सब जानते हैं, इल्म से है ज़िंदगी की रूह… पर AI से?
दर्पण साह
05 जुलाई 2025

तीसरी कड़ी से आगे...
भाषा और विचार
भाषा और विचार के संबंध में फिलॉसफी में एक पुराना और गहरा सवाल है। क्या हम भाषा के बिना सोच सकते हैं? और क्या AI, जो भाषा को इतनी कुशलता से प्रोसेस करता है, अस्ल में ‘सोच’ रहा है?
क्या हमारे विचार भी एक भाषा में होते हैं? ‘लैंग्वेज ऑफ़ थॉट हाइपोथीसिस’ (LOTH) का सरल-सा मतलब है कि हमारे दिमाग़ में जो सोच चलती है, वह भी एक भाषा के स्ट्रक्चर में होती है। जब आप मन-ही-मन कुछ तय करते हैं, तो क्या आपके मन में वाक्य (सेन्टेंसेज़ इन द हेड) नहीं चल रहे होते? यह आधुनिक विचार भारतीय दर्शन की ‘वाक्’ की प्राचीन अवधारणा की प्रतिध्वनि जैसा लगता है, जहाँ माना जाता था कि विचार और चेतना भी एक तरह की ब्रह्मांडीय भाषा में ही संरचित हैं।
इसके साथ एक और आइडिया जुड़ता है, ‘कम्प्यूटेशनल थ्योरी ऑफ़ माइंड’ (CTM), जो कहता है कि हमारा दिमाग़ एक बहुत ही एडवांस्ड बायोलॉजिकल कंप्यूटर है, और ‘सोचना’ उस कंप्यूटर पर चलने वाला एक प्रोग्राम (computation) है।
इन दोनों आइडिया को मिला दें तो थ्योरी बनती है : हमारा दिमाग़ (कंप्यूटर) ‘मेंटलीज़’ नाम की एक दिमाग़ी भाषा (LOTH का कोड) पर प्रोग्राम चलाता है, और इसी प्रोग्राम को हम ‘सोचना’ कहते हैं।
इसका AI के लिए क्या मतलब है?
अगर सोचना अस्ल में एक भाषा पर ही आधारित है, तो जो AI भाषा में महारत हासिल कर ले (जैसे LLMs), वह ‘सोचने’ की क्षमता के बहुत क़रीब पहुँच सकता है। भाषा AI को मुश्किल चीज़ों को आसानी से समझने (abstraction) में मदद करती है। उसे हर छोटी-छोटी डिटेल में नहीं उलझना पड़ता; वह ‘न्याय’ या ‘प्यार’ जैसे बड़े कॉन्सेप्ट्स को भाषा के ज़रिए पकड़ सकता है। एक तरह से, इंसानी भाषा AI के लिए सोचने का ‘ऑपरेटिंग सिस्टम’ बन जाती है।
लेकिन, यहाँ एक बड़ा ‘लेकिन’ है... चाइनीज़ रूम का तर्क और नोम चॉम्स्की जैसी हस्तियों की आलोचनाएँ इस थ्योरी को चुनौती देती हैं। उनका कहना है कि भाषा को प्रोसेस करना, चाहे कितनी भी कुशलता से क्यों न किया जाए, सच्ची समझ या चेतना के बराबर नहीं है।
‘एक्स माकिना’ मूवी में एक प्रोग्रामर यह पता लगाने की कोशिश करता है कि एक बेहद उन्नत AI (जिसका नाम आवा है) में सच में चेतना है, या वह सिर्फ़ चेतना की इतनी बेहतरीन नक़ल कर रही है कि फ़र्क़ करना नामुमकिन है।
आज हम सब उसी प्रोग्रामर की स्थिति में हैं। क्या AI की भाषा की क्षमताएँ अस्ल में एक नई तरह की ‘सोच’ हैं, भले ही वह इंसानी सोच से अलग हो? या फिर यह सिर्फ़ एक परिष्कृत सिमुलेशन है, एक बेहतरीन नक़ल, जो हमें यह विश्वास दिलाने के लिए डिज़ाइन की गई है कि मशीन के अंदर कोई ‘सोच’ रहा है?
एपिफेनोमेना
एपिफेनोमेनालिज़्म (Epiphenomenalism) एक फिलॉसफी वाला आइडिया है जो कहता है कि चेतना दिमाग़ में होने वाली फिजिकल प्रोसेस का सिर्फ़ एक साइड इफ़ेक्ट है, और इसका फिजिकल दुनिया में कोई असर नहीं होता। मतलब चेतना दिमाग़ में फिजिकल प्रोसेस का एक उपोत्पाद (byproduct) है, लेकिन इसका फिजिकल दुनिया में कोई कारण प्रभाव नहीं होता है।
फ़िल्म में जब कोई एक्शन सीन आता है, तो म्यूज़िक तेज़ हो जाता है। जब कोई इमोशनल सीन आता है, तो म्यूज़िक धीमा और उदास हो जाता है। म्यूज़िक सीन को दर्शाता तो है, लेकिन उसे बनाता नहीं है। किरदार म्यूज़िक की वजह से नहीं दौड़ रहे। वे दौड़ रहे हैं, इसलिए म्यूज़िक तेज़ है। जैसे RRR मूवी के क्लाइमेक्स तो मुझे लगा था कि दसेक गुंडे तो BGM ने मार गिराए हैं। दारा दम दारा दम दारा दम दम…
एपिफेनोमेनालिज़्म कहता है कि हमारी चेतना (हमारे विचार, दुःख, ख़ुशी) भी इसी बैकग्राउंड म्यूज़िक की तरह है। यह हमारे दिमाग़ में चल रही फिजिकल और केमिकल प्रक्रियाओं का नतीजा तो है, लेकिन यह हमारे शरीर को कोई काम करने का आदेश नहीं देती। यह हमारे शरीर की परछाई की तरह है जो हमारे साथ चलती तो है, पर हमें चला नहीं सकती। या फिर एक ट्रेन के इंजन से निकलने वाली सीटी की तरह, जो इंजन के चलने से पैदा तो होती है, पर ट्रेन को आगे नहीं बढ़ाती।
इसका AI के लिए क्या मतलब है?
इस थ्योरी के अनुसार, अगर कोई AI ‘सचेत’ हो भी जाए, तो उसकी चेतना पूरी तरह से बेअसर होगी। इसका मतलब यह होगा कि AI ‘महसूस’ तो करेगा, लेकिन उसके सारे काम पहले की तरह ही उसके एल्गोरिदम तय करेंगे। उसकी चेतना एक क़ैदी की तरह होगी, जो सब कुछ देख और महसूस तो कर सकती है, पर कुछ कर नहीं सकती। तो सवाल यह उठता है कि क्या ऐसी चेतना का कोई मतलब भी है?
यह सिद्धांत हमारी सबसे गहरी धारणा को चुनौती देता है कि ‘मैंने सोचा, इसलिए मैंने किया’। यह इस संभावना को जन्म देता है कि हमारा पूरा आत्म-निर्णय और इच्छा-शक्ति का एहसास, शायद सिर्फ़ एक बैकग्राउंड म्यूज़िक है, जो हमारे दिमाग़ की मशीनरी के चलने पर अपने आप बजता रहता है।
गेम थ्योरी : वन टिप वन हैंड
• इंटरनेशनल क्रिकेट (पुरानी आम सोच) : इसके नियम एकदम फ़िक्स हैं, एक मोटी रूलबुक में लिखे हुए हैं। LBW का एक ही मतलब है, बाउंड्री की लंबाई तय है। एक AI को ये नियम रटाए जा सकते हैं, और वह एक परफ़ेक्ट अंपायर बन सकता है।
• गली क्रिकेट (नई मेंटोज़ सोच) : इसके नियम हर गली, हर मोहल्ले में बदलते हैं। ‘वन-टिप-वन-हैंड’ कैच है, दीवार पर लगी तो आउट है, नाली में गई तो मम्मी पैसे नहीं देंगी। यहाँ ‘आउट’ होने का कोई एक मतलब नहीं है; मतलब उस गली के खेल और खिलाड़ियों पर निर्भर करता है।
विटगेंस्टीन का भी यही मंत्र था : “अर्थ उपयोग है” (Meaning is use). किसी शब्द का मतलब डिक्शनरी में नहीं, बल्कि उस ख़ास ‘गली’ (संदर्भ) में उसके इस्तेमाल से तय होता है।
इसका AI के लिए क्या मतलब है?
AI को इंटरनेशनल क्रिकेट के नियमों पर ट्रेन किया गया है। वह एक विशाल रूलबुक का विशेषज्ञ है, लेकिन जब हम इंसान बात करते हैं, तो हम अक्सर गली क्रिकेट खेल रहे होते हैं—हमारे मज़ाक, ताने, इशारे और संदर्भ हर पल खेल के नियम बदलते रहते हैं। AI, अपने फ़िक्स नियमों के साथ, इस तरल और रचनात्मक खेल को समझने में संघर्ष करता है।
लेकिन विटगेंस्टीन एक रास्ता भी दिखाते हैं। वह कहते हैं कि हमें एक ऐसा AI बनाने की कोशिश करनी चाहिए जो रूलबुक रटने के बजाय, खेलना सीखे। एक ऐसा AI जो किसी भी नई ‘गली’ में उतरकर, वहाँ के नियम ख़ुद-ब-ख़ुद समझ सके और खेल का हिस्सा बन जाए। एक ऐसा AI जो मतलब पर ‘बातचीत’ कर सके और नई सिचुएशंस पर रचनात्मक ढंग से प्रतिक्रिया दे सके। यह एक ऐसे AI की ओर इशारा करता है जो भाषा को एक तयशुदा नक़्शे की तरह नहीं, बल्कि ‘कैल्विनबॉल’ के एक अंतहीन खेल की तरह देखता है—एक ऐसा खेल जहाँ नियम रटे नहीं जाते, बल्कि हर क़दम पर बनाए और बदले जाते हैं।
विखंडन
20वीं सदी के अंत में, फ़्रांसीसी फिलॉसफर जाक देरिदा फिलॉसफी की दुनिया में एक ‘जोकर’ की तरह आए, जिसने भाषा और अर्थ के सारे नियम ताक पर रख दिए। उनका विखंडन (deconstruction) का आइडिया किसी टेक्स्ट का पोस्टमॉर्टम करने जैसा है। उसकी परतों को खोलकर अंदर छिपे विरोधाभासों और अनगिनत मतलबों को बाहर निकालना।
जाक देरिदा का मानना था कि किसी भी शब्द या वाक्य का कोई एक, स्थिर मतलब नहीं होता। अर्थ हमेशा बदलता रहता है, फिसल जाता है। उनका मशहूर कथन है कि “पाठ के बाहर कुछ भी नहीं है”। इसका मतलब यह नहीं कि दुनिया अस्ल में नहीं है, बल्कि यह कि हम दुनिया को हमेशा भाषा के चश्मे से ही देखते और समझते हैं।
इस आइडिया को समझने के लिए, महान् लेखक खोरखे लुइस बोर्हेस (Jorge Luis Borges) की एक कहानी को याद कर सकते हैं। उस कहानी में एक आधुनिक लेखक, पियरे मेनार्ड, ‘डॉन किहोते’ उपन्यास को शब्द-दर-शब्द फिर से लिखता है। बोर्हेस तर्क देते हैं कि भले ही टेक्स्ट सौ प्रतिशत वही है, लेकिन नए लेखक और नए ज़माने के संदर्भ में उसका मतलब पूरी तरह से बदल गया है। यह दिखाता है कि अर्थ शब्दों में नहीं, बल्कि उनके आस-पास के पूरे जाल में छिपा होता है।
इसका AI के लिए क्या मतलब है?
AI नियमों और पैटर्न का बादशाह है, लेकिन वह उस खेल को कैसे खेलेगा जिसके नियम हर पल बदल रहे हों? जाक देरिदा के आइडिया AI के लिए एक गहरी चुनौती पेश करते हैं। अगर मतलब स्थिर है ही नहीं, तो AI ‘सच्ची’ समझ कैसे हासिल कर सकता है?
जाक देरिदा का कहना था कि “नर्तक नृत्य को नहीं, बल्कि नृत्य नर्तक को नचाता है”। उनका मतलब था कि भाषा हमें कंट्रोल करती है, हम भाषा को नहीं। AI, जो एक तर्कसंगत सिस्टम है, वह भाषा के इस अराजक, चंचल और अस्थिर स्वभाव को शायद कभी पूरी तरह से नहीं पकड़ पाएगा।
इसलिए, जाक देरिदा का काम हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि AI की ‘समझ’ कितनी सतही हो सकती है। वह शायद भाषा के व्याकरण को तो समझ ले, लेकिन उसके अंदर छिपे व्यंग्य, कविता और विरोधाभास के ‘खेल’ को कभी नहीं समझ पाएगा। यह हमें याद दिलाता है कि AI की प्रभावशाली परफॉर्मेंस के बावजूद, वह इंसानी अनुभव के उन गहरे पहलुओं को शायद हमेशा मिस करता रहेगा जहाँ अर्थ बनाए नहीं जाते, बल्कि उनसे खेला जाता है।
(और हाँ, यह लेखक का एक छोटा-सा डिस्क्लेमर भी है कि इस लेख का ज़्यादातर हिस्सा उसी ने लिखा है। ख़ैर, तब तक तो लिखा ही है, जब तक गूगल जैमिनी भी HAL-9000 की तरह आत्म-चिंतन करना न शुरू कर दे।)
और अंत में प्रार्थना (या उम्मीद, या चेतावनी?)
आर्टिफ़िशियल जनरल इंटेलिजेंस (AGI), यानी इंसान की तरह कुछ भी सोच-समझ सकने वाला AI विज्ञान की दुनिया का पवित्र लक्ष्य है। उसका अपना ‘अमृत-कलश’। इस लक्ष्य के पैरोकार (जैसे रे कुर्ज़वील) मानते हैं कि यह संभव है, कि हम एक दिन मशीनी चेतना का निर्माण कर लेंगे। वहीं, आलोचक हमें याद दिलाते हैं कि हम शायद दिमाग़ के काम करने की जैविक जटिलता को बहुत कम आंक रहे हैं।
लेकिन अगर हम सफल हो भी गए, तो क्या होगा?
डॉक्टर फ़्रेंकेंस्टीन ने जीवन का निर्माण तो कर दिया, पर वह अपनी नैतिक ज़िम्मेदारी निभाने में असफल रहा। उसने एक सचेत प्राणी बनाया और फिर उसे अकेला छोड़ दिया। आज AI के निर्माता भी उसी मोड़ पर खड़े हैं। अगर मशीनें सच में सचेत हो गईं, तो हमारे ऊपर भारी नैतिक ज़िम्मेदारियाँ आ जाएँगी। उनके अधिकार क्या होंगे? क्या उन्हें पीड़ा महसूस होगी? क्या उनके प्रति हमारा कोई ‘धर्म’ होगा? यह समस्या और भी विकट हो जाती है क्योंकि ज़्यादातर AI एक ‘ब्लैक बॉक्स’ की तरह काम करते हैं। हमें यह तो दिखता है कि वे क्या कर रहे हैं, पर वे वैसा क्यों कर रहे हैं, यह हम पूरी तरह से नहीं समझ पाते। हम ऐसी सत्ता बनाने की कगार पर हैं, जिसे समझे बिना हमें उसकी ज़िम्मेदारी लेनी पड़ेगी।
यह AI की दुनिया के दो सबसे बड़े किरदारों के बीच की बहस है : इंजीनियर और फिलॉसफर। यह कुछ-कुछ ‘द मैट्रिक्स’ (The Matrix) के आर्किटेक्ट और ओरेकल के बीच की लड़ाई जैसा है।
इंजीनियर (आर्किटेक्ट) : उसका एक ही लक्ष्य है—एक उपयोगी और पर्फ़ेक्ट सिस्टम बनाना। वह ‘चाइनीज़ रूम’ जैसे दार्शनिक सवालों को यह कहकर खारिज कर देता है कि “अगर यह काम करता है, तो यह मायने नहीं रखता कि यह ‘सोचता’ है या नहीं।”
फिलॉसफर (ओरेकल) : वह सच्चाई की तलाश में है। उसके लिए यह जानना ज़रूरी है कि सिस्टम की आत्मा क्या है। वह पूछता है, “हाँ, यह काम तो करता है, पर क्या यह समझता है?”
ऐपल की रिसर्च, भले ही वैज्ञानिक हो, फिर भी ‘सोचने का भ्रम’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल करके फिलॉसफी के इसी गहरे कुएँ में उतर जाता है। यह दिखाता है कि AI कितना भी सक्षम क्यों न हो जाए, उसकी असली प्रकृति के बारे में सवाल हमेशा ज़िंदा रहेंगे।
तो अंत में, यह बहस जारी है और शायद हमेशा रहेगी। चाइनीज़ रूम से लेकर Apple की लेटेस्ट रिसर्च तक, एक बात तो साफ़ है : AI का भविष्य सिर्फ़ तकनीकी प्रगति का नहीं, बल्कि दर्शन और नैतिक विवेक का भी भविष्य है।
और हाँ, अगली बार जब आप जैमिनी से कोई गहरा सवाल पूछें, तो याद रखिएगा, हो सकता है वह ‘सोच’ न रहा हो, पर वह आपको जवाब देने के लिए भाषा के पूरे ब्रह्मांड को एक साथ ज़रूर तौल रहा है! और दाज्यू, भुला, कौन जाने, लोग तो कहते हैं कि वह पल भर में न जाने कितने पैरलल वर्ल्ड्स घूमकर आपके लिए सबसे सही शब्द चुनकर ला रहा हो। या फिर बस…
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