इलाहाबाद तुम बहुत याद आते हो-4
गोविंद निषाद
18 सितम्बर 2025

तीसरी कड़ी से आगे...
आगे डायोसिस चर्च ऑफ़ लखनऊ के प्रभारी का आवास है। मैं जब छात्रावास में रहता था। तब एक बार ऐसा हुआ कि छात्रावास ने व्यवस्थाओं से दूर-दूर तक अपना नाता तोड़ लिया। न साफ़-सफ़ाई, न पीने को साफ़ पानी। हमारा हॉस्टल ट्रस्ट का था। हम विश्वविद्यालय प्रशासन और विद्यार्थी कल्याण कार्यालय कई बार गए। वहाँ से हमें कहा जाता कि आपका छात्रावास ट्रस्ट का है, हम कुछ नहीं कर सकते हैं। हम उसी ऑफ़िस में नारेबाज़ी करते हुए, अपने लोकतांत्रिक अधिकारों का भरपूर इस्तेमाल करते। हॉस्टल से डीन कार्यालय निकलते हुए हम नारे लगाते, “फ़लाने हास्टल चौड़े से/ बाक़ी सब ... से”। “फ़लाने हॉस्टल की घोषणा...” ऐसा नहीं था कि हम जनतांत्रिक नारे नहीं लगाते थे, वो भी लगाते थे—लेकिन बीच-बीच में।
किसी को घंटा कोई फ़र्क़ पड़ता। अंत में हार मानकर हम ट्रस्ट के प्रमुख के पास धरना देने जाने लगे। हम रोज़-रोज़ यहाँ आते। इकट्ठा होते और शुरू हो जाती हमारी सभा। यह दहाड़ने का मौक़ा होता उन सभी छात्र नेताओं के लिए, जो अगले साल छात्रसंघ का चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे होते। हम यहाँ भी बात-बात पर उसी नारे को दोहराते। वह हमारा ध्येय वाक्य था।
कुछ दिन बाद जब ट्रस्ट को लग गया कि हम आते रहेंगे, थकेंगे नहीं। तब जाकर ट्रस्ट ने एक नया अधिक्षक भेजने की घोषणा की। सड़क पार करने वाला हूँ कि वहाँ पर आकर एक ऑटो रुक गया। ऑटो में से एक आदमी बाहर आया। उसने हाईकोर्ट की नई बिल्डिंग का पता पूछा। पहले तो मैं संशय में आ गया कि कौन-सा रास्ता है। फिर याद आया, अरे यह तो वही बिल्डिंग है, जिसमें मैं कभी-कभी आता था, जब वह बन रही थी।
इस बिल्डिंग में पत्थर लगाने का ठीका मेरे बड़े भाई को मिला था। अब आप ऐसा न समझ जाइएगा कि वह कोई बहुत बड़े ठीकेदार हैं। हैं तो वह ठीकेदार ही लेकिन टुटपूंजिया क़िस्म के। हर शाम पैसे के लिए बड़े ठीकेदार के सामने घिघियाते हुए पाए जाते हैं। उन दिनों मैं ग्रेजुएशन में था। कभी-कभी वहाँ खाना खाने आ जाता था। रात में मज़दूरों वाले बाड़े में सो जाता। काम पूरा होने के बाद बचे हुए पैसे जब भाई ने माँगे, तब बड़े ठीकेदार ने उन्हें धमकाकर भगा दिया। बोला, “भाग जाओ भो... के, नहीं तो इसी बिल्डिंग में दफ़न कर देंगे।”
वह कुछ नहीं कर सकते थे सिवाय घिघियाने के। वह घिघियाते रहे कि पैसे नहीं देंगे, तो वह कैसे मज़दूरों का हज़ारों रूपए देंगे। उन्हें पैसे की जगह धमकी पर धमकियाँ मिली। पसीने का पैसा था। ऐसे कैसे छोड़ देते। तमाम कोशिशें की उन्होंने, लेकिन एक दिन पसीना सूख गया। वह बिना पैसे के वहाँ से लौट आए। फिर मज़दूरों के रूपए देने के लिए ब्याज़ पर लोन लिया। अब वह लोन कंपनी के एजेंट के सामने घिघियाते रहते हैं।
नई बिल्डिंग में न्याय का काम-काज ज़ोरों से चल रहा है। एक अधिकारी ठीक वहीं बैठता है, जहाँ मैं आकर सोया करता था। ठीक मेरे सिर के ऊपर। मैंने आदमी को बताया कि आगे जाकर मुड़ जाएँ। वहाँ से आगे एक चौराहा मिलेगा, उससे दाहिने हो जाए।
आगे ही एक पुराना बस स्टॉप था। वहाँ न कोई बस रुकती थी, न कोई यात्री बैठता थी। यह परित्यक्त लोगों की पनाहगाह था। वहाँ बग़ल में एक खटारा रिक्शा खड़ा था। ठीक वैसी ही एक ट्राइसाइकिल। स्टैंड के फ़र्श पर एक आदमी सोया हुआ था। तीन आदमी कुर्सी पर बैठे थे। तीनों मैले-कुचैले कपड़े पहने थे। तीनों जीर्ण-शीर्ण अवस्था में थे। रिक्शे को देखते ही मुझे लगा कि चलो मिठाई का डब्बा देने के लिए कोई मिल तो गया। अब एक मिठाई के डब्बे को एक ही लोग को दिया जा सकता था। यह तो धर्म संकट का मामला है। न्याय का तक़ाज़ा है कि किसी को नहीं दिया जाय। वहाँ से आगे बढ़ गया।
आगे जिला प्रशासन द्वारा धरना स्थल बनाया गया है। इलाहाबाद में किसी को भी धरना-प्रदर्शन करना हो तो, वह यहाँ आता है। उसके पीछे पुराना जीआईसी है, जिसमें अब वैसे लोग रहते हैं—जिन्हें राज्य और समाज दोनों संदिग्ध मानते हैं। मुझे भूख लगी थी। रास्ते में अंडे की एक दुकान मिली। मैं अंडा खाता हूँ। उसका पीला वाला हिस्सा नहीं खाता। उसका फ़ैट मेरी तबीयत ख़राब कर सकता है। बग़ल में एक कुत्ता खड़ा था। वह हिस्सा कुत्ते को खिला दिया। उसने मेरी तरफ़ देखना भी मुनासिब नहीं समझा। सोचने लगा कि क्या मैं इतना गया-गुज़रा हूँ कि कुत्ता भी मेरी तरफ़ नहीं देखना चाहता। हद है...
शायद उसे भी लगा होगा कि मैं खड़ूस हूँ। अक्सर लोग मुझे पहली मुलाक़ात में खड़ूस ही समझते हैं। कुत्ते को मेरी दरियादिली नज़र नहीं आई। वह दूसरी तरफ़ देखे जा रहा था। मैंने उससे कहा, “कुत्ते! देख मेरी तरफ़।” उसने एक बार भी मेरी तरफ़ नहीं देखा। भक्क भो... के। मैं वहाँ से चलते हुए, बड़े-बड़े ब्रांड की दुकानों को निहारता चला जा रहा था। मेरी कभी हिम्मत नहीं हुई इनके भीतर जाने की, जबकि मुझे ठीक-ठाक फ़ेलोशिप के पैसे मिलते हैं। कभी जाने की भी सोचता हूँ तो मुझे वो दिन याद आ जाते हैं, जब मैं एक ही कपड़े को सिलसिल कर पहना करता था। जूता मैंने बस ब्रांडेड ख़रीदा। एक बार मुझे जूते पहनने का शौक़ चर्राया। मैं फ़ुटपाथ से दो सौ रूपए वाला जूता ख़रीद लाया। जब उसे पहनकर चलता तो तेज़-तेज़ खट-खट की आवाज़ होती, जो बताती कि मेरा जूता फ़ुटपाथ से लिया हुआ है। मेरे रूममेट ने जूतों को लेकर मेरा मज़ाक़ उड़ाया। मुझे शर्म आई और अपमानित-सा महसूस हुआ। तभी से तय किया था कि जीवन में एक दिन महँगे ब्रांड का जूता पहनूँगा। जब मेरे पास पहली बार फ़ेलोशिप के पैसे आए तो मैं सीधे स्नेचर गया। ग्यारह हज़ार का जूता लिया और उसके मुँह पर दे मारा।
अब मैं आ पहुँचा हिंदू महिला इंटर कॉलेज। ठीक उसी से लगी हुई शहीद वॉल है। इस पर इलाहाबाद के शहीदों की तस्वीरें उकेरी गई हैं। उनकी वीरगाथाएँ हैं। साथ में विवरण दिए हैं। यहाँ, यह देखकर अच्छा लगा कि इलाहाबाद को इलाहाबाद ही लिखा गया है। जहाँ भी प्रयागराज है, वह कोष्ठक के भीतर है। चंद्रशेखर आज़ाद की जाति पर विशेष ध्यान देते हुए, उनके नाम के आगे पंडित जोड़ दिया गया है और शहीद रोशन सिंह के नाम के आगे ठाकुर।
यहाँ से पत्रिका चौराहा की तरफ़ जाने वाली सड़क पर मुड़ गया। ‘नार्दन इंडिया पत्रिका’ औपनिवेशिक काल में निकलने वाला महत्त्वपूर्ण अख़बार था। जब मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में अख़बारों की प्रतियाँ तलाश रहा था, तब मैंने देखा कि इस अख़बार की ढेरों प्रतियाँ यहाँ मौजूद हैं। इसका कार्यालय आज भी वहीं है। खंडहर ही सही, अभी उसका वजूद बचा हुआ है। अब मैं थक गया था, इतना कि चलने का मन नहीं हो रहा था। ऐसा लग रहा है कि दिल की धड़कनें तेज़ हो रही हैं। धड़कनों पर काबू पाने के लिए वहीं आयकर विभाग की तरफ़ लगी कुर्सियों पर बैठ गया। थोड़ी देर बाद आराम मिला, फिर उठा और चल दिया। चलते हुए पत्रिका चौराहे पर आ गया।
मुझे पता था कि अब भूख मेरी बर्दाश्त से बाहर हो रही है। किसी तरह मुझे सेंट जोसेफ़ स्कूल के मुख्य गेट तक पहुँचना था। औपनिवेशिक काल में यह आक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय से संबद्ध था। हर वर्ष की भाँति यहाँ क्रिसमस मेला लगा था। मैं हर साल मेला देखने नहीं, स्कूल देखने आता हूँ, क्योंकि आम दिनों में मेरे जैसों का इसके भीतर प्रवेश वर्जित होता है। हाँ, कभी-कभार जब किसी गोष्ठी का आयोजन होगेन हॉल में होता है, तब सीमित क्षेत्र में प्रवेश मिल जाता है।
आज के दिन इसका पूरा परिसर घूम सकता था। यहाँ आकर एक हीनताबोध घेर लेता है कि हम कितने मीलों पीछे हैं। जो बच्चे यहाँ से पढ़कर आते रहे हैं और जो आएँगे, उनके साथ प्रतियोगिता कर पाना असंभव है। मैं तो एक छप्पर के स्कूल में पढ़ा हूँ। भारत में एक नए तरह का श्रेणीक्रम शिक्षा पद्धति ने पैदा किया है। एक सवाल मुझे बार-बार सालता रहता है कि क्यों हमने शिक्षा में श्रेणियाँ बना दीं। गाँव के छप्पर स्कूल में पढ़ा छात्र, इस चमकते स्कूल से कैसे टक्कर ले पाएगा। इसके बाद भी हम नहीं माने। हमने अलग-अलग तरह के स्कूल खड़े कर दिए। राज्य के विद्यालय, केंद्रिय विद्यालय, नवोदय विद्यालय, अटल विद्यालय ब्ला-ब्ला-ब्ला...। जो इनमें से किसी में नहीं पढ़ा, वो दोयम दर्जे का हो गया। क्या हम सबको एक समान शिक्षा नहीं दे सकते थे। हम दावे करते हैं, देश से जाति और ग़रीबी को ख़त्म करने का। जबकि अलग-अलग तरह का श्रेणीकरण करते जा रहे हैं।
अब भूख मेरे बर्दाश्त से बाहर हो गई। मैंने तय किया कि मिठाई का डब्बा खोलूँगा। डब्बा खोला और खा गया, “दाने-दाने पर लिखा है, खाने वाले का नाम।” संकल्प लेकर निकला था कि डब्बा किसी रिक्शे वाले को दे दूँगा। ख़ुद ही खा गया। इस डब्बे पर मेरा नाम लिखा था।
रात के आठ बज गए थे। पान मुँह में दबाए, वहाँ से निकला। कंपनी बाग़ में घुसा, लगभग ख़ाली था। कुछ लोग हैं जो दौड़ रहे थे। यह समयप्रेमियों के लिए सबसे मुफ़ीद होता है। वह उन जगहों पर बैठे हुए हैं, जहाँ प्रकाश उन पर सीधे नहीं गिर रहा है। प्रेमरत प्रेमियों को ख़बर लगे, उससे पहले किसी कोने से पुलिस के पाँच-छह जवान, भूत की तरह प्रकट हुए। वह प्रकाश मार रहे थे। उन्हें देखते ही प्रेमियों में भगदड़ मच गई। सब ऐसे भागते हैं जैसे खरहा। उन्होंने मुझे अकेला देखकर ध्यान भी नहीं दिया। मुझे मुग़ल-ए-आज़म का गाना याद आ गया, “जब प्यार किया तो डरना क्या।” मैं भी जानता हूँ, जब आफ़त आती है तो उपदेश काम नहीं आते। भागना ही पड़ता है।
उन्हें भागता देखकर मेरी स्मृतियों का कीड़ा कुलबुलाने लगा। पहला वाक़या है, प्रदेश में सरकार बदल गई थी, नया निज़ाम प्यार के सख़्त ख़िलाफ़ था। उन्होंने एक नया स्क्वायड बनाया ‘एंटी रोमियो स्क्वायड’। उन दिनों यह प्रेमियों के लिए ख़ौफ़ हुआ करता था। यह कभी भी पार्क में घुसकर प्रेमियों की उठक-बैठक करवा सकते थे। परेशान कर सकते थे। मैं एक दुपहर एक दोस्त के साथ बैठा हुआ था। अचानक भगदड़ मच गई। हम जब तक समझ पाते, एंटी रोमियो स्क्वायड हमारे बिल्कुल सामने आ गई। नेतृत्व एक ट्रेनी आईपीएस अधिकारी कर रहे थे। उनके साथ पूरा दल-बल था, साथ में पत्रकारों का समूह। धड़कनें बढ़ गई हमारी।
हम दोनों ने एक-दूसरे को ढाढस बँधाया कि कुछ नहीं होगा। हम नहीं भागे, वहीं खड़े रहे। अधिकारी पास आया। उसने सवाल किया कि क्या आप लोगों को किसी तरह की परेशानी होती है। कोई परेशान तो नहीं करता? हमने कहा कि नहीं सर, कोई दिक़्क़त नहीं है। फिर वह आगे बढ़ गए। हमारी साँस में साँस आई।
अगले दिन ‘एंटी रोमियो स्क्वायड’ पर बीबीसी में एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई। उसमें एक फ़ोटो छपी थी। पहचानते देर नहीं लगी कि यह तो मैं हूँ। अपने दोस्तों को वह तस्वीरें दिखा कर आज भी मैं ख़ूब हँसता हूँ। आज भी बीबीसी कोई रिपोर्ट एंटी रोमियो स्क्वायड पर लिखता है तो मेरी ही तस्वीर छाप देता है।
दूसरा वाक़या कुछ ऐसा है। एक बार मैं शाम को एक लड़के के साथ घूमने गया। उससे बहस में इस क़दर उलझ गया कि पता ही नहीं चला रात के साढ़े नौ बज गए हैं। अचानक लगा कि इतना सन्नाटा कैसे है। पता चला कि कंपनी बाग़ का गेट बंद हो चुका है। हम बहस में उलझे हैं। जैसे ही हम उठकर गेट की तरफ़ बढ़े। तीन पुलिस वाले आ गए। लगे हमें धमकाने कि हम यहाँ कुछ ग़लत तो नहीं कर रहे हैं। उन्हें लगा कि हम गे हैं। उन्होंने हमारे माँ-बाप का नंबर माँगते हुए हमें धमकाया। हम टस से मस नहीं हुए। जब उन्हें लगा कि दोनों को धमकाकर कुछ नहीं मिलेगा। तब यह कहकर हमें जाने को कहा कि आगे से ध्यान देना।
कंपनी बाग़ है ही क़िस्से की खान। होगा क्यों नहीं, इतना ऐतिहासिक पार्क जो है। दिलचस्प बात है कि मुझे क्षेत्रीय अभिलेखागार इलाहाबाद में काम करते हुए कुंभ मेले की 1882 की एक फ़ाइल मिली, जिस पर दर्ज था कि कुंभ मेले से होने वाली आय का एक हिस्सा अल्फ़्रेड पार्क के विकास में लगाया गया। शिव वर्मा ने अपनी किताब ‘संस्मृतियाँ’ में एक बहुत भावुकतापूर्ण वर्णन कंपनी बाग़ का किया है, जब वह कंपनी बाग़ में उस जगह को देखने आए जिस जगह चंद्रशेखर आज़ाद ख़ुद को गोली मारकर शहीद हुए थे।
इस पार्क के तार 1857 की क्रांति से भी जुड़े हैं। इसके नीचे दफ़न दो गाँव शमसाबाद और छीतपुर के मेवातियों ने विद्रोह में भाग लिया था। बाद में जब विद्रोह शांत हुआ, तब इन्हीं दोनों गाँवों को ज़मींदोज़ कर दिया गया। बाद में इसके ऊपर अल्फ़्रेड पार्क बनाया गया। यहाँ बैठे अक्सर मुझे लगता है कि किसी घर के ऊपर तो नहीं बैठा हूँ। इसी के आगे बसे आठ गाँव को ज़मींदोज़ करके सिविल लाइंस बना। पार्क के एक हिस्से में राष्ट्रीय संग्रहालय की स्थापना की गई। इसी में उत्तर प्रदेश विधानसभा की पहली बैठक राजकीय पुस्तकालय में हुई। 1905 के आस-पास दूसरे शहरों की तरह यहाँ भी रानी विक्टोरिया की मूर्ति की स्थापना हुई, जो इटली से बनकर आई थी। मेमोरियल तो आज भी है यहाँ, लेकिन मूर्ति को हटा दिया गया है। मैं पार्क के गेट नंबर चार पर हूँ।
इसके आगे ही बिल्कुल सामने इंडियन प्रेस चौराहा है। बग़ल में इंडियन प्रेस की शानदार ईमारत। वहीं इंडियन प्रेस जहाँ से कभी ‘सरस्वती’ के साथ-साथ कई पत्र-पत्रिकाओं तथा किताबों का प्रकाशन हुआ। चौराहे पर महावीर प्रसाद द्विवेदी की प्रतिमा है। बिल्डिंग जब भी देखता हूँ, अभीभूत होता हूँ। क्या जलवा रहा होगा उस ज़माने में इसका। यह आज भी वैसी ही है, जैसे पहले थी। कुछ दिनों पहले कैंब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस के जर्नल में एक शानदार शोध आलेख पढ़ा था, इंडियन प्रेस से छपने वाली पत्रिकाओं और उसके इतिहास पर। हिंदी में ज़रूर ऐसे शोध कार्य होंगे, जिनसे मैं अभी भी अनभिज्ञ हूँ।
वहाँ से बालसन आता हूँ। जहाँ पहले गांधी-नेहरू हुआ करते थे, लेकिन वहाँ अब दीनदयाल के साथ विराट काया के साथ महर्षि भारद्वाज भी विराजमान हैं। इसके पास लगे एक बोर्ड पर लिखा है कि विमान बनाने और उड़ाने की कला की खोज इन्होंने की। नेहरू-गांधी नेपथ्य में चले गए हैं। यह बदलते समय की निशानियाँ हैं। भारद्वाज की विशाल प्रतिमा के पीछे भारद्वाज पार्क है, जो एक समय सिर्फ़ प्रेमियों के लिए बदनाम था। यहाँ जाने का मतलब ही होता था कि आप किसी लड़की-लड़का के साथ गए होंगे। अकेले या पुरुष मित्र के साथ जाने वाले संदिग्ध समझे जाते थे। माना जाता था कि वह छींटाकशी करने गए हैं। आज भी कमोबेश यही हाल है।
लोग बताते हैं कि पहले कभी यहाँ तक गंगा बहा करती थी। लेकिन बाद में वह झूँसी की तरफ़ बढ़ गई। जब तक मुग़लों के समय मीर बख्शी ने बख्शी बाँध नहीं बनवाया था, तब तक बाढ़ यहाँ तक आती रही। बाँध बनने के बाद गंगा सिमट गई झूँसी की तरफ़। यहाँ से ऑटो लिया। अलोपीबाग़ चुंगी होते हुए पुल पर आया। मेला क्षेत्र में जल रही लाइटें एक अलग तरह की आभा पैदा कर रही थीं। ऐसा लगता है नीचे एक आसमान फैला था, जिसमें तारे टिमटिमा रहे थे। ख़ुशी से लबरेज़ इन्हीं से होकर गुज़रता उन्हें निहारता हुआ वापस आ गया।
इस तरह ख़त्म हुई यह राम कहानी। आप इसे कुछ भी कह सकते हैं। रिपोर्ताज, संस्मरण, कहानी, यात्रा-वृत्तांत। मैं सबकुछ आप पर छोड़ता हूँ।
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समाप्त
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