Font by Mehr Nastaliq Web

फूल की थरिया से छिटकती झनकार की तरह थीं शारदा सिन्हा!

कहते हैं फूल की थरिया को लोहे की तीली से गर छेड़ दिया जाए तो जो झनकार निकलेगी वह शारदा सिन्हा की आवाज़ है। कोयल कभी बेसुरा हो सकती है लेकिन वह नहीं!

कातिक (कार्तिक) में नए धान का चिउड़ा महकता है। शारदा सिन्हा की आवाज़ खेत-खलिहानों के बीच उठती है और सुदूर सारे पुरबिहा कुलबुला जाते हैं। बहुत दुर्धर्ष दिनों में भी वे इसी आवाज़ के सहारे लौटते हैं।

कभी शमशेर ने कहा था कि हिंदी में त्रिलोचन और सॉनेट लगभग पर्याय हैं―ठीक उसी तरह लोक में छठ और शारदा पर्याय हैं और यह एक अजीब संयोग है कि उन्होंने छठ के पहले दिन शरीर छोड़ दिया।

भोजपुरी के पास जब अपनी सभ्यताओं को उँगली पर गिनने के दिन बचे हैं―ऐसे में वहीं थीं जहाँ हम बार-बार लौटते रहे। बहुत रिपीटीशन के बावजूद भी उन्होंने कभी उबाया नहीं। जब भी घर की ओर लौटना हुआ, वह हमेशा छूती रहीं। उनकी उपस्थिति हमारे परदेसी दिनों में हमारी माँओं की तरह थी; जो चावल-बीनते, सूप-झटकते―‘तार बिजली से पतले हमारे पिया’― गाती रहीं।

गर्मी के दिनों में मटकोड़ से आती हिलती हुई आवाज़ में वहीं थीं। सगुन, हल्दी, चुमावन, ब्याह, और विदाई में वही थीं। वहीं थीं जिन्होंने बहनों की विदाई हमें पहली बार रुलाया―‘निमिया तले डोली रख दे मुसाफ़िर!’

नईहर की याद में किलसती गवने आईं दुलहिने जिनके लिए बाबा का घर दूभर हो गया, उनके समवेत स्वर को―बढ़ियाई भादों में नरखर काट बेड़िया बना नईहर जाने की धमकी बनाती वहीं थीं―जो कातिक में हमें गाँव जाने पर वापस लौटने नहीं देती थीं। हमारे जीवन-रंग का कौन-सा हिस्सा था जो उनकी आवाज़ से सुवासित नहीं रहा―बारहमासी फूल की तरह।

परदेसियों के इंतज़ार में छत पर कपड़ों की तरह सूखती स्त्रियों के विरह ने इसी आवाज़ में साँस लेना सीखा और आने का मनुहार कर ‘पनिया के जहाज़ से पलटनिया’ बुलाने का प्रेमातिरेक भी।

वह बहुत लहरती हुई आवाज़ रही जिसने बहने के लिए लोक को  चुना―एकदम बेलौस! बावजूद इसके बॉलीवुडिया रंगीनियों के बीच दाम्पत्य प्रेम के सौंदर्य में भावुक करती सबसे ज़्यादा सुने जानी वाली आवाज़ भी वही थी―कहे तोसे सजना! तोहरी ई सजनिया...

राघोपुर सुपौल में जन्मी, बेगूसराय में ब्याही गईं शारदा सिन्हा जो ठाकुरबाड़ी में भजन गाने के लिए कभी सास से इजाज़त माँगने की मुन्तज़िर रहीं―लोक-जीवन का वह राग बन गईं जिनके बग़ैर कहीं कुछ नहीं सोहेगा। अब कोयल बिन बाग़ सचमुच नहीं सोहेगा? वह लोक जो सोहनी, रोपनी में बसता है, जहाँ दउरी में पनपियाव लिए पत्नियाँ प्रेमी के इंतज़ार में स्टेशन तक चली जाती हैं―उनके उत्साह में कोई और रंग नहीं सोहेगा। उनके विरह को कोई आवाज़ नहीं ही सोहेगी।

माथे पर बिंदी की जगह गोल टीका, चौड़ी पाढ़ की साड़ी पहने, मुँह में घुलते हुए पान के साथ हारमोनियम पर बैठी हुईं विदुषी शारदा सिन्हा―आवाज़ की दुनिया में वहाँ बैठी दिखती थीं, जहाँ से निर्झरिणी फूट पड़ती हैं। जहाँ से जीवन का उद्दाम संगीत बरसता है।

शारदा सिन्हा से लोक-उत्सव का कोई रंग अछूता नहीं रहा। उनकी आवाज़ में मैथिली महकती रही। जहाँ-जहाँ उन्होंने छुआ वह खनक उठा। विद्यापति से महेंद्र मिसिर तक, खलिहान से चरवाही तक ,ओसारे से लेकर आँगन बुहारने तक उनकी आवाज़ लोक-जीवन का उद्दाम संगीत है―जिनमें रचे-बसे लोग अपनी अभिव्यक्ति पाते रहेंगे। 

अब जब भोजपुरी में कहीं एक पत्र छाँव भी नहीं दीखता, वह बरगद छतनार की तरह पसरी रहेंगीं, जहाँ जन छहाँते रहेंगे। कातिक (कार्तिक) में कहीं गूँजती आवाज़ पुरबिहों को किलसाती रहेगी। वे बार–बार लौटेंगे। 

नवरात्रि की साँझ में यह आवाज़ महकती रहेगी। वह उसी हिलती आवाज़ में गाएँगी―‘जगदम्बा घरे दियना बारि अइनी हो...’

'बेला' की नई पोस्ट्स पाने के लिए हमें सब्सक्राइब कीजिए

Incorrect email address

कृपया अधिसूचना से संबंधित जानकारी की जाँच करें

आपके सब्सक्राइब के लिए धन्यवाद

हम आपसे शीघ्र ही जुड़ेंगे

25 अक्तूबर 2025

लोलिता के लेखक नाबोकोव साहित्य-शिक्षक के रूप में

25 अक्तूबर 2025

लोलिता के लेखक नाबोकोव साहित्य-शिक्षक के रूप में

हमारे यहाँ अनेक लेखक हैं, जो अध्यापन करते हैं। अनेक ऐसे छात्र होंगे, जिन्होंने क्लास में बैठकर उनके लेक्चरों के नोट्स लिए होंगे। परीक्षोपयोगी महत्त्व तो उनका अवश्य होगा—किंतु वह तो उन शिक्षकों का भी

06 अक्तूबर 2025

अगम बहै दरियाव, पाँड़े! सुगम अहै मरि जाव

06 अक्तूबर 2025

अगम बहै दरियाव, पाँड़े! सुगम अहै मरि जाव

एक पहलवान कुछ न समझते हुए भी पाँड़े बाबा का मुँह ताकने लगे तो उन्होंने समझाया : अपने धर्म की व्यवस्था के अनुसार मरने के तेरह दिन बाद तक, जब तक तेरही नहीं हो जाती, जीव मुक्त रहता है। फिर कहीं न

27 अक्तूबर 2025

विनोद कुमार शुक्ल से दूसरी बार मिलना

27 अक्तूबर 2025

विनोद कुमार शुक्ल से दूसरी बार मिलना

दादा (विनोद कुमार शुक्ल) से दुबारा मिलना ऐसा है, जैसे किसी राह भूले पंछी का उस विशाल बरगद के पेड़ पर वापस लौट आना—जिसकी डालियों पर फुदक-फुदक कर उसने उड़ना सीखा था। विकुशु को अपने सामने देखना जादू है।

31 अक्तूबर 2025

सिट्रीज़ीन : ज़िक्र उस परी-वश का और फिर बयाँ अपना

31 अक्तूबर 2025

सिट्रीज़ीन : ज़िक्र उस परी-वश का और फिर बयाँ अपना

सिट्रीज़ीन—वह ज्ञान के युग में विचारों की तरह अराजक नहीं है, बल्कि वह विचारों को क्षीण करती है। वह उदास और अनमना कर राह भुला देती है। उसकी अंतर्वस्तु में आदमी को सुस्त और खिन्न करने तत्त्व हैं। उसके स

18 अक्तूबर 2025

झाँसी-प्रशस्ति : जब थक जाओ तो आ जाना

18 अक्तूबर 2025

झाँसी-प्रशस्ति : जब थक जाओ तो आ जाना

मेरा जन्म झाँसी में हुआ। लोग जन्मभूमि को बहुत मानते हैं। संस्कृति हमें यही सिखाती है। जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से बढ़कर है, इस बात को बचपन से ही रटाया जाता है। पर क्या जन्म होने मात्र से कोई शहर अपना ह

बेला लेटेस्ट