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8/4 बैंक रोड, इलाहाबाद : फ़िराक़-परस्तों का तीर्थ

इलाहाबाद विश्वविद्यालय के एम.ए. में पढ़ने वाले एक विद्यार्थी मेरे मित्र बन गए। मैं उनसे उम्र में छोटा था, लेकिन काव्य हमारे मध्य की सारी सीमाओं पर हावी था। हमारी अच्छी दोस्ती हो गई। उनका नाम वीरेंद्र कुमार ‘बादल’ है। मुझे उनका उपनाम आज तक मज़ेदार लगता है। बादल यानी क्लाउड। कहीं ये महाकवि कालिदास के मेघ तो नहीं जो एक व्याकुल हृदय का संदेश दूसरे हृदय तक पहुँचाने के लिए ‘मेघदूत’ से बाहर आ गए हों। ईश्वर जाने यह कौन हैं, लेकिन फ़िराक़ साहब के घर मुझे पहली बार बादल कुमार ही ले गए थे। 

फ़िराक़ साहब के घर की एक प्रथा थी—ज़्यादातर वहाँ किसी के साथ जाना पड़ता था, लेकिन वहाँ सीधे भी फ़िराक़ साहब से मिला जा सकता था। एक संबंध से दूसरा संबंध बनाया जाता था।

“उस इक चराग़ से कितने चराग़ जल उठ्ठे”

सीधे जाने वालों में फ़िराक़ साहब के कुछ ख़ास परिचित, औघड़, संन्यासी, चायवाले, माली, रिक्शा चालक, विश्वविद्यालय के विद्यार्थी, फ़िराक़ साहब को छोड़कर भागे पुराने मुलाज़िम और चंद भटके मुसाफ़िर थे। दूसरी ओर फ़िराक़ साहब के यहाँ जाने वालों में वे इंसान जो उनके मिज़ाज से वाक़िफ़ थे, उनसे बहुत डरते थे। फ़िराक़ साहब लिटमस-टेस्ट करते थे, जो शख़्स इसमें पास हुआ वह कभी भी उनसे मुलाक़ात कर सकता था। 

एक बार की बात है, एक वीसी साहब फ़िराक़ साहब से मिलने की ख़्वाहिश में उनके घर आ धमके। बाहर गेट पर आकर उन्होंने गेट से फ़िराक़ साहब को पुकारा—“अजी! क्या फ़िराक़ साहब घर पर हैं?”

फ़िराक़ साहब ने उसी लहजे में जवाब दिया—“अजी! आप कौन?”

“मैं फ़लानी जगह का वीसी हूँ।”

“ठीक है वहीं खड़े रहिए, अभी फ़िराक़ आप से नहीं मिलना चाहता।” जवाब देकर फ़िराक़ साहब उनके घर आए विद्यार्थियों से बात करने लगे। काफ़ी देर बाद अचानक उन्हें याद आया कि कोई आया था। उन्होंने एक विद्यार्थी से कहा कि “बेटा, देखो कोई बाहर आया था। जल्दी उसे भीतर ले आओ।” इसके बाद उन्होंने आगंतुक को ससम्मान बिठाया। चाय पिलवाई और अपने मुलाज़िम से कचौड़ी आदि मँगवाकर खिलवाई। फ़िराक़ साहब किसी का ज़रा दबाव नहीं लेते थे। 

क़िस्सा सुनाते-सुनाते और क़िस्से याद आ रहे हैं। एक बार फ़िराक़ साहब अपनी कक्षा में किसी कवि को पढ़ा रहे थे। हो सकता है वर्ड्सवर्थ हों क्योंकि फ़िराक़ साहब ख़ुद फ़रमाते हैं कि “वर्ड्सवर्थ की कविता में वो तत्व मौजूद हैं जिनकी मैं तलाश करता था।” लोग तो यहाँ तक बताते हैं कि जब फ़िराक़ साहब कुछ पढ़ाते थे तो जिन प्रोफ़ेसर्स का ख़ाली पीरियड होता था, वो आकर पीछे कक्षा में बैठ जाते थे। फ़िराक़ साहब के मुँह से निकला एक-एक शब्द उस उक्ति को चरितार्थ करता है जो यह कहती है कि ‘शब्द ब्रह्म है।’ महापुरुषों के मुँह से निकली गालियाँ भी आशीर्वाद बन जाती हैं। बनारस जाइए और कुछ दिन वहाँ रहिए फिर आप को मेरी बात पर भरोसा होगा। गाली भी अपनत्व प्रदर्शन का एक ज़रिया हो सकती है। गाली सिर्फ़ हृदय को खिन्न करने के लिए नहीं बनाई गई। भगवान राम प्रवेश कर रहे हैं और मिथिला की नारियाँ, गालियाँ दे रही हैं। फ़िराक़ साहब तो गालियों के भी उस्ताद थे। एक क़िस्सा मिलता है, जहाँ एक गाड़ीवान उनसे पैसे लेने से मना कर देता है। कहता है “ई त बड़े उस्ताद बाड़न। आम मैकेनिक के चार-पाँच गो गाली मालूम रहेला, लेकिन ई जब गाली देले बाड़न त लगले कि गाली ना, कउनो कला ह। ई बस हमार उस्ताद ही बूझ सकले। हम उस्ताद से कब्बउ पैसा ना लेब।” हर कला में माहिर शख़्स, हर स्तर के आदमी से बात करने का हुनर जानता है। कल्पना कीजिए जब वह कविता पढ़ाता होगा तो क्या आनंद आता होगा। एक-एक शब्द से अमृत टपकता होगा। मम्मट ने फ़िराक़ जैसे महाकवि को पढ़ाते या कविता सुनाते देख कर ही “काव्यानंद को ब्रह्मानंद सहोदर” कह दिया होगा। उस रोज़ वीसी साहब यूनिवर्सिटी का निरीक्षण कर रहे थे। पीछे से आकर फ़िराक़ साहब की कक्षा में बैठ गए। विद्यार्थियों से साथ फ़िराक़ साहब को सुनने लगे। जाने क्यों यह बात फ़िराक़ साहब को बुरी लगी। फ़िराक़ साहब ने बच्चों को संबोधित करते हुए कहा कि “ऐ भाई, मेरी कक्षा के लिए जिन विद्यार्थियों का रजिस्ट्रेशन नहीं हुआ है, वो यहाँ न बैठें।” इसके बाद वीसी साहब उठ कर चले गए। मतलब कहने का यह है कि फ़िराक़ साहब ही जब चाहेंगे तभी आप उन से मिल सकते हैं।

आज फ़िराक़ साहब के बिना 8/4 बैंक रोड, इलाहाबाद बस एक प्रोफ़ेसर्स आवास बन कर रह गया है, लेकिन एक वक़्त पर वह घर ख़ुद एक जीती-जागती इमारत था। उसकी मर्ज़ी के बिना, उसके मालिक के आदेश के बिना कोई अंदर दाख़िल नहीं हो सकता था। मैंने सबसे पहले बादल भाई से यही कहा कि “देखिए फ़िराक़ साहब के घर को देखना तो चाहता हूँ, मगर उससे पहले उनके घर से आज्ञा ले आइए कि क्या वो मुझे आने देना चाहता है।” अपनी तलाश पूरी करने के बाद लौटिए और हाल सुनाइए। पता करिए किस जगह है—यह 8/4 बैंक रोड। कौन रहता है वहाँ इन दिनों? किस के हिस्से गई फ़िराक़ की तन्हाई?

बादल भाई ने कुछ दिनों बाद फ़ोन किया। कहने लगे कि भाई आ जाओ किसी दिन हॉस्टल। फ़िराक़ साहब का बसेरा तलाश लिया है। यह सुनकर मेरी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा। फ़िराक़ साहब इस वक़्त तक मेरे लिए इतने अपने या परिचित नहीं थे जितने कि अब हैं। अभी तो कई बार प्रेम से मैं उन्हें ‘बुढ़ऊ या बाबा’ आदि कहकर पुकार लेता हूँ, मगर उन दिनों मेरे उत्साह में एक सिहरन भी थी। यह सिहरन अकसर झिझक के साथ तब पैदा होती है, जब हम किसी से पहली बार मिलते हैं। रमेश जी की किताब के सहारे फ़िराक़ साहब के घर का एक ख़ाका मैंने पहले से ही दिमाग़ में खींच लिया था। मेरे दिमाग़ में एक घर था, जिसके आगे एक बड़ा-सा लॉन हो, उसी लॉन में घर से जुड़ा एक टीन की छत वाला कमरा, उस कमरे में एक बेड पड़ा होना चाहिए, घर के भीतर बीच में खुला आँगन और उसी के इर्द-गिर्द कुछ कमरे जिसमें एक रसोई जो कि बाईं तरफ़ होनी चाहिए, उसी के ठीक सामने यानी आँगन के दूसरी तरफ़ वो कमरा जहाँ माता जी (फ़िराक़ साहब की पत्नी) रहती होंगी और अंत में बाहर की तरफ़ का एक कमरा जिसकी खिड़की लॉन में खुलती होगी। इसी में एक अटैच टॉयलेट भी होनी चाहिए। इसी बाहर वाले, लॉन से जुड़े कमरे में फ़िराक़ साहब रहा करते होंगे। यहीं से बैठे-बैठे खिड़की से लॉन में लगे उस गुड़हल के पौधे को देखते होंगे, जिसकी शाख़ पर सर निगूँ किए उसका फूल सोया है।

“ये सर-निगूँ हैं सर-ए-शाख़ फूल गुड़हल के”
(नज़्म - आधी रात)

ये कल्पनाएँ ही व्यक्ति के जीने का सहारा हैं। केवल कवि ही नहीं हर आदमी कल्पनाएँ करता है। कल्पना न हो तो सोचिए क्या आप झूठ बोल पाएँगे? बच्चा तो कल्पनाओं के सहारे ही कहाँ से कहाँ तक पहुँच जाता है। मेरे समय में हम कल्पना करते हुए कहते थे कि “अगली दफ़े जब हम नानी घरे जैबा तौ…..जैसी आदि-आदि बातें।”

बादल भाई के बताए अनुसार मैं केपीयूसी हॉस्टल पहुँच गया। उनके पास एक डिस्कवर बाइक थी। कुछ दिन पहले जब मेरी उनसे लखनऊ में दोबारा मुलाक़ात हुई, तब भी वो मुझसे मिलने इसी बाइक से आए थे। कई बार कुछ वस्तुएँ इंसानों से अधिक हमारा साथ निभाती हैं। आप के पास भी कुछ-न-कुछ ऐसा होगा ही जिससे आपकी यादें जुड़ी होंगी। यदि यह किताब अभी प्रकाशित हो चुकी है और आप इसे पढ़ रहे हैं तो मुझे ढूँढ़कर ज़रूर बताइएगा कि आप के पास ऐसी कौन सी चीज़ है? मुझे जानकर ख़ुशी होगी कि आपको भी वस्तुओं के रख-रखाव में दिलचस्पी है। बादल भाई ने हॉस्टल से बैंक रोड की तरफ़ गाड़ी घुमाई। पहले लल्ला चुंगी पर हमने चाय पी, इसके बाद हम चौराहे की ओर बढ़ चले। दिल में कुछ अजीब से भाव उठ रहे थे जिन्हें अब तक मैं शब्दों में व्यक्त करना नहीं सीख पाया। मैंने कई सारी ग़ज़लें कही हैं। ग़ज़ल कहने वाला शुरूआत में शब्दों का ग़ुलाम होता है। छंद उसे अपनी तरह से नाचते हैं, लेकिन वक़्त गुज़रने के साथ वह शब्दों का साथी बन जाता है। ध्वनि की आत्मिक वेदना और ध्वनि तथा मौन का अंतरिम संदेश, वह बड़ी आसानी से कहना सीख लेता है। मगर उस भाव को जिसे मैंने उस दिन महसूस किया था, उसे कभी व्यक्त नहीं कर पाया। बाइक अब प्रोफ़ेसर्स आवास तक पहुँच गई थी। ये आवास रोड़ के बाईं ओर हैं। एक लंबी कतार, जिसमें खुली-खुली गलियाँ हैं, जिन्हें पूरी तरह से गली कहना मेरे लिए मुश्किल है। इन्हीं गलियों में कुछ प्रोफ़ेसर्स के घर बने हुए हैं। आख़िर में हम भी एक गली में मुड़ गए। एक-एक क़दम पर यहाँ हज़ारों-हज़ार यादें और क़िस्से बिखरे हुए हैं। कुछ हमने खोज लिए हैं और कुछ समय की गर्द में धूल बन गए।

यहीं, इसी गली में फ़िराक़ साहब के भाई भी रहा करते थे, जो कि सेम डिपार्टमेंट में पढ़ाते थे। लोगों से मैंने सुन रखा है कि वह पूरी तरह अँग्रेज़ों की तरह थ्री-पीस सूट में रहते थे। यहाँ हर आवास के सामने थोड़ी-सी जगह छोड़ दी गई है, जहाँ शायद शाम को प्रोफ़ेसर टहलते होंगे। फ़िराक़ साहब ने उनके घर आए औघड़ से यहीं पर उसकी झोपड़ी बनाने की पेशकश की होगी। शायर अली सरदार जाफ़री साहब ने यहीं से किसी घर को चुन कर (शायद 8/3), उसमें फ़िराक़ साहब को लेकर एक एपिसोड की शूटिंग की होगी। यहीं प्रोफ़ेसर अवस्थी ने उन्हीं कलाकारों में से किसी एक महिला कलाकार को सिगरेट पीते देखा और अपने विद्यार्थियों से इस पर ऐतराज़ व्यक्त किया होगा। इसी गली में कभी प्रोफ़ेसर गोपीकृष्ण ‘गोपेश’ जी रहने आए होंगे, जिनके आने पर फ़िराक़ साहब बड़े प्रसन्न हुए थे कि “एक अच्छा पड़ोसी मिला।” यही वह जगह है जहाँ फ़ैज़ साहब फ़िराक़ साहब से मिलने आए थे, जिनकी ट्रेन रुकवाने के लिए फ़िराक़ साहब ने यूनिवर्सिटी के विद्यार्थियों को भेजा था। पगले सब पटरी पर लोट गए थे। यहीं, इसी गली में फ़हमीदा रियाज़ साहिबा, महाकवि फ़िराक़ के दर्शन के लिए पाकिस्तान से चलकर हिंदुस्तान तक चली आई थीं। यहीं पर महाप्राण निराला काँधे पर ‘रोहू मछली’ रखे, फ़िराक़ से मिलने आते थे। उनकी और फ़िराक़ साहब की बातें, लड़ाइयाँ और दोस्ती के क़िस्से इसी गली से निकलकर पूरे इलाहाबाद में ख़ुशबू की तरह फैल गए थे। उन क़िस्सों की स्नेहिल-गंध आज भी इलाहाबाद में, साहित्यिक अन्वेषकों को मिल जाएगी। उन्हें बस अपनी नाक साहित्य में घुसेड़ने की ज़रूरत है। गली में घुसते ही मेरी नज़र प्रोफ़ेसर्स के मकानों पर गई। हर मकान के बाहर लॉन की दीवार पर पेंट से एक नेम-प्लेट बनाई गई थी। हर मकान पर उसका नंबर और उसमें रहने वाले प्रोफ़ेसर का नाम सफ़ेद पेंट से दीवार पर लिखा गया था। मेरी आँख चाहती थी कि जल्द-अज़-जल्द उस नेम-प्लेट को देखे जहाँ 8/4 लिखा हो और उसके साथ-साथ गुस्ताख़ दिल तो यह भी चाहता था कि वहाँ रघुपति सहाय ‘फ़िराक़’ भी लिखा हो। चाहना, मानने से ज़्यादा आसन है। मानने के लिए इंद्रियों में सामंजस्य ज़रूरी है। मैं जितना उस गली में उतरता जा रहा था, दिल उसी अनुपात में ज़ोरों से धड़क रहा था। फ़िराक़ साहब मेरे क़दमों की आहट क्यों नहीं सुनते? बाहर आएँ और कहें—“बरख़ुर्दार! आप यहाँ क्यों आए हैं? क्या आप फ़िराक़ के अकेलेपन पर आँसू बहाने आए हैं? अगर ऐसा है तो वापस चले जाइए। फ़िराक़ आप से नहीं मिलना चाहता।”

और इसके जवाब में, काश मैं उन से कह पाऊँ कि—“मैं कृतकृत्य भइउँ अब, तव प्रसाद बिस्वेस।” बाबा तुलसी शायद हमारे और फ़िराक़ साहब के बीच आत्मीयता का एक पुल बना दें। मगर वही बात जो मैंने ऊपर कही—“चाहना, मानने से ज़्यादा आसन है।” 

मकान नंबर 8/3 के बाद 8/5 की नंबर प्लेट दिखी। 8/4 मुझे ग़ायब लगा। मैं पीछे लौट के आया और एक ‘दुखी घर’ के आगे खड़ा हो गया। दुखी ऐसा जैसे कोई बच्चा रो-रो कर अपनी आँखों का काजल बिगाड़ ले। इस घर का भी काजल आँसुओं से धुल गया था। इस घर पर कोई नंबर प्लेट नहीं थी। ऐसा लग रहा था मानो फ़िराक़ साहब के चले जाने से ये घर अनाथ हो गया है। मैं अब उस घर के आगे खड़ा था जहाँ मेरे उस्ताद ने एक अदद उम्र गुज़ारी थी। दिल्ली रवाना होने से पहले वह यहीं तो रहते थे। बार-बार इलाहाबाद लौटने की अधूरी ख़्वाहिश ने उन्हें ग़मज़दा रखा। अथाह ग़म के समंदर में हिज्र का सितारा डूब गया। कितने शायरों को दिल्ली ने सिवा दुःख के कुछ और न दिया और जिन्हें कुछ दिया वो ख़ुश-क़िस्मत होंगे। बक़ौल फ़िराक़ साहब—“मेहरबानी को मुहब्बत नहीं कहते ऐ दोस्त।”

घर अब दो भागों में बाँट दिया गया है। इंसान के चले जाने पर वैसे भी उसके द्वारा छोड़ी गई हर शय का यही हाल होता है। इसकी शुरुआत उसके बुढ़ापे के साथ शुरू हो जाती है। गिद्ध और बाज की मानिंद लोग झपट्टा मारते हैं। सामने बने आवास में लॉन की दीवार ठीक वैसी ही है जैसी मैंने कल्पना की थी। दीवार में एक छोटा-सा लोहे का गेट लगा है, जहाँ से आप अंदर दाख़िल हो सकते हैं। बादल भाई ने गेट खोला और हम अंदर दाख़िल हुए। एक लड़की गेट के अंदर पहले से मौजूद थी। हाथों में किताबों का बोझ, जिससे समझ आ रहा था कि सामने खड़ी लड़की रिसर्चर है। आप सोचेंगे कि किताबें तो किसी के भी हाथों में हो सकती हैं, ऐसे में मैंने कैसे पहचाना कि वह एक रिसर्चर है। सवाल अच्छा है, लेकिन अगर आप एकेडेमिया से जुड़े हैं तो ऐसा सवाल करने की ज़रुरत ही नहीं। आप ख़ुद समझ जाएँगे कि कैसे हम लोग इस बात का अंदाज़ा लगा लेते हैं। दरअस्ल होता यह है कि स्कॉलर की पर्सनालिटी चीख़-चीख़ के ख़ुद-ब-ख़ुद बताने लगती है कि वह स्कॉलर है। जैसे हाथों में घड़ी, पैरों में महँगे जूते या चप्पल। बाल अच्छे से खिंचे हुए, गर्मियाँ हैं तो काला चश्मा, फ़ोन जेब से झाँकता हुआ, जिस हाथ में घड़ी है उसी में या दूसरे हाथ में नई ख़रीदी गाड़ी की चाभी और अंत में सबसे ज़रूरी साइडर बैग। स्कॉलर की संपूर्णता प्रदर्शित करने के लिए यह प्रजाति कोई-न-कोई बेपढ़ी किताब हाथों में ज़रूर रखती है। ध्यान दीजिए इनके पास बैग भी है। मुझे देखकर नव-युवती ने न ही कोई आश्चर्य प्रदर्शित किया और न कोई उत्साह। स्कॉलर आदी हो जाते हैं किसी न किसी नए चेहरे को देखने के। गाइड के यहाँ तो ये भीड़ किसी मंदिर में आए श्रद्धालुओं की तरह लगी ही रहती है। हम दोनों लोग आगे बढ़े इतने में प्रोफ़ेसर साहब बाहर आ गए थे। पहले वह उस नव-युवती से मुख़ातिब हुए और उसके बाद रुख़ हमारी ओर हुआ। हमने अपना-अपना परिचय दिया। आने का कारण भी ज़ाहिर किया। उनके चेहरे पर एक प्रसन्नता थी। कहने लगे बहुत दिनों बाद कोई फ़िराक़ साहब को ढूँढ़ता हुआ इधर आया है। इससे पहले मेरे एक मित्र आए थे। मैं गणित विषय का प्रोफ़ेसर हूँ। इस जून में रिटायर हो जाऊँगा। मेरा सौभाग्य है इस घर में रहना। पहले ये घर पूरा एक था। ये बीच में जो दीवार देख रहे ये तब नहीं थी जब फ़िराक़ साहब यहाँ रहते थे। आवास की कमी की वजह से ऐसा किया गया है। ये दोनों घर एक थे। हम कौतूहल के साथ अंदर झाँकने की कोशिश कर रहे थे। उस समय वहाँ बाहर बैठने के लिए एक सीमेंटेड टीन भी पड़ी थी। हम कुछ पूछते इससे पहले ही प्रोफ़ेसर साहब ने एक पेड़ की ओर इशारा किया।

“ये पेड़ भी फ़िराक़ साहब ने लगाया था। ये आँवले का पेड़ है। इसके आलावा यहाँ तीन यूकेलिप्टिस के पेड़ भी लगे थे। शायद गिरने के डर से यूनिवर्सिटी ने कटवा दिए। ख़ूब आश्वस्त तो नहीं हूँ, लेकिन शायद वह भी फ़िराक़ साहब ने ही लगवाए थे।”

उस वक़्त मुझे उन बातों पर ख़ूब भरोसा नहीं हुआ। मनुष्य प्रथम दृष्टया हर सुनी बात को संशय से देखता है, लेकिन अब उस आँवले के पेड़ को लेकर मैं कंफ़र्म हूँ कि उसे फ़िराक़ साहब ने ही लगवाया था। सीरीज़ (बातें फ़िराक़ की) बनाते वक़्त मेरी बात फ़िराक़ साहब की नातिन से हुई। उन्होंने बताया कि जब वह गर्मियों की छुट्टियों में इलाहाबाद जाती थीं, उनके नाना उन्हें ख़ूब आँवला खिलाते थे। एक रोज़ उन्होंने नाना से पूछा भी कि “नाना आप इतने कड़वे-कड़वे आँवले मुझे क्यों खिलाते हैं? मुझे ये बिल्कुल पसंद नहीं।” फ़िराक़ साहब ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया कि “बिटिया! मैं आज भी बिना चश्में के ठीक से देख लेता हूँ। ये इसी कड़वे-कड़वे आँवले की बदौलत है।” फ़िराक़ साहब ने ज़रूर यह औषधीय पेड़ इसीलिए अपने आँगन में लगाया होगा। बहरहाल मैंने उस वक़्त भी उस पेड़ को प्रणाम किया था। उसका स्पर्श भी यही सोचकर किया था कि इसे कभी फ़िराक़ साहब ने छुआ होगा। कुछ मुख़्तसर-सी बातें बताकर प्रोफ़ेसर साहब ने हम से रुख़्सती ली। वह अंदर चले गए और हम बाहर भटकने लगे। अब हमारे पास लॉन में भटकने का परमिट था। मुझे यह बात आज भी परेशान करती है कि उन्होंने हमें अंदर क्यों नहीं बुलाया। मैं ऊपर आप से कह भी रहा था कि ये कोई साधारण घर नहीं है। यहाँ फ़िराक़ साहब की ऊर्जा आज भी महसूस की जा सकती है। उनके मिसरे (कविता की एक पंक्ति) आज भी ब्रह्मांड में विचरने के बाद यहीं लौट कर आते होंगे।

बक़ौल फ़िराक़ साहब …

पलट रहे हैं ग़रीब-उल-वतन पलटना था
वो कूचा रू-कश-ए-जन्नत हो घर है घर फिर भी

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