ठ ढंग से अलग-अलग थे।
(ख) योग-सार उर्दू : “जिसमें निहायत मुख़्तसर तौर पर योग विद्या का दिलकश मंज़र दिखाया गया है। मुअल्लिफ़ा-ओ-मुतर्जुमा स्वामी रामानंद साधू-संन्यासी”। ये मैकी प्रेस गुजरानवाला (या गुजराँवाला) से 1909 ई. में प्रकाशित हुई। इसमें कुल पृष्ठ 40 थे।
(ग) अष्टांग योग : लेखक—मुंशी सूरज नरायन ‘मेहर’ देहलवी, मुद्रक एवं प्रकाशक—साधू प्रेस, देहली, वर्ष- 1915 ई., कुल पृष्ठ : 264
(घ) योग-दर्शन : इस पर लिखा है– “मय शरह (व्याख्या सहित) अज़ मुंशी सूरज नरायन ‘मेहर’ देहलवी, मत्बूआ (मुद्रित-प्रकाशित) साधू प्रेस, देहली,” वर्ष : 1912, कुल पृष्ठ : 143
(च) राजयोग : इस पर लिखा है कि ये किताब भी मुंशी सूरज नरायन ‘मेहर’ देहलवी द्वारा साधू प्रेस, देहली से वर्ष : 1912 ई. में प्रकाशित की गई थी। कुल पृष्ठ : 200
(छ) ज्ञानयोग : “ब्रह्मज्ञान पर स्वामी विवेकानंद के लेक्चरों का तर्जुमा”, संकलन एवं संपादन : मुंशी सूरज नरायन ‘मेहर’, प्रकाशक : साधू प्रेस, देहली, वर्ष : 1913, कुल पृष्ठ : 320
(ज) अलख अमवाज : ‘श्री योग बासिष्ठ का इत्र’ : लेखक—कन्हैयालाल अलखधारी, प्रकाशक : ज्ञान प्रेस, गुजरानवाला, बड़ी साइज़ में कुल पृष्ठ : 86, प्रकाशन-वर्ष का उल्लेख नहीं है। (नोट : ‘अमवाज’ शब्द ‘मौज’ यानी ‘लहर’ का बहुवचन है।)
7. भक्ति से संबंधित किताबें
(अ) भगती (विवेक माला—पहला मोती) : लेखक—स्वामी विवेकानंद, अनुवाद : शांती नारायन, मुद्रक : पंजाब प्रेस, लाहौर, कुल पृष्ठ : 160
(आ) भगती रहस्य (विवेक माला—दूसरा मोती) : लेखक—स्वामी विवेकानंद, अनुवाद : शांती नारायन, मुद्रक : हिंदुस्तान प्रेस, लाहौर, वर्ष : 1924
(इ) भगती और वेदांत (विवेक माला—मोती-3) : लेखक—स्वामी विवेकानंद, अनुवाद : शांती नारायन, मुद्रक : मुफ़ीदे आम प्रेस, लाहौर, कुल पृष्ठ : 200
(ई) नया भगतमाल : इस किताब का जो परिचय मुखपृष्ठ पर दिया गया है, वो इस प्रकार है—“जिल्द अव्वल : जिसमें नए और पुराने भगतों के दिलचस्प हालात और मुफ़ीद उर सादात भी कहीं-कहीं शामिल किए गए हैं।”
लेखक : शिवब्रत लाल, प्रकाशक : हिंदुस्तानी प्रेस, लखनऊ, कुल पृष्ठ : 610
ये किताब ‘संत समागम’ पत्रिका की जिल्द-2, अंक-21 से 24 पर आधारित है। इस पत्रिका के संपादक बाबू शिवब्रत लाल थे। इन्होंने कई सूफ़ियाना और नैतिक शिक्षा पर आधारित किताबें लिखी हैं।
(उ) भगतमाल : अनुवादक : मुंशी तुलसीराम, प्रकाशक : मुंशी नवल किशोर, लखनऊ, वर्ष : 1880, कुल पृष्ठ : 456 (बड़ी तक़्तीअ) इस किताब पर लिखा है—“नाभा जी की वही मशहूर किताब है, जिसकी तारीफ़ शिवब्रत लाल जी ने ‘नया भगतमाल’ के दीबाचे (भूमिका) की है।”
वेद, वेदांत, उपनिषद, योग और भक्ति पर लिखित, अनूदित, संपादित तथा संकलित किताबों के पश्चात् मु. उज़ैर साहब ने अन्यान्य ग्रंथों से संबंधितत जो काम उर्दू में हुए हैं, उनका भी विस्तृत विवरण दिया है। स्थानाभाव के कारण उनका उल्लेख यहाँ नहीं किया जा रहा। उनके केवल नाम उल्लिखित किया जा रहे हैं—भगवतगीता, महाभारत, रामायण, पुराण, मनु-स्मृति, दर्शनशास्त्र आदि। कुछ फुटकर किताबों तथा नैतिक शिक्षा से जुड़ी किताबों का भी उल्लेख मु. उज़ैर ने किया है।
8. अन्य धर्मों से संबंधित किताबें
उपर्युक्त जो समस्त विवरण-विवेचन-विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है, वो हिंदू-धर्म की उस मूलधारा से संबंधित किताबों का है, जिसे सनातन कहा जाता है। इस मुख्य सनातन-धारा से निःसृत अथवा प्राणित-अनुप्राणित अन्य कई धाराओं, पंथों तथा संप्रदायों का उदय भी समय-समय पर होता रहा है। उन समस्त का प्रचार-प्रसार भी उर्दू में पर्याप्त मात्रा में हुआ है। उनमें प्रमुख हैं—कबीर पंथ, ब्रह्म समाज, आर्य समाज, थियोसोफिकल सोसायटी, राधा-स्वामी मत, देव समाज, जैन मज़हब, सिख मज़हब, ईसाई मज़हब आदि। इन धर्मों के प्रचार-प्रसार हेतु जो किताबें उर्दू में प्रकाशित हुईं, उन सबका विस्तृत विवरण यहाँ नहीं दिया जा रहा।
9. पत्र-पत्रिकाएँ
मु. उज़ैर ने अपनी किताब में उन पत्र-पत्रिकाओं का विवरण भी दिया है, जिनमें धार्मिक विषयों की सामग्री प्रकाशित होती थी। इनमें प्रमुख थे :
हिंदू धर्म :
(क) ज्ञान प्रकाश : आगरा से प्रकाशित यह हिंदुओं का पहला मज़हबी अख़बार था, जो 1862 ई. में जारी हुआ। इसका ज़िक्र क़ाज़ी अब्दुल ग़फ़्फ़ार साहब ने अपने लेख ‘उर्दू सहाफ़त’ में किया है, जो ‘निगार’ पत्रिका के नवंबर 1940 अंक में छपा था।
(ख) गयावती (या ग्यावती) पत्रिका : 1865 ई. में मटियाबुर्ज से प्रकाशित। (संदर्भ—उपर्युक्त)
(ग) आबे-हयात हिंद : यह 1864 ई. में आगरा से प्रकाशित होना शुरू हुआ। इसके बारे में गार्सां द तासी ने अपने इतिहास में लिखा है।
(घ) धर्म प्रकाश : इसे आगरा से ज्वाला प्रसाद निकालते थे। इसका भी उल्लेख गार्सां द तासी ने किया है।
(च) रिसाला विग्यानी (विज्ञानी) : लाहौर से निकलनेवाली मासिक पत्रिका। इसे शिवब्रत लाल निकालते थे।
(छ) रिसाला संत संदेश : इसे भी लाहौर से शिवब्रत लाल मासिक अवधि पर निकालते थे। इसमें अध्यात्म और सूफ़ियाना विषयों पर लेख-आलेख प्रकाशित होते थे।
(ज) रिसाला सत अमृत बानी : इसे भी मासिक रूप से शिवब्रत लाल लाहौर से प्रकाशित करते थे।
(झ) रिसाला संत समागम : इसे भी मासिक अवधि पर लाहौर से शिवब्रत लाल जी निकालते थे।
(ट) रिसाला साधू : इसे देहली (दिल्ली) से मासिक अवधि पर शिवब्रत लाल जी निकालते थे।
मु. उज़ैर ने इन रिसालों (पत्रिकाओं/जर्नलों) का ब्योरा देने के क्रम में स्पष्ट किया है कि शिवब्रत लाल द्वारा प्रकाशित रिसालों में लगभग सभी लेख-आलेख संपादक शिवब्रत लाल के ही हुआ करते थे। बाद में उन सभी अंकों को संकलित करके किताब की सूरत में प्रकाशित कर दिया जाता था।
मेरा मानना है कि ये सारे रिसाले एक साथ नहीं प्रकाशित होते रहे होंगे। चूँकि मु. उज़ैर साहब ने अपनी किताब में सभी रिसालों की कालावधि का स्पष्ट उल्लेख नहीं किया है (या शायद उन रिसालों पर ही प्रकाशन-वर्ष का उल्लेख न रहा हो), इसलिए ये अनुमान लगाया जा सकता है कि ये रिसाले अलग-अलग वर्षों में मासिक अवधि पर जारी किए गए होंगे। कुछ रिसालों के अंक मु. उज़ैर को प्राप्त भी हुए, जैसे—’रिसाला विज्ञानी’ के जून से दिसंबर 1917 के अंक उन्हें लाएल लाइब्रेरी, अलीगढ़ में मिले।
इन रिसालों के विभिन्न अंकों को संकलित करके जो किताबें प्रकाशित की गईं, उन पर दर्ज जानकारी से यह ज्ञात हो सका कि ये किताब फ़लाँ रिसाले के अंकों को संकलित करके प्रकाशित की गई है। इस प्रकार ख़ुलासे हुए हैं कि फ़लाँ नाम से मासिक रिसाला निकलता था।
ब्रह्म समाज :
ब्रह्म समाज से संबंधित एक ही उर्दू रिसाले का उल्लेख मिलता है—‘बिरादरे हिंद’। इस रिसाले में समय-समय प्रकाशित उन लेखों को संकलित करके पुस्तकाकार प्रकाशित किया गया, जो कि ‘ब्रह्म समाज’ के आंदोलन में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं।
आर्य समाज :
ऐसा प्रतीत होता है कि आर्य समाज के कार्यक्षेत्र में उर्दू का प्रभाव और प्रचलन अधिक था, इसीलिए आर्य समाज ने उर्दू में कई पत्र-पत्रिकाएँ प्रकाशित किया। चूँकि आर्य समाज को ‘हिंदू सुधार आंदोलन’ के रूप में माना जाता है और इसके संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती वेदों के प्रति विशेष आदर-भाव रखते थे, इसलिए आर्य समाज से संबंधित सामग्रियों को प्रकारांतर से हिंदू-धर्म या हिंदू समाज की ही एक प्रचार-सामग्री समझना चाहिए। ऐसा मेरा मानना है।
आर्य समाज से संबंधित रिसालों (पत्रिकाओं) आदि का विवरण इस प्रकार है—आर्य दर्पन (ये आर्य समाज की पहली प्रतिनिधि पत्रिका थी), आर्य भूषन (शाहजहाँपुर), आर्य समाचार (मेरठ), धर्म प्रकाश (कपूरथला), बलदेव प्रकाश (आगरा), आर्य गजट (फ़िरोज़पुर), आर्य बंधु (मेरठ), आर्य मुसाफ़िर मैगज़ीन (अलीगढ़, मासिक), रिफ़ार्मर (लाहौर, साप्ताहिक), जागृति (लाएलपुर, साप्ताहिक), प्रकाश (देहली, साप्ताहिक), देश भगत (लाहौर, साप्ताहिक)
उपर्युक्त पत्र-पत्रिकाओं के अन्य विवरण जैसे प्रकाशन-वर्ष और संपादक आदि के नाम स्थानाभाव के कारण यहाँ नहीं दिए जा रहे।
उपर्युक्त धर्म और पंथ-संप्रदाय के अतिरिक्त कुछ अन्य पत्र-पत्रिकाओं की जानकारियाँ भी प्राप्त होती हैं, जैसे—अमृत का घूँट : थियोसोफिकल सोसायटी (मेरठ, मासिक), सत्य देव संवाद : देव समाज (लाहौर, साप्ताहिक), प्रेम बलास : सिक्ख मज़हब (गुजरानवाला, मासिक), पयामबर : बहाई मजहब (देहली, मासिक)
ईसाई मज़हब :
ख़ैर ख़्वाहे-हिंद (मिर्ज़ापुर), ख़ैर ख़्वाहे-ख़ल्क़ (आगरा, पाक्षिक), मख़ज़न मसीही (इलाहाबाद), कौकब इसवी, हक़ाएक़-ए-इरफ़ान, सद्र-उल-अख़बार (आगरा), कौकब-ए-हिंद (कलकत्ता), शम्स-उल-अख़बार (कलकत्ता), रिसाला मसीही (लाहौर), रिसाला मसीही तजल्ली (लाहौर), रिसाला-ए-तरक़्क़ी (लाहौर), अल शाहिद (सरगोधा), उख़ूवत (लाहौर)
इन सब विवरणों के अलावा मु. उज़ैर ने इंडिया ऑफ़िस, लंदन की लाइब्रेरी से 1900 ई. में प्रकाशित उर्दू की धार्मिक किताबों की संख्या का विवरण भी दिया है—ईसाई मज़हब (536), हिंदू (153), जैन (03), ब्रह्म समाज (20) तथा बुद्ध धर्म (01)।
इस संपूर्ण आलेख से स्पष्ट है कि जिस उर्दू भाषा को आज मुसलमानों से जोड़कर देखा जाता है, वह अतीत में किस प्रकार सभी धर्मानुयायियों की भाषा थी। मैंने इस आलेख की शुरुआत में यह जिज्ञासा प्रकट की थी कि विभिन्न धर्मों के प्रचारकों ने उर्दू भाषा को अपना माध्यम बनाया तो क्या उनके पास भाषा के अन्य विकल्प थे या नहीं थे? तकनीकी रूप से हम देखें तो भारतेंदु युग (1850 ई.) से हिंदी-साहित्य का देवनागरी में बाक़ायदा मुद्रण-प्रकाशन होने लगा था। सन् 1900 के बाद तो पर्याप्त मात्रा में हिंदी या कहें कि देवनागरी का दबदबा बढ़ता ही चला गया। इस आलेख में मु. उज़ैर की किताब के हवाले से जिन किताबों और पत्र-पत्रिकाओं आदि का विवरण मिलता है, वे सब लाहौर, देहली और दिल्ली के आस-पास के इलाक़ों से ही मुद्रित-प्रकाशित हुई हैं। वैसे भी हिंदी (देवनागरी) का समस्त कार्यक्षेत्र आज़ादी के पहले तक इलाहाबाद, लखनऊ, बनारस और पटना आदि ही रहा है। इसलिए हमें इस भ्रम से बचना चाहिए कि हिंदी या देवनागरी सर्वत्र व्याप्त थी और सभी इसे पढ़ते-समझते थे।
इस संक्षिप्त आलेख में (इसे संक्षिप्त ही कहना उचित होगा) इन किताबों की भाषा, अनुवाद, विषय-चयन, संकलन तथा संपादन के कौशल और अन्यान्य विशेषताओं पर कोई बात ही नहीं हो पाई है। उन आयामों का विवरण यहाँ दे पाना संभव भी नहीं था। बस भाषा (ज़बान) के बारे में एक उद्धरण देना ही पर्याप्त होगा। मु. उज़ैर अपनी किताब के पृष्ठ : 291 पर लिखते हैं—“कुछ हिंदू लेखकों जैसे मुंशी सूरज नरायन ‘मेहर देहलवी’, पं. जानकीनाथ ‘मदन देहलवी’, बाबू शिवब्रत लाल ने तो अपनी किताबों में ऐसी साफ़-सुथरा और धारा-प्रवाह उर्दू के नमूने पेश किए हैं कि उस युग के किसी भी गद्य-लेखक को ईर्ष्या हो सकती है।”
किताब के अंत में लेखक ने उन पुस्तकालयों का नामोल्लेख किया है, जहाँ से उसे अलग-अलग धर्मों की किताबें प्राप्त हुईं। बाक़ायदा किताबों के नाम के साथ उनके प्राप्ति-स्थल पुस्तकालय का उल्लेख कई पृष्ठों में किया गया है। मु. उज़ैर के विस्तृत विवरण को न देकर मैं यहाँ सिर्फ़ पुस्तकालयों का नाम प्रस्तुत कर रहा हूँ—कुतुबख़ाना-ए- मुस्लिम यूनिवर्सिटी (अलीगढ़), लाएल लाइब्रेरी (अलीगढ़), हार्डिंज लाइब्रेरी (देहली), कुतुबख़ाना-ए-दारुल उलूम (देवबंद), लाएल लाइब्रेरी (मेरठ), पंजाब पब्लिक लाइब्रेरी (लाहौर), ग्यान परसाद (ज्ञान प्रसाद) लाइब्रेरी (कानपुर), गंगा प्रसाद वर्मा लाइब्रेरी (लखनऊ), अमीरुद्दौला लाइब्रेरी (लखनऊ), पंजाब पब्लिक लाइब्रेरी (लाहौर), गुरुदत्त भवन आर्य समाज लाइब्रेरी (लाहौर), दारुल मुसन्निफ़ीन (आज़मगढ़), जैन लाइब्रेरी (देहली), मक्तबा पंजाब रिलीजियस बुक सोसायटी (लाहौर), ख़ुदाबख़्श लाइब्रेरी (पटना)
चलते-चलते एक और बात की तरफ़ ध्यान दिलाना आवश्यक समझ रहा हूँ। उपर्युक्त जितनी भी किताबों या पत्र-पत्रिकाओं का विवरण यहाँ प्रस्तुत किया गया है, वे सब आज़ादी के काफ़ी पहले की हैं। उपर्युक्त प्रकाशन-वर्षों के पश्चात् उर्दू में ग़ैर मुस्लिमों ने क्या प्रयास किया; इसका विवरण मु. उज़ैर की किताब में नहीं है, फलस्वरूप मैं भी इस आलेख में कोई विवरण नहीं दे पाया। इसके अलावा स्वतंत्रता-पूर्व या पश्चात् मुस्लिमों ने इस्लामेतर धर्मों संप्रदायों पर किताबें लिखने के क्या प्रयास किए, इसका भी कोई उल्लेख मु. उज़ैर की किताब में नहीं है। इसका उल्लेख करना उनकी किताब का उद्देश्य भी नहीं था, जैसा कि मैंने इस आलेख की शुरूआत में ही स्पष्ट कर दिया है। इतना अवश्य कहा जा सकता है कि हिंदुस्तान में समय-समय पर जिस प्रकार सभी धर्मों-संप्रदायों के अनुयायियों ने अपने-अपने हिस्से का काम अंजाम दिया है, उसी प्रकार उर्दू ने भी वक़्त-वक़्त पर जिसने भी जितना साथ चाहा उतना साथ दिया है। भाषाएँ कभी एक-दूसरे से अलगाव-दुराव नहीं रखतीं। वे तो इस तरह आपस में मिल जाती हैं कि हम उन्हें पहचान ही नहीं पाते। ऐसे में यदि किसी राजनीतिक दुराग्रह से किसी भाषा और उसके बोलनेवालों पर विचारहीन दोषारोपण किया जाए तो एक भाषा के प्रेमियों का दायित्व है कि वे दूसरी भाषा का साथ दें।
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